फ़स्ल हफ़्तुम

मौलवी सना-उल्लाह साहिब का ख़ातिमा

मैं इस आयत اَمَّا مَنْ ثَــقُلَتْ مَوَازِيْنُہ  अलख पर एक और पहलू से बह्स करूंगा। अव्वल ये कि अगर मौलवी साहब का इस्तिदलाल इस आयत से दरुस्त भी हो तब भी कोई इन्सान नजात नहीं पा सकता है। क्योंकि कोई इन्सान ऐसा नहीं है، जिसके आमालनामा में "अक्सरीयत अच्छी हो।” दोयम ये कि इस्लाम के रू से आमालनामा में अक्सरीयत शायाँ-ए-इल्तिफ़ात नहीं है।

अम्र अव्वल के मुताल्लिक़ क़ुरआन शरीफ़ की शहादत ये है कि :—

وَلَوْ يُؤَاخِذُ اللہُ النَّاسَ بِظُلْمِہِمْ مَّا تَرَكَ عَلَيْہَا مِنْ دَاۗبَّۃٍ

(सुरह अल-नहल आयत 63) यानी "अगर पकड़े अल्लाह लोगों को उन के ज़ुल्म पर तो ना छोड़े ज़मीन पर एक चलने वाला।”

इस आयत में दो बातें काबिल-ए-ग़ौर हैं। अव्वल लफ़्ज़ "ज़ुल्म।” दोम उसकी निस्बत, लोग समझते होंगे कि ज़ुल्म कोई मामूली बात है। लेकिन क़ुरआन शरीफ़ के मुतआला करने से मालूम होता है कि ज़ुल्म कोई मामूली बात नहीं बल्कि वो एक सख़्त गुनाह है जिसके करने वाले पर लानत भेजी गई है। कि لعنت اللہ علےٰ الظلمین  (लानतूल्लाह अला अलज़ालमीन) (सुरह अलाअराफ़ आयत 42) दूसरी काबिल-ए-ग़ौर बात ज़ुल्म की निस्बत है आयत बाला में ज़ुल्म की निस्बत तमाम अफ़राद इन्सानी के साथ दी गई है। क्योंकि अव्वल तो नास (ناس)  ख़ुद सीग़ा जमा है और फिर उस अलिफ़ लाम (الف لام)  इस्तिग़राक़ (استغراق)  के इज़ाफ़ा करने के ये मअनी हैं कि तमाम अफ़राद इन्सानी ज़ालिम हैं। इस क़दर तहलील के बाद अब आप नफ़्से आयत पर ग़ौर करें कि ख़ुदा कहता है कि "अगर पकड़े अल्लाह लोगों को उन के ज़ुल्म पर तो ना छोड़े ज़मीन पर एक चलने वाला।" यानी अगर ख़ुदा इन्सानों से उन के गुनाहों का हिसाब ले तो एक शख़्स भी ऐसा नहीं जो बच सके। जिसका साफ़ और वाज़ेह मतलब ये है कि कोई इन्सान ऐसा नहीं है जिसके आमालनामा में "अक्सरीयत अच्छी" हो क्योंकि अगर किसी के आमालनामा में "अक्सरीयत अच्छी" होती तो वो क्यों ना बचता ज़रूर बच जाता।

हमारी ताईद एक हदीस से भी होती है जिसको हम जे़ल में नक़्ल करते हैं :—

حدثنا اسحاق بن منصور قال حمدوثنا روح بن عبادة قال حدثنا حاتمہ بن صغیرة قال حدثنا عبداللہ بن ابی ملکئتہ قال حدنفی القاعم بن محمد حد ثنی عائشتہ عن رسول اللہ صلے وسلم قال لیس احد یجا سب یوم القیمتہ الااھنک نقلت یار سول اللہ الیس قد قال اللہ فاما من اوتی کتابتہ بیمینہ فسوف یحاسب حساب یسیرا فقال رسول اللہ انما ذالک العرض و لیس احدمنا ینا قش الحساب یوم القیمتہ الاعذب

(सही बुख़ारी जिल्द दोम सफ़ा 968)

तर्जुमा: हज़रत आईशा से रिवायत है कि आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया कि कोई शख़्स ऐसा नहीं जिससे क़ियामत के दिन हिसाब लिया जाये और वह हलाक ना हो। हज़रत आईशा ने कहा कि या रसूल अल्लाह क्या ख़ुदा ने क़ुरआन में ये नहीं फ़रमाया कि जिस शख़्स का आमाल-नामा उस के दहने हाथ में दिया जाएगा उस से आसानी के साथ हिसाब लिया जाएगा। आँहज़रत सलअम ने जवाब दिया कि ये सिर्फ़ पेश करना है। हम में से कोई ऐसा शख़्स नहीं है कि क़ियामत के दिन हिसाब में चोन व चरा करे और वो अज़ाब में मुब्तला ना किया जाये" ये और बात है कि ख़ुदा मुवाख़िज़ा करे या ना करे हमें इस से कुछ सरोकार नहीं। हमारा मतलब सिर्फ ये है कि किसी इन्सान के आमाल-नामा में "अक्सरीयत अच्छी" नहीं है। चुनांचे यही साबित हुआ।

बाक़ी रहा अम्र दोम। यानी ये कि इस्लाम के रू से आमालनामा में नेकी की "अक्सरीयत" शायाँ-ए- इल्तिफ़ात नहीं है। इन अहादीस से साबित है जिनको में अपने रिसाला "मैं क्यों मसीही हो गया" में नक़्ल किया है। जिनको मौलवी साहब ने छुवा तक नहीं। नाज़रीन से इल्तिमास है कि वो रिसाला मज़्कूर बाला के सफ़ा 27 तक मुलाहिज़ा फ़रमाएं। ये वो अहादीस हैं जिनके जवाब से अब तक मौलवी साहब सबकदोश ना हो सके और ना ताब क़ियामत सबकदोश हो सकेंगे।

आप आगे चल कर अरक़ाम फ़रमाते हैं कि :—

"पादरी साहिब ने एक हदीस नक़्ल की है जिसमें ज़िक्र है कि हज़रत आदम जो भूले तो उनकी सारी औलाद भूलने लगी इस हदीस से आपने नतीजा निकाला है कि :—

इस हदीस से इस बात का फ़ैसला होगा कि दरहक़ीक़त कुल बनी-आदम गुनहगार हैं। क्योंकि गुनाह ने सब में नफ़ुज़ किया" (सफ़ा 28)

हैरानी है पादरी साहिब किस कोशिश में हैं और इस कोशिश में कहाँ तक कामयाब हैं। हदीस में निस्यान (نسیان) का लफ़्ज़ है जिसका मतलब है कि इन्सान में फ़ित्रतन निस्यान (भूलना) दाख़िल है। अदम निस्यान ख़ुदा का ख़ास्सा है। चुनांचे क़ुरआन में इशारा है مَا كَانَ رَبُّكَ نَسِـيًّا  (माकान रब्बुका नसिया) तुम्हारा परवरदिगार नहीं भूलता" (अहले हदीस 12 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3 कालम 2)

मौलवी सना-उल्लाह साहिब की दियानतदारी

आप लिखते हैं कि "पादरी साहिब ने एक हदीस नक़्ल की है "वो हदीस कहाँ है शायद मौलवी साहब के पेट में ! अगर आप दरहक़ीक़त शेर क़ालीन नहीं तो आपने इस हदीस को बजिन्सा नक़्ल क्यों नहीं किया आपकी दियानतदारी का ये एक अदना नमूना है कि बंदगान-ए-ख़ुदा को धोके में डाल कर उन को ये यक़ीन दिला रहें हैं कि "पादरी साहिब ने एक हदीस नक़्ल की है कि आदम जो भूले उन की सारी औलाद भूलने लगी।” हालाँकि जिस हदीस को मैंने नक़्ल किया है ना तो इस की अरबी में लफ़्ज़ "भूलना" है और ना ही इस के तर्जुमा में जिस हदीस को हमने नक़्ल किया है इस में तीन लफ़्ज़ काबिल-ए-ग़ौर आए हैं यानी (1) حجد  हजद (2) نسی  नसी (3) خطاء   ख़ता। मौलवी साहब ने इन तीनों लफ़्ज़ों में से सिर्फ लफ़्ज़ نسی  "नसी" को ले लिया है और इस का ग़लत तर्जुमा करके अपने हम ख़यालों को ये यक़ीन दिलाया है कि बस पादरी सुल्तान मुहम्मद का जवाब हो चुका। हालाँकि लफ़्ज़ نسی  नसी के मअनी भूलने के नहीं बल्कि तर्क करने के हैं। अच्छा इस लफ़्ज़ को जाने दो आपका तर्जुमा ही सही लेकिन लफ़्ज़ حجد  हजद के मुताल्लिक़ जिस क़ी माअनी इन्कार और लफ़्ज़ ख़ता के मुताल्लिक़ जिसके मअनी गुनाह के हैं आपका क्या इर्शाद है? कुछ भी नहीं सरासर ख़ामोशी। आपकी कमज़ोरी का एक बय्यन सबूत यही है कि आपने इस हदीस को नक़्ल ही नहीं किया। क्योंकि असल में ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जिनकी तावील आप कर ही नहीं सकते। लीजिए मैं फिर उस हदीस को जे़ल में लिखता हूँ ताकि आपकी दियानतदारी की हक़ीक़त सब पर ज़ाहिर हो जाए। वो हदीस ये है :—

وعن ابی ھریرہ قال قال رسول اللہ لما خلق اللہ ادم مسح ظہرہ فسقط عن ظھر وکل نسمتہ ھو خالقھا من ذریتہ الی یوم القیمتہ وجعل بین عینی کل انسان منہم وبیصا من نورثم عرضھم علےٰ ادم قال ای رب من ھولاقال ذریتک فرایٰ رجلا منھمہ فاعجبتہ ویعص مابین عینیتہ قال ای رب من ھذا قال داؤد فقال اے رب کم جم جعلت عمرہ قال متین سنتہ قال رب ردہ من عمریٰ ربعین سنتہ قال رسول اللہ صلی وسلم انقفی عمرادم الاربعین جاء ملک الموت فقال ادم اوبصرین مت عمری اربعون سنتہ قال اولمہ تطھا ابنک داؤد فجتہ ادم فجدت ذریتہ ونسی نادم فاکل من الشجرتہ فنیست ذریتہ وخطاء آدمہ و خطات ذریتہ رواہ الترمذی ومشکوات باب الایمان ۔ لقد۔

तर्जुमा: अबू हुरैरा कहते हैं कि आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया जब ख़ुदा ने आदम को ख़ल्क़ क्या उस की पुश्त को छू लिया। पस आदम की पुश्त से इस की औलाद की जानें जिनको वो क़ियामत तक पैदा करने वाला है टपकने लगीं और हर एक इन्सान की दो आँखों के बीच में अपने नूर की रोशनी रखी। इस के बाद उन को आदम के सामने पेश किया आदम ने कहा ऐ रब ये लोग कौन हैं ? ख़ुदा ने कहा ये तेरी औलाद हैं। पस आदम ने उनमें एक ऐसे शख़्स को देखा जिसकी दो आँखों के बीच की रोशनी आदम को पसंद आई आदम ने कहा ऐ रब ये शख़्स कौन है ? ख़ुदा ने कहा दाऊद है। आदम ने कहा ऐ रब इस की उम्र को आपने क्या मुक़र्रर किया है। ख़ुदा ने कहा साठ साल आदम ने कहा ख़ुदावंद मेरी उम्र चालीस बरस उस की उम्र में ज़्यादा फ़रमाईए। आँहज़रत सलअम ने फ़रमाया कि जब आदम की उम्र ख़त्म होने को आई बजुज़ इस चालीस के (जो दाऊद को दीए थे। सुल्तान) मलक-उल-मौत आदम के पास हाज़िर हुआ पस आदम ने कहा कि क्या मेरी उम्र में से चालीस बरस बाक़ी नहीं हैं? मलक-उल-मौत ने कहा क्या तूने अपने बेटे दाऊद को नहीं बख़्शा था ? पस आदम के इन्कार से इस की ज़ुर्रियत इंकारी हुई और आदम की निस्यान (نسیان) से जो शजर-ए-मम्नूआ में से खाया उस की औलाद भी नासी (ناسی) हुई। आदम ने ख़ता की इस के लड़के भी ख़ाती हुए। इस हदीस को तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है।”

इस हदीस से साफ़ ज़ाहिर है कि आदम का अपने वाअदे को तर्क करना और आदम का इन्कार करना और गुनाह करना उन की ज़ुर्रियत में मुंतक़िल हो गए। आपका ये फ़रमाना कि "अदम निस्यान सिर्फ़ ख़ुदा का हिस्सा है" और निस्यान मुस्तल्ज़िम गुनाह नहीं। बिल्कुल ग़लत है क्योंकि क़ुरआन शरीफ़ में साफ़ लिखा हुआ है कि ख़ुदा भूलता भी है और निस्यान पर सज़ा भी देता है जो मुस्तल्ज़िम गुनाह है। आयत जे़ल को ग़ौर से मुलाहिज़ा करें :—

فَذُوقُوا بِمَا نَسِيتُمْ لِقَاء يَوْمِكُمْ هَذَا إِنَّا نَسِينَاكُمْ وَذُوقُوا عَذَابَ الْخُلْدِ بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ

(सुरह सज्दा आयत 4)

तर्जुमा: "सो अब चखो मज़ा जैसे भुला दिया था इस अपने दिन का मिलना हमने भुला दिया तुमको और चखो अज़ाब हमेशा का बदला अपने किए का।”

जो कुछ मौलवी सना-उल्लाह साहिब ने मेरे रसिला के मुताल्लिक़ लिखा था उस का जवाब-उल-जवाब यहां पर ख़त्म होता है। नाज़रीन से इल्तिमास है कि उनको बग़ौर पढ़ें। अब हम मौलवी साहब के इन एतराज़ात का जवाब लिखते हैं जो इल्ज़ामी तौर पर हम किए हैं।