फ़स्ल हश्तम

मौलवी सना-उल्लाह साहिब के इल्ज़ामी

जवाबात पर नज़र

मौलवी सना-उल्लाह साहिब जब मेरे रिसाले के जवाब लिखने से निहायत बेबसी और बेकसी के साथ क़ासिर रह गए। यानी इस्लाम में नजात साबित ना कर सके तो इल्ज़ामी जवाबात की आड़ में पनाह ढ़ूढ़ने लगे। और इल्ज़ामी जवाबात भी ऐसे पुराने और बोसीदा कि दकियानूस के ज़माने में से भी बरसों आगे के हैं। बमिस्दाक़ डूबते को तिनके का सहारा। मौलवी साहब ने अपनी बेहतरी इसी में देखी। चुनांचे आप रक़म फ़रमाते हैं कि :—

"मसीह अलैहिस्सलाम ने भी आमाल शरईयह पर अमल करने की बहुत ताकीद की है चुनांचे आपके अल्फ़ाज़ ये हैं तू ज़िंदगी में दाख़िल हुआ चाहता है। तो हुक्मों पर अमल कर। (इंजील मत्ती 19 बाब 18)

बस मुख़्तसर जवाब तो यही है कि जिस वजह से आपने इस्लाम को छोड़ा यानी अहकाम शरईयह पर आप ख़ौफ़-ज़दा हुए वही ख़ौफ़ इंजील में भी मौजूद है" (अहले-हदीस 5 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3)

फिर आप अहले-हदीस मौरखा 12 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3 में लिखते हैं कि :—

"हमारा ख़्याल है कि जिस तरह पादरी साहिब की नज़र से ये आयत क़ुरआनी ओझल रही है। इंजील का एक मुक़ाम भी उन्होंने नहीं देखा। देखा तो ग़ौर नहीं फ़रमाया। वर्ना पादरी साहिब अगर आमाल सालेहा से घबराकर इस्लाम से बर्गशता हुए थे तो इधर से हट कर ईसाई मज़्हब में ना जाते मुम्किन था आज़ाद हो जाते लेकिन मसीही ना होते। पस पादरी साहिब ग़ौर से सुनें मसीह फ़रमाते :—

"जो कोई इन (तौरात) के हुक्मों में सबसे छोटे को टाल दे और वैसा ही आदमीयों को सिखा दे आस्मान की बादशाहत में सबसे छोटा कहलाएगा। क्योंकि मैं कहता हूँ कि अगर तुम्हारी रास्तबाज़ी फ़क़ीहों और फ़रीसयों (उलमा यहूद) से ज़्यादा ना हो तुम आस्मान की बादशाहत में किसी तरह दाख़िल ना होगे" (इंजील मत्ती बाब 5 फ़िक्रात 19-20)

इस में कोई शक नहीं कि अनाजील में आमाल सालेहा पर बेहद "ताकीद" है। यहां तक कि क़ुरआन शरीफ़ की "ताकीद" उस के आगे कोई हक़ीक़त नहीं रखती है लेकिन क़ुरआन शरीफ़ की "ताकीद" में और अनाजील की "ताकीद" में ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है। क़ुरआन शरीफ़ की ताकीद के मअनी ख़ुदा के साथ तिजारत करना है। चुनांचे ख़ुद मौलवी साहब ने जे़ल का शेअर लिख कर इस की तस्दीक़ की है कि :—

जी इबादत से चुराना और जन्नत की हवस

काम-चोर इस काम पर किस मुँह से उज्रत की हवस

(अहले-हदीस 4 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3)

अनाजील की "ताकीद" के ये मअनी हैं कि हर एक हालत में ख़ुदा की "इबादत" करनी लाज़िमी है। क़त-ए-नज़र इस से कि इस को इबादत की "उज्रत" में "जन्नत" मिले इबादत ना करने की सज़ा में दोज़ख़ मिले। हम ख़ुदा के फ़र्ज़ंद हैं। सआदतमंद फ़रज़न्दों का फ़र्ज़ है कि अपने बाप के फ़रमांबर्दार और मुतीअ रहें ख़्वाह उनका बाप उनको इनाम दे या ना दे। ग़रज़ कि मसीहीय्यों के आमाल सालेहा में ख़ौफ़ और राजार को मुतलक़ दख़ल नहीं है। यही सबब है कि अनाजील में एक आयत भी नहीं है जो इस पर दलालत करे कि नजात आमाल सालेहा पर मौक़ूफ़ है।

बरअक्स इस के अनाजील में सैंकड़ों ऐसी आयतें मौजूद हैं जो नजात को सिर्फ हमारे मुंजी की ज़ात पर मुनहसिर बतलाती हैं। चुनांचे ऐसी चंद आयतें हमने अपने रिसाला "मैं क्यों मसीही हो गया" में नक़्ल की हैं। (देखो रिसाला बाला के सफ़ा 39-42 आयत तक)

मौलवी साहब चूँकि अनाजील की इस्तिलाहात से वाक़िफ़ नहीं हैं। इस लिए अनाजील में जहां कहीं उनको लफ़्ज़ "आस्मान की बादशाहत" मिल गया उन्होंने वहां ये समझा कि इस से मुराद "नजात" है। चुनांचे आप अहले हदीस मौरख़ा 12 अक्तूबर 1928 ई. के हाशिया में लिखते हैं कि "इंजील के मुहावरे में नजात को आस्मान की बादशाहत कहा गया है" हालाँकि इंजील के मुहावरा "में आस्मान की बादशाहत" नजात याफ्ताह यानी मसीहीय्यों का मुक़ाम है ना कि "नजात" और मुक़ाम से मुराद इंजील जलील का दायरा असर है जिसको हम कलीसिया कहते हैं। चुनांचे जिन आयात को आपने नक़्ल किया है ख़ुद उनमें इस की तशरीह मौजूद है कि “आस्मान कि बादशाहत में सब से छोटा कहलाएगा” अगर बक़ोल आपके आस्मान कि बादशाहत से नजात मुराद होती तो “आस्मान की बादशाहत में छोटा कहलाने के कुछ भी मअनी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि जब कोई गुनहगार इस में सिरे से दाख़िल ही नहीं हो सकता तो वो इस में किस तरह छोटा कहलाया जा सकता है।

नीज़ एक और आयत में ख़ुदावंद ने और वाज़ेह तौर पर बयान फ़रमाया है कि देखो ख़ुदा की बादशाहत तुम्हारे दर्मियान है" (लूका 17:21) पस जहां कहीं अनाजील में इस किस्म के अल्फ़ाज़ आए हैं वहां उनका मतलब ये है कि वो शख़्स जो ऐसा ऐसा काम करता है एक नाक़िस मसीही समझा जाएगा और इस आयत का और इस किस्म की दूसरी आयतों का मतलब कि "अगर तुम्हारी रास्तबाज़ी फ़क़ीहों और फ़रीसयों से ज़्यादा ना हो तो तुम आस्मान की बादशाहत में किसी तरह दाख़िल ना होगे। ये है कि अगर तुम अपनी तमाम बदकिर्दारियों और गुनाहों को तर्क ना करोगे तो तुम मसीही जमात में कभी दाख़िल ना हो सकोगे क्योंकि मसीही होने के मअनी यही हैं कि गुनाहों से मुतनफ़्फ़िर होना और रास्तबाज़ी की ज़िंदगी बसर करना।

पस अनाजील में आमाल सालेहा पर इसलिए "ताकीद" है कि आमाल सालेहा ईमान यानी मसीही होने की ख़ास अलामत और रास्तबाज़ी का निशान है यानी एक शख़्स का मसीही होना उसके आमाल से मालूम हो जाता है। अगर उसके आमाल इंजील के साँचे में ढले हुए हैं तो वो एक ईमानदार और कामिल मसीही है और अगर उसके आमाल में कुछ कसर बाक़ी है तो वो एक नाक़िस यानी छोटा मसीही कहलाएगा और अगर वो बिल्कुल बदकिर्दार शख़्स है यानी इंजील जलील के अहकाम के बरख़िलाफ़ चलता है तो मुतलक़ हक़ीक़ी मसीही नहीं है।

नाज़रीन को याद होगा कि मैंने अपने रिसाले में क़ुरआन शरीफ़ की वो आयत नक़्ल की थी जिसमें ये लिखा हुआ है कि "हर एक शख़्स को दोज़ख़ में दाख़िल करना ख़ुदा पर फ़र्ज़ हो चुका है। मौलवी साहब ने इस आयत के बिलमुक़ाबिल इंजील जलील की इस आयत को पेश किया है कि "हर एक शख़्स आग से नम्कीन किया जाएगा" (मरक़ुस 9:49) बेचारे मौलवी साहब को इस आयत में लफ़्ज़ "आग" क्या मिल गया गोया डूबते को तिनके का सहारा मिल गया। आप ये समझते हैं कि इस से मुराद दोज़ख़ की "आग" है। ये सिर्फ़ जनाब ही के ज़ेहन-ए-रसा का नतीजा नहीं है बल्कि ख़ुद आँहज़रत सलअम ने भी इस आग को दोज़ख़ की "आग" समझ कर وان منکم الاوراد ھا कि सूरत में क़ुरआन शरीफ़ में शामिल फ़रमाया। चुनांचे मैंने इन दोनों आयतों को "हमारा क़ुरआन" में बिलमुक़ाबिल नक़्ल किया है। मेरे नक़्ल करने का मक़्सद सिर्फ इस क़दर था कि वो लोग जो बाइबल मुक़द्दस से वाक़िफ़ हैं इस अम्र का अंदाज़ा कर सकें कि आँहज़रत को बाइबल मुक़द्दस की आयतों के नक़्ल करने में इस क़दर शग़फ़ और इन्हिमाक था कि जो आयत भी आपको मिल जाती थी उस के मफ़्हूम से क़त-ए-नज़र करके क़ुरआन शरीफ़ में शामिल फ़रमाते थे।

मरक़ुस की आयत माफ़ौक़ में आग से मुराद रूहुल-क़ुद्दुस है जो पाकीज़गी का सर चशमा है जिसकी ताईद लफ़्ज़ नम्कीन करता है जो पाकीज़गी की अलामत है। इंजील जलील में बीसियों जगह रूहुल-क़ुद्दुस को आग से तशबीया दी गई है। जिनमें से हम बतौर नमूना के सिर्फ एक आयत पर इक्तिफ़ा करते हैं। ग़ौर से सुनिए :—

और "उन्हें आग के शोले की सी फटती हुई ज़बानें दीखाई दीं और उन में हर एक पर आ ठहरीं और वो सब रूहुल-क़ुद्दुस से भर गए" (आमाल 2:3 व 4)

लफ़्ज़ नम्कीन के मुताल्लिक़ हम लिख आए हैं कि इंजील मुक़द्दस की इस्तिलाह में इस के मअनी पाकीज़गी की अलामत के हैं। चुनांचे ख़ुद हमारे मुंजी ने अपने शागिर्दों को नमक से तशबीया दी है कि "तुम दुनिया के नमक हो" (मत्ती 5:13) पस आयत माफ़ौक़ के मअनी ये हैं कि कोई शख़्स पाकीज़गी हासिल नहीं कर सकता है। तावक्ते कि रूहुल-क़ुद्दुस से बहरा याब और माअमूर ना हो जाए I और इस के बाद हमारे मुंजी ने अपने शागिर्दों को ये ख़ुशख़बरी सुनाई कि हर एक सच्चे मसीही पर रूहुल-क़ुद्दुस उतरेगा और उस की ज़िंदगी नम्कीन यानी पाकीज़ा ज़िंदगी बन जाएगी।

अगर खुदावंद मसीह का मक़्सद इस "आग से दोज़ख़" की "आग" होता तो उस के साथ लफ़्ज़ नम्कीन इस्तिमाल ना फ़रमाते। लफ़्ज़ नम्कीन का फ़रमाना ही इस की काफ़ी दलील है कि इस "आग" से मुराद रूहुल-क़ुद्दुस है ना कि दोज़ख़ की "आग।” अब आया समझ में !