फ़स्ल दहुम

मौलवी सना-उल्लाह साहिब के कफ़्फ़ारे पर एतराज़ात और क़ुरआन व हदीस से कफ़्फ़ारे का सबूत

मौलवी साहब ने नूरअफ़शां (9 नवम्बर 1928 ई.) में से साबिक़ ऐडीटर यानी डाक्टर हश्मत- उल्लाह साहिब के एक मज़्मून में से जो कफ़्फ़ारे पर था एक इक़्तिबास किया है। आप इसी इक़्तिबास की बिना पर लिखते हैं कि :—

"मगर उनमें एक नुक़्स या सहल अंगारी ये है कि इन मुसन्निफ़ों ने इस अम्र का फ़ैसला नहीं किया कि शरई गुनाह फ़ौजदारी केस है या दीवानी ? मसलन बदकारी की सज़ा शराअ में जहन्नम की क़ैद है या माली जुर्माना है। कुछ शक नहीं कि हज़रात अम्बिया अलैहिसलाम की शरीयत में गुनाहों का मुक़द्दमा फ़ौजदारी केस है तो फ़ौजदारी में अस्लुल उसूल क़ानून है कि जो करे वो ही भरे !

(अहले हदीस 7 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 3)

मौलवी साहब फ़रमाते हैं कि शरई गुनाह फ़ौजदारी केस है। और फ़ौजदारी की तारीफ़ "जहन्नम की क़ैद" है और फ़ौजदार में अस्लुल-उसूल क़ानून "ये है कि जो करे वही भरे" यानी जो शख़्स गुनाह करता है वही शख़्स सीधा जहन्नम में जाता है और इस से कोई मुआवज़ा या माली जुर्माना नहीं लिया जाता है। अगर मैं साबित कर दूँ कि जो कुछ मौलवी साहब लिख रहे हैं क़ुरआन व हदीस के मुनाफ़ी लिख रहे हैं तो फिर मज़ीद लिखने की ज़रूरत ना होगी।

क़ब्ल इसके कि मैं क़ुरआन शरीफ़ और अहादीस में से शवाहिद पेश करूँ मुनासिब मालूम होता है कि ये भी गोश गुज़ार कर दूँ कि नफ़्स कफ़्फ़ारा पर मसीहीय्यत और इस्लाम दोनों मुत्तफ़िक़ हैं। सिर्फ इसकी नौईय्यत में इख़्तिलाफ़ है मसीहीय्यत मसीह को कफ़्फ़ारा मानती है और इस्लाम और चीज़ों को। क़ुरआन शरीफ़ की जे़ल की आयतें मुलाहिज़ा हूँ :—

(1)

لاَ يُؤَاخِذُكُمُ اللّهُ بِاللَّغْوِ فِي أَيْمَانِكُمْ وَلَـكِن يُؤَاخِذُكُم بِمَا عَقَّدتُّمُ الأَيْمَانَ فَكَفَّارَتُهُ إِطْعَامُ عَشَرَةِ مَسَاكِينَ مِنْ أَوْسَطِ مَا تُطْعِمُونَ أَهْلِيكُمْ أَوْ كِسْوَتُهُمْ أَوْ تَحْرِيرُ رَقَبَةٍ فَمَن لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلاَثَةِ أَيَّامٍ ذَلِكَ كَفَّارَةُ أَيْمَانِكُمْ إِذَا حَلَفْتُمْ وَاحْفَظُواْ أَيْمَانَكُمْ كَذَلِكَ يُبَيِّنُ اللّهُ لَكُمْ آيَاتِهِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُونَ

(सुरह माइदा आयत 91)

तर्जुमा: अल्लाह तआला तुमसे मुवाख़िज़ा नहीं फ़रमाता। तुम्हारी कसमों में लगू क़सम पर लेकिन मुवाख़िज़ा इस पर फ़रमाता है कि तुम कसमों को मुस्तहकम कर दो। सो इसका कफ़्फ़ारा दस मुहताजों को खाना खिला देना है औसत दर्जे का जो अपने घर वालों को दिया करते हो या उनको कपड़ा देना या एक ग़ुलाम या लौंडी आज़ाद करना। और जिस को मुक़द्ददर ना हो तो तीन दिन के रोज़े हैं ये कफ़्फ़ारा है तुम्हारी कसमों का जबकि तुम खालो और अपनी कसमों का ख़्याल रखा करो। इसी तरह अल्लाह तुम्हारे वास्ते अपने अहकाम बयान फ़रमाता है ताकि तुम फ़िक्र करो।”

आयत बाला से साफ़ ज़ाहिर है कि क़सम खाकर पूरा ना करना क़ाबिल मुवाख़िज़ा गुनाह है। जो बक़ौल मौलवी साहब ऐसे शख़्स को सीधा जहन्नम में जाना चाहिए लेकिन क़ुरआन शरीफ़ उस को "माली जुर्माने" पर छोड़ देता है।

(2)

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ لاَ تَقْتُلُواْ الصَّيْدَ وَأَنتُمْ حُرُمٌ وَمَن قَتَلَهُ مِنكُم مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاء مِّثْلُ مَا قَتَلَ مِنَ النَّعَمِ يَحْكُمُ بِهِ ذَوَا عَدْلٍ مِّنكُمْ هَدْيًا بَالِغَ الْكَعْبَةِ أَوْ كَفَّارَةٌ طَعَامُ مَسَاكِينَ أَ و عَدْلُ ذَلِكَ صِيَامًا لِّيَذُوقَ وَبَالَ أَمْرِهِ عَفَا اللّهُ عَمَّا سَلَف وَمَنْ عَادَ فَيَنتَقِمُ اللّهُ مِنْهُ وَاللّهُ عَزِيزٌ ذُو انْتِقَامٍ

(5:96)

तर्जुमा: ऐ ईमान वालो जंगली शिकार को क़त्ल मत करो। जबकि तुम हालत एहराम में हो। और जो शख़्स तुम में से इस को जान-बूझ कर क़त्ल करेगा तो इस पर पादाश वाजिब होगी जो मिस्बा दी होगी इस जानवर के जिसको इसने क़त्ल किया है जिसका फ़ैसला तुम में से दो मोअतबर शख़्स कर दें ख़्वाह वो पादाश ख़ास चौपायियों से हो। बशर्ते के नयाज़ के तौर पर काअबा तक पहुंचाई जाये। और ख़्वाह कफ़्फ़ारा मसाकीन को दे दिया जाये और ख़्वाह उस के बराबर रोज़े रख लिए जाएं ताकि अपने किए की शामत का मज़ा चखे और अल्लाह तआला ने गुज़शता को माफ़ कर दिया। और ये शख़्स फिर ऐसी हरकत करेगा तो अल्लाह तआला इंतिक़ाम लेगा और अल्लाह ज़बरदस्त से इंतिक़ाम ले सकता है।”

इस आयत से आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि बहालत एहराम शिकार का क़त्ल करना सख़्त गुनाह है। जिसके मुर्तक़िब को बक़ौल मौलवी साहब सीधा जहन्नम में जाना चाहिए था। लेकिन क़ुरआन शरीफ़ उस को "माली जुर्माने" पर छोड़ देता है। मैं मह्ज़ अदम गुंजाइश की वजह से इन्ही दो आयतों पर इक्तिफ़ा करता हूँ। वर्ना क़ुरआन शरीफ़ में ऐसी बीसियों आयतें हैं जिनसे मौलवी साहब की क़ुरआन दानी की हक़ीक़त वाज़ेह तर हो जाती है।

यहां तक क़ुरआन शरीफ़ में से कफ़्फ़ारे का सबूत था। अब अहादीस की तालीम मुलाहिज़ा हो

(1)

وعن ابی موسیٰ قال قال رسول اللہ صلے اللہ علیہ وسلم اذاکان یوم القیمتہ دفع اللہ الی کل مسلم یہود او نصرانیا فیقول ھذا فکاک من الناررواہ مسلم

(मिश्कात सफ़ा 485)

तर्जुमा: अबू मूसा ने कहा कि आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया कि क़ियामत के दिन अल्लाह हर एक मुसलमान को एक यहूदी या ईसाई देकर कहेगा कि ये तुझको आग से रिहाई देने का बदला है। इस हदीस को मुस्लिम ने रिवायत की है।”

मौलवी साहब देखिए तो ये कहाँ का इन्साफ़ और "फ़ौजदारी केस" है कि गुनाह तो करें मुसलमान और यहूदी या ईसाई बेचारे उनके बदले दोज़ख़ में जाएं।

(2)

عن سلمان بن عامر الضبی قال سمعت رسول صلی اللہ علیہ وسلم یقول مع الغلام عقیقتہ فاھر یقوا عنہ دماوا میطوواعنہ الاذی رواہ البخاری

(मिश्कात 362)

तर्जुमा" सलमान बिन आमिर अलज़बी ने कहा कि मैंने आँहज़रत सलअम को ये फ़रमाते हुए सुना कि लड़के की पैदाइश के साथ अक़ीक़ा करना लाज़िमी है। पस उन के एवज़ में ख़ून बहाओ (गोस्फ़ंद ज़बह करो) और इस से ईज़ा को दूर करो। इस हदीस को बुख़ारी ने रिवायत की है।

क्या मौलवी साहब "फ़ौजदारी केस" के यही मअनी हैं कि ईज़ा तो हो लड़के को और ज़बह किया जाये गोस्फ़ंद? क्या मैं मौलवी साहब से पूछ सकता हूँ कि हदीस बाला में ईज़ा से किया मुराद है? क्या इस गुनाह की अज़ीयत तो नहीं जो हज़रत आदम से दरअसना चली आई है। ज़रा एहतियात के साथ क़लम उठाइए। ऐसा ना हो कि फिर आपको नापीदार किनार मसाइब का सामना करना पड़े।

अफ़्सोस तो ये है कि मौलवी साहब ने और मुसलमानों की तरह कफ़्फ़ारे पर ठंडे दिल से कभी ग़ौर नहीं किया। वर्ना कफ़्फ़ारे का सबूत हमारी रोज़ मर्राह ज़िंदगीयों में इस सफ़ाई के साथ मिलता है जिससे कोई शख़्स बशर्ते के तास्सुब से इस का दिल आलूदा ना हो इन्कार नहीं कर सकता है। एक लायक़ बाप अपनी तमाम ज़िंदगी अपने अहल व अयाल की बहयुदी के लिए सर्फ करता है। एक घर में जब कोई शख़्स बीमार हो जाता है तो इस की बीमारी को इस के तमाम मुताल्लिक़ीन इस तरह बांट लेते हैं कि कोई डाक्टर बुला लाता है कोई दाई बुलाता है। कोई उस के साथ जागता रहता है। कोई तसल्ली देता, ग़रज़ कि एक शख़्स की तक्लीफ़ और बीमारी से तमाम घर तक्लीफ़-दह और बीमार बन जाता है। अगर उस के मुताल्लिक़ीन मौलवी साहब के इस सुनहरे उसूल पर अमल करें कि "जो करे वो भरे" तो इस बीमार का ख़ुदा ही हाफ़िज़ है। दुनिया से हमदर्दी, ईसार, और मुहब्बत इसी तरह मफ़्क़ूद हो जाएं जिस तरह मौलवी साहब के दिमाग़ से क़ुरआन शरीफ़ व अहादीस के सही मफ़्हूम मफ़्क़ूद हैं।

इस्लाम का तरीक़ा नजात

आगे चल कर मौलवी साहब लिखते हैं कि :—

"यहां हम सिर्फ इतना अर्ज़ करते हैं कि

  1. अगर यही तरीक़ नजात है तो पहले नबियों की उम्मतों की नजात किस तरह होगी ?
  2. अगर यही तरीक़ नजात ख़ुदा के हाँ मुक़र्रर था तो शुरू दुनिया में सबसे पहले नबी पर इस को क्यों ज़ाहिर ना किया?
  3. अगर ज़रीया नजात मसीह की मौत है तो फिर मसीही होने की क्या ज़रूरत है। ख़ुदा ने सब गुनाहों की बख़्शिश का इंतिज़ाम फ़रमाया किसी ख़ास गिरोह का नहीं
  4. मह्ज़ मसीही कफ़्फ़ारा काफ़ी है तो युहन्ना रसूल क्यों कहते हैं :—

जो कहता है कि मैं उसे मानता हूँ और उसके हुक्मों पर अमल नहीं सो झूटा है और सच्चाई इसमें...हर वो जो उस के कलाम पर अमल करे यक़ीनन उसमें ख़ुदा की मुहब्बत है" (1 युहन्ना बाब 2 आयत 3 अहले-हदीस मत्बूआ 14 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 2)

एतराज़ अव्वल का जवाब

जब तक मसीह कफ़्फ़ारा नहीं हुए थे उस वक़्त "पहले नबियों की उम्मतों की नजात" उन ज़िल्ली क़ुर्बानीयों की बिना पर होगी जिनको उन के अम्बिया ने ख़ुदा के हुक्म से उनमें जारी फ़रमाया था। यही वजह है कि दुनिया के तमाम मज़ाहिब क़दीमा में क़ुर्बानी मुख़्तलिफ़ सूरतों में मौजूद है।

एतराज़ दोम का जवाब

उसूल इर्तिक़ा के बमूजब ख़ुदा ने अव्वल से लेकर आख़िर तक हर एक नबी पर इस को ज़ाहिर फ़रमाया है। यहां तक कि आख़िरी अम्बिया के क़ुतुब में मसीह के कुल वाक़ियात हू-ब-हू मौजूद हैं।

एतराज़ सोम का जवाब

बे-शक ख़ुदा ने सब गुनाहों की बख़्शिश का इंतिज़ाम फ़रमाया है। लेकिन इस इंतिज़ाम से वही शख़्स फ़ायदा उठा सकता है जो इस को क़बूल करता है। मसलन ख़ुदा ने सारी दुनिया के लिए हवा और रोशनी का इंतिज़ाम फ़रमाया है। लेकिन उनसे वही शख़्स बहरा अंदाज़ हो सकता है जो हवा में सांस ले और रोशनी में आँखों से काम ले। अगर कोई शख़्स हवा में सांस ना ले। और रोशनी में अपनी आँखों पर पट्टी बांध ले तो हवा और रोशनी से इसको कुछ फ़ायदा नहीं पहुंच सकता है।

एतराज़ चहारुम का जवाब

मुफ़स्सिल दे चुके हैं। यहां इआदा की ज़रूरत नहीं है।

मौलवी साहब हम पर एतराज़ करते हुए लिखते हैं कि :—

"मुख़्तसर यह है कि पादरी साहिब के हक़ में हमने ये समझा कि "आप मुफ़्तखोरी के लिए मसीही हुए हैं।” क्योंकि इस्लाम बल्कि कुल अदयान में नेक-आमाल करने की ताकीद है। और मुरव्वजा ईसाई में इन की ज़रूरत नहीं।” (अहले-हदीस मत्बूआ 14 दिसंबर 1928 ई. सफ़ा 3)

मैं आमाल की ज़रूरत और इस की अहमीय्यत पर गुज़शता औराक़ में मुफ़स्सिल तौर पर लिख चुका हूँ। सिर्फ ये गुज़ारिश करना बाक़ी है कि "मसीहीय्यत में मुफ़्तखोरी" हराम है। अलबत्ता इस्लाम ने उसको शेर मादर की तरह हलाल फ़रमाया है कि :—

قُلْ يَا عِبَادِيَ الَّذِينَ أَسْرَفُوا عَلَى أَنفُسِهِمْ لَا تَقْنَطُوا مِن رَّحْمَةِ اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ يَغْفِرُ الذُّنُوبَ

جَمِيعًا إِنَّهُ هُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ

(क़ुरआन 39:54)

तर्जुमा: ऐ मेरे बंदो जिन्होंने ज़्यादती की है अपनी जान पर ख़ुदा की रहमत से ना उम्मीद मत हो। तहक़ीक़ अल्लाह बख़्शता है तमाम गुनाहों को बेशक ख़ुदा माफ़ करने वाला और मेहरबान है” यानी जितने जी चाहे गुलछर्रे उड़ाते रहो। कुछ फ़िक्र नहीं। ख़ुदा सबको बख़्श देगा।

हदीस जे़ल भी मुलाहिज़ा हो :—

وعن ابی ذ ر قال اتیت النبی صلی اللہ علیہ وسلم وعلیہ ثوب ابیض وھو نائمہ ثمہ اتیتہ وقد استقیط فقال مامن عبد قال لاالااللہ ثمہ مات عاذالک الادخل الجنتہ قلت وان زنی وان سرق قال وان زنی وان سرق قلت وان زنی وان سرق قال وان زنی وان سرق قلت وان زنی وان سرق قال وانی زنی وان سرق علےٰ رغمہ انف ابی ذرٍ   وکان ابوذر اذا حدث بھذا قال وان رغمہ انف ابی ذر متفق علیہ۔

तर्जुमा: "अबी ज़र ने कहा मैं आंहज़रत सलअम के पास आया आप सो रहे थे और आप पर सफ़ैद कपड़ा था। जब मैं फिर आया तो आप जागते थे। आपने फ़रमाया कि हर एक बंदा जो ला इलाहा इलल्लाह कहे और इस पर मर जाये वो जन्नत में दाख़िल होगा। मैंने कहा कि अगरचे वो चोर या ज़िनाकार हो? आपने कहा अगरचे चोर या ज़ानी हो। फिर मैंने कहा कि अगरचे वो चोर या ज़ानी हो? आपने फ़रमाया अगरचे चोर या ज़ानी हो। फिर मैंने कहा अगरचे वो चोर या ज़ानी हो? आपने कहा अगरचे वो चोर या ज़ानी हो। अगरचे ये बात अबूज़र को नागवार मालूम होती है" (मिश्कात किताब अल-ईमान)

कहिए इस से बढ़कर मुफ़्तखोरी आपको कहीं और मिल सकती है।

मेरे रिसाले" मैं क्यों मसीही हो गया" में ऐसी चंद हदीसें और हैं जिनके जवाब से मौलवी साहब ऐसे ख़ामोश हैं कि गोया उनकी जान में जान नहीं। मुलाहिज़ा हो सफ़ा 35,36)

इस्लाम में तरीक़ा नजात

इस के बाद मौलवी साहब इस्लाम का तरीक़ा नजात पेश करते हुए लिखते हैं कि :—

  1. इस्लाम में एक तरीक़ नजात तो अक्सरीयत आमाल सालेहा का है।”
  2. दूसरा अक्सरीयत इज्तिनाब अज़ मआसी है यानी जो शख़्स अक्सर हालात में बड़े बड़े गुनाहों से बचता रहेगा वो नजात पा जाएगा"
  3. बिल्कुल आसान और पादरी साहिब के हस्बे-मन्शा है कि तालिब नजात इन्सान रोज़ाना अपने गुनाहों पर ग़ौर करके ख़ुदा के हुज़ूर ख़ालिस तौबा क्या करे तो ख़ुदा उस की तौबा को क़बूल करके बख़्श देगा" (अहले-हदीस 12 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3)

तरीक़ा अव्वल के मुताल्लिक़ हम काफ़ी से ज़्यादा बह्स करके साबित कर चुके हैं कि :—

अक्सरीयत आमाल सालेहा से कोई मुसलमान नजात नहीं पा सकता है। और मौलवी साहिब ने भी इस को तस्लीम कर लिया है कि "आमाल अपनी ज़ाती हैसियत से हरगिज़ मूजिब नजात नहीं" (अहले-हदीस 9 नवम्बर 1928 ई. सफ़ा 3)

तरीक़ दोम भी बातिल है। अव्वल तो इस लिए कि मौलवी साहब का इंदीया इस आयत के मुनाफ़ी है कि فَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ خَيْرًا يَّرَہٗ وَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ شَرًّا يَّرَہٗ   जिस पर हम मुफ़स्सिल बह्स कर चुके हैं। दोम इसलिए कि क़ुरआन शरीफ़ में कबाइर का तअय्युन और हिस्र नहीं है और ना अहादीस से इस पर रोशनी पड़ती है और ना किसी आलिम ने आज तक उनका हिस्र और तअय्युन बताया। बाअज़ के नज़्दीक कबाइर की तादाद 72 है। और बाअज़ के नज़्दीक सौ से भी ज़्यादा और बाअज़ के नज़्दीक इस से भी कम है। पस जब तक आप पहले उस का तअय्युन और हिस्र साबित ना करें। उस वक़्त तक आप कबाइर के तर्क पर नजात की बुनियाद नहीं रख सकते हैं।

तरीक़ सोम के मुताल्लिक़ ये अर्ज़ है कि मैं साबित कर चुका हूँ कि ख़्वाह आप तौबा करें या ना करें ख़्वाह आप नेक हों या बद हों एक बार आप का दोज़ख़ में तशरीफ़ ले जाना अज़बस ज़रूरी है। वस्सलाम


बिलआखिर में अपने दोस्त प्यारे मौलवी साहब का बेहद शुक्रगुज़ार हूँ कि आपके तुफ़ैल से मेरे रिसाले " मैं क्यों मसीही हो गया" के मज्मलात और इशारात मुफ़स्सिल और वाज़ेहतर हो गए। ना आप उस के जवाब की ज़हमत गवारा फ़रमाते और ना में इस की तफ़्सील और तौज़ीह करता। ये भी ख़ुदा की मर्ज़ी थी जो पूरी हो गई।

मैंने ये वाअदा किया था कि इस मज़्मून के आख़िर में मौलवी साहब की सवानिह उमरी लिखूंगा मैंने आपकी सवानिह उमरी बिल्कुल मुरत्तब कर ली है। लेकिन बजाय इसके कि हम इसको अपने रिसाले में शाया करें बेहतर यही है कि हम इस को शायाअ ही ना करें। क्योंकि किसी की ज़ात पर हमला करना हमारी आदत नहीं। ये वतीरा क़ादियानीयों और वहाबियों को मुबारक रहे।