फ़स्ल पंजुम
मौलवी सना-उल्लाह साहिब का आमालनामा
वो नहीं चाहता कि कोई इन्सान भी दोज़ख़ से बाहर रहे इस लिए फ़रमाया कि :—
لَاَمْلَــــَٔنَّ جَہَنَّمَ مِنَ الْجِنَّۃِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ
(2) ज़रा सोच तो लीजिए कि ये जुम्ला किस क़दर यास अंगेज़ और हौसला शिकन है। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि ख़ुदा को किस अम्र ने इस बात पर मज्बूर किया कि वो अपनी इस बात को पूरा करे कि मैं जिन्नों और इन्सानों को दोज़ख़ से भर दूंगा और फिर इस बात के पूरा करने के लिए इख़्तिलाफ़ पैदा करे और इस इख़्तिलाफ़ के बहाने से अफ़राद इन्सानी को जहन्नम में झोंक दे क्या ख़ुदा के "फ़ज़्ल" और "रहम" के यही मअनी हैं? जिसका राग आप अलापते रहते हैं। अगर आप बवजह पीराना-साली या वहाबी होने के सिर्फ व नहु भूल चुके हैं तो अमृतसर के किसी हनफ़ी मदरिसा में किसी अदना दर्जा के तालिब-इल्म से जाकर पूछ लीजिए कि लामलन (لاملئن) में लाम (لام) और नून (نون) के क्या मअनी हैं और नीज़ ये पूछिए कि "नास" (ناس) जमाअ है या वाहिद और फिर ये पूछ लीजिए कि नास (ناس) पर अलिफ़ लाम (الف لام) के क्या मअनी हैं और यह पूछ लिजिए कि अजमईन (اجمعین) किस लिए आया है तो वो तालिब-इल्म आपको बतला देगा कि लामलइन (لاملئن) में लाम (لام) ताकीद या नून (نون) ताकीद है। जिसके मअनी ये हैं कि "ज़रूर ब-सद ज़रूर में भर दूंगा।” और नास (ناس) के मुताल्लिक़ ये बतला देगा कि ये जमा है यानी तमाम अफ़राद इन्सानी और अलिफ़ लाम (الف لام) के मुताल्लिक़ ये बतला देगा कि अलिफ़ लाम (الف لام) इस्तिग़राक़ (استغراق) है जो तमाम अफ़राद इन्सानी पर हावी है जिसके मअनी। ये हैं कि "तमाम अफ़राद इन्सानी" अजमईन (اجمعین) की बाबत ये बतला देगा कि ये ताकीद माअनवी है यानी "सब के सब। ”
पस इस आयत का सही तर्जुमा ये है कि "मैं ज़रूर ब-सद ज़रूर सब के सब तमाम अफ़राद इन्सानी से दोज़ख़ को भर दूंगा। ” अब एक सवाल और आपसे करके इस हिस्से को ख़त्म करता हूँ वो ये कि आख़िर आप भी तो अफ़राद इन्सानी में शामिल हैं। आप किधर जाना चाहते हैं दोज़ख़ की तरफ़ या जन्नत की तरफ़ हमारी तो यही दुआ है कि आप भी हमारे साथ जन्नत में हों।
ज़र्रा ज़र्रा का हिसाब किताब
मैंने فَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ خَيْرًا يَّرَہٗ وَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّۃٍ شَرًّا يَّرَہٗ फ़मययअमल मिस्क़ाल ज़र्रतिन खैरय्यरह व मय्यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन शर्रयरह (मैं क्यों मसीही हो गया सफ़ा 25) की बिना पर ये दावा किया था कि इस किस्म की आयात को पढ़ कर जो बादी उल-नज़र में मर्ग़ूब और तसल्ली बख़्श मालूम होती हैं। मेरे दिल में ये सवाल पैदा हुआ कि क्या ये मुम्किन है कि हमसे नेकी ही नेकी सरज़द हो जाएगी और किसी किस्म की बदी से हम सरज़द ना हो? क्या इन्सान में ऐसी ताक़त है? (मैं क्यों मसीही हो गया सफ़ा 25,26) सिलसिला कलाम को जारी रखते हुए मैंने अपने रिसाला के पाँच सफ़्हों में मुसलसल अक़्ली और नक़्ली दलाईल से इस पर बह्स करके साबित कर दिया कि बजुज़ हज़रत ईसा के और कोई इन्सान अपने आपको ना तो गुनाहों से बचा सका है और ना बचा सकता है। चुनांचे मौलवी साहब ने हमारे इन तमाम दलाईल को तस्लीम करके अपनी ख़ामोशी और सुकूत से ये ज़ाहिर कर दिया कि दरहक़ीक़त इन्सान का बेगुनाह रहना एक अम्र मुहाल है मगर मौलवी साहिब ने ये ग़ज़ब किया कि जिस आयत की बिना पर मैंने ये दावा किया था आपने इस आयत को दर खुर अअतना ना समझा और सिर्फ हमारे दावा को दलाईल से अलैहदा करके इख़्तिसार के साथ यूं रक़म फ़रमाया कि :—
"मेरे दिल में ये सवाल पैदा हुआ कि ये मुम्किन है कि हमसे नेकी ही सरज़द होती जाये और किसी किस्म की बदी हमसे सरज़द ना हो ? क्या इन्सान में ऐसी मफ़ाक़त है" सफ़ा 26 (अहले हदीस 12 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 3 कालम 3)
अब आपका जवाब मुलाहिज़ा हो आप फ़रमाते हैं कि :—
"बस ये है मंशा ग़लती और मज़ल्लत अलअक़दाम जहां से पादरी साहिब को लग़्ज़िश हुई। आपने समझा कि क़ुरआन शरीफ़ में जो बार बार आमाल सालेहा की ताकीद आई है। इस से मुराद ये है कि इन्सान के आमालनामे में नेकी ही नेकी हो बदी का नामोनिशान ना हो। अगर हम क़ुरआन शरीफ़ ही से इस अक़्दह को हल कर दें तो ग़ालिबन हमारे भाई की ग़लती रफ़ा हो सकती है क़ुरआन मजीद के उतारने वाले आलिमुल-गै़ब को इल्म था कि आमाल सालेहा की ताकीद पर ये सवाल पैदा होगा। इस लिए उसने पहले ही से इस का जवाब क़ुरआन में दे रखा है जो ग़ालिबन पादरी साहिब की नज़र से ओझल रहा I लिहाज़ा वो ग़ौर से सुनें इर्शाद है:—
اَمَّا مَنْ ثَــقُلَتْ مَوَازِيْنُہٗ فَهُوَ فِيْ عِيْشَةٍ رَّاضِيَةٍ
जिस शख़्स के आमाल में अक्सरीयत अच्छी होगी वो नजात पा जाएगा।
इस इर्शाद ईलाही ने पादरी साहिब के अक़्दह को हल कर दिया। ला अलहम्द। (अहले-हदीस 12 अक्तूबर 1928 ई. सफ़ा 2, 3)
"आपने ये ग़लत समझा कि मैंने समझा कि क़ुरआन शरीफ़ में जो बार बार आमाल सालेहा की ताकीद आई है इस से ये मुराद है कि इन्सान के आमालनामा में नेकी ही नेकी हो बदी का नामोनिशान ना हो।” मैंने जो कुछ समझा आयत बाला से समझा जिसको आपने किसी मस्लिहत से नक़्ल नहीं किया। ये आयत इस क़दर वाज़ेह है कि जिसकी तौज़ीह की ज़रूरत ही नहीं। जब ज़र्रा ज़र्रा नेकी की जज़ा और ज़र्रा बदी की सज़ा मिलेगी तो ख़्वाह नख़्वाह इस का नतीजा यही निकल आता है कि जब तक इन्सान नेकी ही नेकी ना करे। इस वक़्त तक मुम्किन नहीं कि वो नजात हासिल कर सके। क्योंकि अगर उस के आमाल-नामा में ज़र्रा भर भी बदी हो तो अगर ख़ुदा अपने क़ौल में सच्चा है तो ज़रूर वो बदकार शख़्स इस ज़र्रा भर बदी की सज़ा भुगतेगा।” पस मैंने "समझा" नहीं बल्कि ये क़ुरआन शरीफ़ का ऐसा नातिक़ फ़तवा है। जिसके सामने बाक़ी फ़तवे बातिल हैं। पस मैंने नहीं "समझा" बल्कि ख़ुद क़ुरआन शरीफ़ ने समझाया। आपका मुंदरजा बाला आयत को पेश करना "इमामन सक़लत" (اَمَّا مَنْ ثَــقُلَتْ) आपकी क़ुरआन फ़हमी का बैन सबूत है।