फ़स्ल चहारुम
लफ़्ज़ वारिद (وَارِدُ) का फ़ैसला और दोज़ख़ का भर जाना
ख़ुदा के फ़ज़्ल व करम से आयत नंबर अव्वल के लफ़्ज़ वारिद (وَارِدُ) की तशरीह व तोज़िह से हम फ़ारिग़ हो गए यानी ख़ुद क़ुरआन शरीफ़ की दीगर आयात के रू से और अशआर अरब के रू से और बिल-तख्सीस ख़ुद आँहज़रत सलअम की ज़बानी हमने निहायत वाज़ेह तौर पर साबित कर दिया (وان منکم الاوارد دھا) में वारिद (وارد) के मअनी दाख़िल होने के हैं।
और हज़रत जाबिर की हदीस ने तो बेचारे मौलवी सना-उल्लाह साहिब की तमाम उम्मीदों पर पानी फेर कर उसका फ़ैसला ही कर दिया कि वारिद के मअनी ना सिर्फ दाख़िल होने के हैं बल्कि हर एक मुसलमान का ख़्वाह नेक हो या बद दोज़ख़ में दाख़िल होना ज़रूरी अम्र है। दोज़ख़ ख़्वाह गर्म हो या सर्द ख़्वाह वो अपने हमराह और कोट ले कर जाये या ख़स की टट्इस से बह्स नहीं। बह्स तो इस से है कि हर एक मुसलमान को इस जगह जाना है जिसका नाम दोज़ख़ है और यह साबित हो गया।
मैं लगे हाथ मौलवी साहब को एक और परु लुतफ़ हिकायत सुनाना चाहता हूँ जिसका मफ़्हूम ये है कि जब इन्सानों और जिन्नों से दोज़ख़ नहीं भरेगा तो फिर किस तरह ख़ुदा दोज़ख़ को भर देगा।
ख़ुदा का दोज़ख़ को भर देना
وعن انس عن النبی صلے اللہ وسلم قال لاتزال جہنمہ یلقی فیھا وتقول ھل من مزید حتی یضیع رب العزت فیھا قدمہ فینروی بعد صفہا الی بعض فتقول قط قط بغرتک وکرمک متفق علیہ
(मिश्कात किताब अल-फितन फ़ी ख़ल्क़ अलजन्नत व अल-नार)
तर्जुमा: हज़रत अनस से रिवायत है कि आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया कि हमेशा आदमी दोज़ख़ में डाले जाएंगे। और वो कहता रहेगा कुछ और भी है यहां तक कि इज़्ज़त वाला परवरदिगार इस में अपना क़दम रखेगा तो वो आपस में सिमट जाएगा और कहेगा कि बस-बस तेरी इज़्ज़त और बुजु़र्गी की क़सम I” इस हदीस से ऊपर एक और हदीस भी है जो अबू हुरैरा से मर्वी है और मुत्तफ़िक़ अलैह है। इस में बजाय क़दम के ये जुम्ला है कि (حتی یصنح اللہ رجلہ) यानी "यहां तक कि ख़ुदा इस में अपना पांव रखेगा।
हम मौलवी साहब की तरह ग़लत मबह्स नहीं चाहते हैं वर्ना ये ज़रूर पूछते कि अल्लाह के पांव और क़दम कैसे ? अगर दरहक़ीक़त आप अहले हदीस हैं तो इन अहादीस की तावील या तफ़्सीर तो कर दीजीए। फिर देखिए आपको किन-किन मुसीबतों का सामना होगा।
नाज़रीन हदीस बाला को पढ़ कर ज़रूरत दर्याफ़्त करना चाहते होंगे कि अल्लाह को इस तरह दोज़ख़ भर देने की क्यों ज़रूरत लाहक़ हुई। इस की वजह आयत नंबर दोम बतलाती है जो हस्ब -ज़ैल है :—
(2) وشَاء رَبُّكَ لَجَعَلَ النَّاسَ أُمَّةً وَاحِدَةً وَلاَ يَزَالُونَ مُخْتَلِفِينَ إِلاَّ مَن رَّحِمَ رَبُّكَ وَلِذَلِكَ خَلَقَهُمْ وَتَمَّتْ كَلِمَةُ رَبِّكَ لأَمْلأنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ أَجْمَعِين
(क़ुरआन सुरह हूद आयत 12)
तर्जुमा: अगर तेरा रब चाहता तो सब लोगों को एक उम्मत बनाता, लेकिन ये हमेशा इख़्तिलाफ़ करते रहेंगे। मगर जिस पर तेरे रब का हुक्म हुआ और ख़ुदा ने इन को इसी लिए पैदा किया है ताकि तेरे रब की ये बात पूरी हो कि मैं जिन्नों और आदमियों से दोज़ख़ भर दूंगा"
(मैं क्यों मसीही हो गया सफ़ा 33)
लेकिन ख़ुदा से ये भी तो ना हो सका कि दोज़ख़ को इन्स और जिन्न से भर देता। क्योंकि हदीसों में दोज़ख़ का जो नक़्शा खींचा गया है। इससे मालूम होता है कि दोज़ख़ इस क़दर तवील व अरीज़ है कि तमाम अफ़राद-ए-इन्सानी और जिन्न क्या अगर हमारी इस ज़मीन की तरह सत्तर ज़मीनें बल्कि सत्तर हज़ार ज़मीनें भी इस में डाल दी जाएं तो इस का एक कोना भी ब-हज़ार मुश्किल भर सकेगा। इस लिए जब अल्लाह ने देखा कि दोज़ख़ तो भरता ही नहीं और मैं वाअदा कर चुका हूँ कि तुझको भर दूंगा। इस लिए अपनी बात को पूरा करने के लिए अपने पांव को दोज़ख़ में रखा ताकि इस कमबख़्त का पेट भर जाये ये है आयत नंबर दोम की सही तफ़्सीर जो मौलवी साहब की समझ में अब तक नहीं आई।
ये आयत इस क़दर साफ़ और ग़ैर मुबहम है कि अगर किसी शख़्स को ज़रा भी अरबी से वाक़फ़ीयत हो तो वो इस के मफ़्हूम के समझने में कुछ भी दिक़्क़त महसूस ना करेगा। लेकिन बेचारे मौलवी साहब समझें तो क्योंकर समझें। कुछ तो उनकी अपनी फ़ज़ीलत का ख़्याल और कुछ अपना हलवा मांडे का फ़िक्र और कुछ शेर क़ालीन कहलाने का पास। लिहाज़ा गर कुछ समझें भी तो इस को किस तरह ज़ाहिर करें। चुनांचे इन्हीं मजबूरीयों से मज्बूर हो कर बादिल-ए-नाख़्वासता जिस पर उन की इबारत शहादत दे रही है यूं इर्शाद फ़रमाते हैं :—
"इस मुश्किल की आपने नहीं बताई। इस लिए हम नहीं कह सकते हैं कि क्या मुश्किल पेश आई थी। अब हम इस आयत की तफ़्सीर कर देते हैं कि मुम्किन है कि सही तफ़्सीर ही से आपकी मुश्किल हल हो जाएगी।
इस में क्या शक है कि दुनिया में इख़्तिलाफ़ राय है ना सिर्फ दुनियावी कामों में बल्कि दुनियावी उमूर में भी। ना सिर्फ बैरूनी कामों में बल्कि ख़ानदानी उमूर में भी। इख़्तिलाफ़ का मबनी दरअसल इख़्तिलाफ़ फ़हम है जो क़ुदरती उसूल पर मबनी है। इस क़ुदरती इख़्तिलाफ़ को मल्हूज़ रखकर क़ुरआन-ए-मजीद की आयत मज़्कूर में बताया गया है कि बावजूद इन इख़्तिलाफ़ात के ख़ुदा को क़ुदरत है कि अगर चाहता तो इन सब लोगों को मुत्तहिद-अल-ख़याल बना देता (لاریب فیہ ला रेय बफीह ) उस के बाद फ़रमाया इन्सानी अफ़राद अपने ख़यालात में हमेशा मुख़्तलिफ़ रहेंगे और उन को इसी इख़्तिलाफ़ पर पैदा किया है। मगर जिन लोगों के तलाश-ए-हक़ करने की वजह से उन पर ख़ुदा की इनायत होगी वो इस इख़्तिलाफ़ से अलग रह कर सीधी राह पर चलेंगे और जो टेढ़े चलेंगे ख़ुदा उन से जहन्नम को भरेगा।
ये है इस आयत की सही तफ़्सीर" (अहले हदीस 2 नवम्बर 1928 ई सफ़ा 3)
शेर क़ालीन की गुरेज़
क़सीदों में गुरेज़ एक सनअत ख़ूबी समझी जाती है और इस की वजह से क़सीदे का हुस्न दो-बाला हो जाता है। इसी तरह मुबाहिसों में अगर गुरेज़ सदाक़त व दयानत के नाम पर इख़्तियार की जाये और इस में रूबाबाज़ी और पर्दादारी का मुतलक़ दख़ल ना हो तो निहायत मुस्तहसिन समझी जाती है वर्ना निहायत मज़मूम और बददियानती समझी जाएगी। जो लोग सदाक़त शआरो अस्त गुफ़तार होते हैं वो अलल-ऐलान अपनी शिकस्त का इज़्हार करते हैं ना ख़ुद को धोका देते हैं और ना दूसरों को धोके में डालना चाहते हैं लेकिन शेर पंजाब को अपनी हट धर्मी और इज़्ज़त का इस क़दर पास है कि मजाल किया कि सर-ए-मोट्स से मस हो जाए I चुनांचे किस भोलेपन से आप हमसे सवाल करते हैं कि "इस मुश्किल की वजह आपने नहीं बताई। इस लिए हम नहीं कह सकते कि क्या मुश्किल पेश आई थी।” आपकी समझ में कौनसी बात आई जो ये आती।
लीजिए हम अपने फ़र्ज़ से सकबदोश होते हैं और इस मुश्किल की वजह हम आप ही की ज़बानी आप को सुनाते हैं जिसको ख़ुदाए बरतर ने आप ही की क़लम से इस तरह लिखवाया कि ख़ुद आपको भी इस की ख़बर ना हुई वो ये है कि :—
आयत नंबर 2 की मुश्किलात :—
(1) इन्सानी अफ़राद अपने ख़यालात में हमेशा मुख़्तलिफ़ रहेंगे। उनको इसी इख़्तिलाफ़ पर पैदा किया है।” जब ख़ुदा ने इन्सान को इसी इख़्तिलाफ़ पर पैदा किया है जो शान ख़ुदावंद के सरासर मुनाफ़ी है और वो आपस में "हमेशा मुख़्तलिफ़ भी रहेंगे" और फिर इसी इख़्तिलाफ़ को जिस पर ख़ुद ख़ुदा ने इन्सान को "पैदा किया" है दोज़ख़ में जाने का सबब ठहरना कहाँ का अदल और इन्साफ़ है?
आपका ये कहना कि "मगर जिन लोगों के तलाश हक़ करने की वजह से उन पर ख़ुदा की नज़र इनायत होगी वो इस इख़्तिलाफ़ से अलग रह कर सीधे राह पर चलेंगे" बिल्कुल लगू है क्योंकि अगर "ख़ुदा की नज़र इनायत" होती तो "अफ़राद इन्सानी" को इस "इख़्तिलाफ़" पर पैदा ही क्यों करता। नीज़ आप ख़ुद लिख चुके हैं कि "इन्सानी अफ़राद अपने ख़यालात में हमेशा मुख़्तलिफ़ रहेंगे।" तो "इख़्तिलाफ़" से किस तरह "अलग" रह सकेंगे? दीगर ये कि इन्सान जिस अम्र पर फित्रतन पैदा होता है वो इस अम्र से कामिल तौर पर हरगिज़ "अलग" नहीं हो सकता है अगर इस पर भी आप "शहादत" चाहते हैं तो हदीस जे़ल मुलाहिज़ा फ़रमाईये :—
وعن ابی الدورد قال رہینما نحن عند رسول اللہ صلے ا للہ علیہ وسلم نتدا اکرما یکون افرقال رسول اللہ صلے اللہ علیہ وسلیم اذا سمعتم بجبل زال عن مکانہ فصد قوہ راز سمعتم برجل تغیر من خلقہ فلا تصد توا بدنانہ یصیرالی ماجبل علیہ رازہ احمد
(मिश्कात किताब अल-ईमान फ़ी अलसदर)
तर्जुमा: अबी दर्दा बयान करते हैं कि हम आँहज़रत सलअम के पास बैठे हुए आइन्दा होने वाली बातों के मुताल्लिक़ गुफ़्तगु करते थे कि आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया कि जब तुम ये सुनो कि फ़ुलां पहाड़ अपनी जगह से टल गया तो तुम उस को सच्च मानो और जब तुम ये सुनो कि फ़ुलां शख़्स के अख़्लाक़ बदल गए तो तुम उस को सच्च मत मानो। क्योंकि जो शख़्स जिस बात पर पैदा किया गया है उसी पर क़ायम हो जाता है।
अल्लामा अली क़ारी मिश्कात की शरह मिर्क़ात में इस जुम्ला की शरह में यसीराली माहील अलैहि (یصیرالی ماحیل علیہ) तहरीर फ़रमाते हैं कि :—
علے ماقدر وسبق حتی العجز والکیس فاذ اسمعتم بان الکیس صار بلیدً اوبابلعکس فکا نضد تولہ ضرب زوال الجبل مثلاً تقریب فان ھذا ممکن وزوال الخلق المقدر عماکان فی القدر وغیرہ ممکن۔
यानी हर एक इन्सान इसी बात पर क़ायम हो जाता है जो उस की तक़्दीर में पेशतर लिखी जा चुकी है। हत्ता कि बुज़दिली और अक़्लमंदी वग़ैरा भी तक़्दीर से हैं। जब तुम ये सुनो कि एक अक़्लमंद शख़्स जाहिल या कुंद ज़हन बन गया या कुंदा-ज़हन शख़्स अक़्लमंद बन गया तो इस को सच्च मत मानो। आँहज़रत ने जो पहाड़ टलने की मिसाल दी है ये एक तक़रीबी मिसाल है। जो मुम्किन है लेकिन इस ख़ल्क़ का ज़वाल जो पहले मुक़र्रर हो चुका है मुहाल है"
लिहाज़ा "इन्सानी अफ़राद" को "इख़्तिलाफ़ पर पैदा करने और "इख़्तिलाफ़" भी ऐसा "जो हमेशा रहता हो और फिर "उसी इख़्तिलाफ़" को जहन्नम में झोंक देने का सबब गर्दानने की तावील बजुज़ इस के और क्या हो सकती है कि ख़ुदा की नीयत इन्सानों के मुताल्लिक़ बख़ैर नहीं है।