ततिम्मा

घर से आया है मोअतबर नाई


 

Golden Fort Jaisalmer
स्वर्ण किले जैसलमेर

 

जैसा कि एक मुसलमान के हवाला से मैंने लिखा है कि जबकि वहाबियों की बदज़ुबानी सयाबी और फ़ह्हाशी से ख़ुद उन के बुज़ुर्गान औलिया अम्बिया महफ़ूज़ नहीं रहे। तो एक ईसाई क्या और उसकी हैसियत क्या। जो उन की ज़बान शतम आफ़रीं से महफ़ूज़ रह सके। अली-उल-ख़ुसूस वो शख़्स जिसके ईसाई होने से उनके घर मातमकदा बन गए हों और जिस के क़लम से मौलवी सना-उल्लाह साहिब जैसे शख़्स की जो इस फ़िर्क़ा के शेर बे-दम में ऐसी फ़ज़ीहत और रुस्वाई हुई हो जिनको मरते दम तक भूल ना सकते हों इस फ़िर्क़ा से कभी हुस्न-ए-खुल्क की तवक्को नहीं हो सकती है जब इस शेर रेश दराज़ को अपने किए का ख़मयाज़ा भुगतना पड़ा और हमारे रिसाले " मैं क्यों मसीही हो गया" के जवाब से सरासर क़ासिर और ख़ासिर रह गया तो बजाय इसके कि अपनी बे-बज़ाअती और बेपायगी पर ख़ून के आँसू बहाना या दुम दबाकर अमृतसर की किसी मस्जिद के हुजरे में दुबक जाता उल्टा हमें मोर व तअन बनाया ताकि अवाम काला-तआम की तवज्जा उस की शिकस्त और शर्मसारी से हट कर ज़ातियात की तरफ़ मबज़ूल हो जाए।

मैं सच्च अर्ज़ करता हूँ कि मुझको ऐसों के मुताल्लिक़ कुछ शिकायत नहीं है क्योंकि उन लोगों का जो किसी हक़ीक़ीत के साबित करने से आजिज़ रहे जाते हैं ये आम दस्तूर है कि वो अपनी जहालत और ज़लालत पर गाली गलोच और आमियाना दसुकियाना तानों का पर्दा डालने की कोशिश करते हैं लेकिन हक़ीक़त शनास मालूम कर लेते हैं कि हज़रत कितने पानी में हैं बईना मौलवी सना-उल्लाह साहिब का यही हाल है।

आपका एक मोअतबर नाई (ख़बररसां) बंबई में रहता है जिसका ताल्लुक़ इसी नज्दी फ़िर्क़ा से है और जिस का पेशा गाड़ीयों का रंगना और इस से क़ब्ल बंबई के किसी थेटर में पर्दों के रंगने का काम करता था और जिस का नाम अब्दुल रऊफ है और पंजाब के किसी गांव का रहने वाला है इस मोअतबर नाई को मौलवी सना-उल्लाह ने लिखा था कि हमारे बंबई के रहने के वाक़ियात लिख भेजे। क्योंकि इस शख़्स का नाम हमारे रिसाले "मैं क्यों मसीही हो गया" में भी आ गया है।

मौलवी सना-उल्लाह साहिब को यक़ीनन ये ख़्याल हुआ होगा कि हमारी ज़िंदगी के मुताल्लिक़ उनको बहुत सी ऐसी बातें मिलेंगी जो हमारी बदनामी और बेइज़्ज़ती के लिए दलील का काम देंगी। लेकिन ख़ुदा के फ़ज़्ल से चूँकि हमारी ज़िंदगी का दामन इस किस्म के तमाम बदनुमा दाग़ों से आईने की तरह साफ़ और शफ़्फ़ाफ़ है उनके मोअतबर नाई को ये जुरआत नहीं हुई कि इस किस्म के अतहामात और इल्ज़ामात हम पर चस्पाँ करता है जिस तरह कि मुसन्निफ़ आईना हक़ीक़त नुमा ने मौलवी साहब पर चस्पाँ किया है। लिहाज़ा जो कुछ इस मोअतबर नाई ने मौलवी सना-उल्लाह साहिब को लिखा ये लिखा कि :—

  1. सुल्तान मुहम्मद का असली नाम सुल्तान अहमद है।
  2. सुल्तान मुहम्मद के क़दम बग़रज़ तालीम मिनारा वाली मस्जिद में आए और मस्जिद की रोटियों पर औक़ात बसर करने लगा।”
  3. (सुल्तान मुहम्मद बानी अंजुमन ना था...........लेकिन मुम्किन है कि सुल्तान मुहम्मद किसी कोने में बैठ कर तक़रीरें सुनता हो।”
  4. असल वाक़िया ये है कि 1903 ई. में जलसा बंद करके मैं दौरा पर गया था। जब वापिस आया तो मालूम हुआ कि मिनारा वाली मस्जिद का मामूली तालिब इल्म ईसाई हो गया। तहक़ीक़ करने से साबित हो कि सुल्तान मुहम्मद मंसूर मसीह का बेटा बन कर बपतिस्मा लेकर हमीरपुर पादरी अहमद शाह कानपूरी के पास चला गया। मिनारा वाली मस्जिद के तलबा से ये भी मालूम हुआ कि मस्जिद की रोटियों के लिए अक्सर शिकायत किया करता था। कपड़े वग़ैरा की इस को सख़्त तक्लीफ़ थी बाअज़ मेमनों ने बलिहाज़ हमदर्दी रूपये क़र्ज़ दिए थे। बाअज़ लोग रूपयों का तक़ाज़ा करते थे जिसके सबब हमेशा परेशान रहता था। मंसूर मसीह निहायत तजुर्बेकार और चालाक मिशनरी था। उसने उस की नादारी और ग़ुर्बत देखकर हमदर्दी की। ये उसके मकान पर आने जाने लगा और उसने उसको तर्ग़ीब दी। ये ना तजुर्बाकार और शबाब का आलम गिरजा में.........की आमद-ओ-रफ़्त का मंज़र देखकर अज़ ख़ुदरफ़्ता हुआ और किसी ख़ास ग़रज़ से ईसाई हो कर यहां से चल दिया। मुम्किन है कि इस की दिली आरज़ू बुराई हो।” (अहले हदीस 21 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 2)
  5. तीन चार साल बाद बड़े दिनों की तअतील में वो अपने (मस्नूई) बाप मंसूर मसीह को मिलने आया। जिसका क़र्ज़ था अदा किया। बाद वापिस कानपुर चला गया" (अहले हदीस 21 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 2)
  6. (6) और पादरी जोज़फ बिहारी लाल अगरचे मिशन से अलीहदहा हैं ताहम वो भी तक ईसाई हैं। सुल्तान मुहम्मद की तरह के तालिब नहीं हैं मेरे बयान की तस्दीक़ करेंगे कि जो कुछ मैंने लिखा है दरुस्त है (अहले हदीस 21 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 3)

शक़्क़ अव्वल का जवाब ये है कि इस मोअतबर नाई का ये लिखना मेरा नाम "सुल्तान अहमद" था सरासर झूट और सफ़ैद झूट है जिसकी दलाईल हस्ब-ज़ैल हैं :—

(अलिफ़) मेरे ईसाई होने से बहुत पहले मैंने मौलवी ग़ुलाम नबी साहिब बाशिंदा अमृतसर की एक तस्नीफ़ पर जो ईसाईयों के रद्द में थी फ़ारसी में रिव्यू लिख कर उनको भेजा था इस रिव्यू में मेरा दस्तख़त (सुल्तान मुहम्मद) है। ना कि सुल्तान अहमद "मौलवी सना-उल्लाह साहिब ! मौलवी ग़ुलाम नबी साहिब आपके शहर और पड़ोस में रहते हैं आप जाकर वो रिव्यू अपनी आँख से देखें ताकि सयादर के शोदहर कि दर्द ग़श बाशनद।

(ब) मेरे ईसाई होने से चंद माह पेशतर मैंने पादरी मौलवी हुसाम उद्दीन साहिब ऐडीटर कशफ़- उल-हक़ाइक़ के एक मज़्मून का जो इस्लाम के बरख़िलाफ़ था जवाब लिखा था मैंने इस जवाब को रिसाला अल-हक़ में जो कानपूर से पादरी अहमद शाह साहिब शाईक़ की इदारत में शायाअ होता था शायाअ किया था इस में भी मेरा दसख़तत "सुल्तान मुहम्मद" है ये मज़्मून 1930 ई. की फ़िल में आपको मिलेंगे।

(ज) इस वक़्त तक अफ़्ग़ानिस्तान से मेरे नाम जितने ख़ुतूत आए हैं इन सब में मेरा नाम सुल्तान मुहम्मद है। मसलन ग़ुलाम मंज़र ज़ी वज़ीर ख़ारजिया दौरामान्या अफ़्ग़ानिस्तान I  मुल्ला ग़ुलाम मुहम्मद ख़ां वज़ीर-ए-तिजारत अफ़्ग़ानिस्तान, वबादा वज़ीर-ए-दाख़िला अफ़्ग़ानिस्तान दौर अमान्य जो मेरे चचा हैं। वज़ीर साहिब मआरिफ़ अफ़्ग़ानिस्तान दौर अमान्य शहज़ादा इनायतउल्लाह ख़ां वग़ैरा हम जितने अराकीन ने मुझसे ख़त-ओ-किताबत की है। इन सभों ने मुझको सुल्तान मुहम्मद लिखा है। क्योंकि मेरा पैदाइशी नाम अफ़्ग़ानिस्तान के सरकारी दफ़्तर में यही है।

(द) मेरे छोटे भाई ताज मुहम्मद ख़ां और मेरी हमशीरा और दीगर अका़रिब रिश्तादारां मुझ को हमेशा सुल्तान मुहम्मद कहते हैं। ये तमाम ख़ुतूत मेरे पास फ़ारसी ज़बान में मौजूद हैं।

(ह) मेरे वालिद बुजु़र्गवार की जागीरों और क़िलों की तमाम तमकात और क़िबाला जात में जो मेरे नाम पर हैं मेरा नाम सुल्तान मुहम्मद है।

मैं मौलवी सना-उल्लाह साहिब को चैलेंज करता हूँ कि वो मेरे किसी ख़त से ख़्वाह मेरे मसीही होने से क़ब्ल का हो या बाद का मेरा नाम सुल्तान अहमद साबित करें। अगर उन्होंने मेरा नाम सुल्तान अहमद साबित किया तो जो सज़ा मुक़र्रर करें मैं क़बूल करूंगा वर्ना उन के लिए जो सज़ा मैं मुक़र्रर करूँ वो बर्दाश्त करें।

क्या अब भी आपके मोअतबर नाई के झूटे होने में कोई शक व शुबहा बाक़ी है।

शक़्क़ दोम का जवाब ये है कि ये भी सरासर झूट और किज़्ब है कि मैंने मिनारा वाली मस्जिद में 1903 ई. में तालीम पाई है। क्योंकि इन दिनों मिनारा वाली मस्जिद में कोई अरबी का मदरिसा ना था और ग़ालिबन अब भी नहीं है। बल्कि मैंने मदरिसा ज़करिया में तालीम पाई है और ख़ासकर मौलवी अब्दुल अहद साहिब से जो काबुली थे और मदरिसा ज़करिया में मुदर्रिस थे। जैसा कि मैंने अपने रिसाले में ज़िक्र किया है। दूसरी दलील ये है कि नद्वह मुतकल्लिमीन के तमाम अराकीन जिनका मैंने अपने रिसाले में ज़िक्र किया कि मुंतही-तालिब-इल्म थे। उनमें से एक भी मिनारा वाली मस्जिद से ताल्लुक़ नहीं रखते थे। क्योंकि उस वक़्त मिनारा वाली मस्जिद में कोई मदरिसा था ही नहीं। मैं आपके मोअतबर नाई को चैलेंज करता हूँ कि वो साबित करें कि इन अय्याम में जिनका मेने ज़िक्र किया है मिनारा वाली मस्जिद में कोई मदरिसा भी था। ये भी झूट है कि मैं 1902 ई. में आया बल्कि में बंबई में 1892 ई. या 1893 ई. में आया था क्योंकि मैं 1903 ई. तक मुसलसल छः सात साल बंबई में रह चुका हूँ। आपके मोअतबर नाई ने ये भी झूट लिखा है कि "मैं मदरिसा की रोटियों पर औक़ात बसर करता था।” क्योंकि मैं किसी मदरिसा में बोर्डर नहीं रहा बल्कि टीयूशन और तबाबत से अपना गुज़ारा करता था। और ख़ुदा के फ़ज़्ल से इस क़दर आमदनी थी कि मैंने अपनी आमदनी से हज किया और वापिस आया। अगर में ऐसा ग़रीब होता जैसा कि आपके मोअतबर नाई ने ज़ाहिर किया है तो मैं ना हज पर जा सकता था और ना ही वापिस आ सकता था।

ये आपके मोअतबर नाई का दूसरा झूट है क्या ऐसा झूटा आदमी काबिल-ए-एतिबार हो सकता है। आप तो अहले हदीस में से हैं रावियों की जरह के तरीक़ से ख़ूब वाक़िफ़ हैं। ज़रा देर के लिए सर गिरेंबां में डाल कर सोचिए।

शक़्क़ सोम का जवाब ये है कि दरहक़ीक़त में ही ज़िया-उल-इस्लाम और नद्वह मुतकल्लिमीन का बानी था। आपके मोअतबर नाई ने बजुज़ इंकार के इस की कोई तर्दीद नहीं कि जबकि मैंने साबित कर दिया है कि आपका मोअतबर नाई परले दर्जे का झूटा है तो ऐसे झूटे शख़्स के इन्कार से किसी हक़ीक़त की तर्दीद नहीं हो सकती है।

दीगर ये कि जिस वक़्त में मसीही हो गया उसी वक़्त कानपूर रवाना किया गया और कानपूर आते ही मैंने सबसे अव्वल अपीफ़ेनी में जो एक निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ अंग्रेज़ी मज़्हबी अख़्बार है अपने मसीही होने की कैफ़ीयत लिखी। जिसका जवाब बंबई से एक मुसलमान ने लिखा। इस मुसलमान ने मुझ पर दो एतराज़ किए थे। अव्वल ये कि "जब मैं मुसलमान था तो अंग्रेज़ी नहीं जानता था। अब दो तीन महीनों के अरसा में मुझको अंग्रेज़ी किस तरह आ गई।” दूसरा एतराज़ ये था कि "जब तक मैं बंबई में रहता था तो मैंने अपने वालिद का नाम किसी को नहीं बतलाया था। अब अपीफ़ेनी में मैंने क्यों ज़ाहिर कर दिया।” जिसका जवाब-उल-जवाब मैंने अपीफ़ेनी में दिया। अगर बंबई में मेरी वही हालत थी जो मोअतबर नाई बयान करता है तो ये शख़्स वही बयान करता हालाँकि उनमें से एक का भी उसने ज़िक्र नहीं किया था।

दीगर ये कि मैं ना सिर्फ अपीफ़ेनी में बल्कि अल-हक़ में और नूरअफ़शां में नजात के मुताल्लिक़ मुसलसल मज़ामीन लिखता रहा। क्या उस वक़्त इस मोअतबर नाई को सांप सूंघ गया था जो ऐसा चुप साधा कि गोया उस के बदन में जान ही नहीं है और अब 27 साल के बाद हमसे मुतालिबा करता है कि "अब भी उन को चैलेंज देता हूँ कि कोई तहरीर ऐसी पेश करें कि आप बानी-ए-अंजुमन कब हुए। आपका मोअतबर नाई जानता है कि 27 साल तक कौन इस किस्म की फ़ुज़ूल तहरीरें अपने पास महफ़ूज़ रखेगा। इस लिए चलो अपनी इज़्ज़त रखो और चैलेन्ज दो। अगर ये चैलेंज मुझको इस वक़्त भी दिया जाता। जबकि मेरा रिसाला “मैं क्यों मसीही हो गया" शायाअ हो गया तो में इस मोअतबर नाई को तहरीरें दिखा कर भी इस के घर तक पहुँचाता। अब उस के चैलेंज का ये जवाब है कि मुश्ते कि बाद अज़जनग ब-कार आमद बर कलिमा ख़ुद याएदज़द।

हमारी दियानत पर मोअतबर नाई की मुहर तस्दीक़

शक़्क़ चहारुम व पंजुम का जवाब ये है कि अगरचे ये दोनों शक़्क़ीं भी सरासर झूट और दरोग़बानी पर मबनी हैं। क्योंकि ना तो हमने किसी से रूपये क़र्ज़ लिए थे। और ना ही क़र्ज़ा अदा करने के लिए बड़े दिनों की तअतील में बंबई गए थे।लेकिन इस से हमारी दियानत- दारी की तस्दीक़ होती है। कि हम इस क़दर दियानतदार और सदाक़त शआर हैं कि किसी का क़र्ज़ा ख़ोरदबरुद करना नहीं चाहते हैं। बल्कि हम उस वक़्त भी किसी का क़र्ज़ा अदा किया करते हैं जब अदालती कार्रवाई भी मुनक़ते हो जाती है। क्योंकि अदालत के रू से तीन साल और चार साल के बाद कोई क़र्ज़ख़्वाह अपना क़र्ज़ा वसूल नहीं कर सकता। लेकिन हमने ज़ाएद-उल-मियाद क़र्ज़ा को भी अदा कर दिया। क्या मुसलमानों में भी कोई ऐसा दियानतदार शख़्स है? मौलवी साहब आपकी क्या राय है?

शक़्क़ शश्म का जवाब ये है कि झूटों की तस्दीक़ करने वाला भी झूटा होता है। चूँकि हमने साबित कर दिया कि जिस नाई को आप मोअतबर समझ रहे हैं वो सरासर नामोअतबर और नाक़ाबिल इल्तिफ़ात और झूटा है। इस लिए जो शख़्स ऐसे शख़्स की तस्दीक़ करता है। लामुहाला वो भी झूटा है।

मैं नहीं चाहता कि जोज़फ़ बिहारी लाल साहिब की परेशानीयों और मसाइब पर कुछ इज़ाफ़ा करूँ। सिर्फ इस क़दर लिखने पर इक्तिफ़ा करता हूँ कि आपके मोअतबर नाई के इस जुम्ला से कि पादरी जोज़फ़ बिहारी लाल अगरचे मिशन से अलीहदहा हैं। ताहम वो अब तक ईसाई हैं।” इन तमाम वाक़ियात की तस्दीक़ मज़ीद होती है। जो उनके मुताल्लिक़ हमारे हाथ पहुंचे हैं। ख़ुद उनके हाथ का लिखा हुआ एक ऐसा लंबा चौड़ा ख़त हमारे पास है कि जब हम चाहें उनको परेशान कर सकते हैं बाईं-हमा में तमाम मसीहीय्यों की ख़िदमत में अर्ज़ करता हूँ कि जोज़फ़ बिहारी लाल साहिब के लिए दुआ करें कि ख़ुदा उनको रुहानी और जिस्मानी तक्लीफों से आज़ाद करे। और राह मुस्तक़ीम पर उन की रहनुमाई करे। वस्सलाम।

ख़ाकसार - सुल्तान मुहम्मद अफ़्ग़ान