फ़स्ल नह्म
मौलवी सना-उल्लाह साहिब की नेकी और बदी
हम गुज़शता औराक़ में आमाल सालेहा की तशरीह और अहमीय्यत बयान करके ये वाज़ेह कर चुके हैं कि मसीहीय्यत में आमाल सालेहा क्या हैसियत रखते हैं। अगर नाज़रीन को मौलवी साहब का वो क़ौल याद है कि :—
"बे-शक आमाल शरईयह इतनी हैसियत नहीं रखते कि दुनियावी नेअमा का शुक्र अदा होने के बाद नजात" उखरवी के लिए भी इल्लत हो सकें। हाँ मह्ज़ उसका फ़ज़्ल ही फ़ज़्ल है कि चंद लम्हों की इताअत को दाइमी राहत (नजात) का मूजिब बना दिया। ये तशरीह है हदीस मज़्कूर की......क्या वजह कि पहले तो आमाल के मूजिब नजात होने से इन्कार किया। पीछे आमाल की ताकीद फ़रमाई। इस की वजह वही है जो हम बता आए हैं कि आमाल अपनी ज़ाती हैसियत से हरगिज़ मूजिब नजात नहीं, मगर बेकार भी नहीं।”
(अहले-हदीस मौरख़ा 9 नवम्बर 1928 ई. सफ़ा 3)
तो ज़ाहिर है कि हम में और मौलवी साहिब में अब कोई उसूली इख़्तिलाफ़ बाक़ी नहीं रहा और मौलवी साहिब को इबारत बाला के लिखने के बाद ख़्याल आया। या किसी ने ख़्याल दिलाया कि आपने तो इस्लाम के असल उसूल पर पानी फेर दिया। जब मुसलमान आपके इस बयान को पढेंगे तो आपको क्या कहेंगे" तो मज्बूरन आपको इस ताम्मुल रक़ीक़ से काम लेना पड़ा कि हम आमाल शरईयह को बहुक्म ख़ुदा (یجعل جامل) मूजिब नजात मानते हैं।
मौलवी साहब चूँकि निरे अहले-हदीस हैं इन को उन पेचीदगीयों का जो फ़ल्सफ़ा के किसी ग़लत मसअला से पैदा हो जाती हैं इल्म नहीं है। अगर उनको इस गुमराह कुन मसअला के नतीजे का कुछ भी इल्म होता तो हरगिज़ इस किस्म का सक़तयाना ख़्याल ज़ाहिर ना फ़रमाते।
मौलवी साहब के इस क़ौल का मुफ़ाद ये है कि दुनिया में नेकी और बदी जिनको फ़ल्सफ़ा में हुस्न दक़ीह कहते हैं बज़ात-ए-ख़ुद कोई चीज़ नहीं बल्कि जिस चीज़ को ख़ुदा (जाइल) बद (बुरा) ठहराए ख़्वाह वो चीज़ बज़ात-ए-ख़ुद कितनी ही अच्छी क्यों ना हो वो बद यानी बुरी है। और जिस चीज़ को ख़ुदा (जाइल) नेक (अच्छा) ठहराए ख़्वाह वो चीज़ बज़ात-ए-ख़ुद कितनी ही बुरी क्यों ना हो वो नेक यानी अच्छी है। मसलन चोरी करना, झूट बोलना, फ़रेब देना, ज़ुल्म करना बज़ात-ए-ख़ुद बुरे नहीं हैं। चूँकि ख़ुदा ने उनको बुरा ठहराया है लिहाज़ा वो बुरे हैं इसी तरह सदाक़त, दियानत, अदालत बज़ात-ए-ख़ुद अच्छी नहीं हैं। चूँकि खुदा ने उनको अच्छी ठहराया है लिहाज़ा वो अच्छी हैं। जिसका नतीजा ये निकलेगा कि अगर ख़ुदा उस क़ज़ीया को मुनअकिस कर दे यानी क़त्ल ग़ारत, ज़ुल्म, कज़्ज़ाब को अच्छा ठहराए तो मौलवी साहिब शौक़ के साथ उन पर अमल करेंगे।
अगर आप दुनिया के किसी तबक़े में जाएं हत्ता कि आप दुनिया के दहरियों, मुल्हिदों और ला- मज़्हबों के तबक़ा में जाकर उन से दर्याफ़्त करें तो यही जवाब देंगे कि ज़ुल्म व झूट वग़ैरा ज़ालिक हर हालत में बुरे हैं। और अदल व सदाक़त हर हालत में अच्छे हैं। अगर नेकी व बदी का मेयार इल्हाम ही होता तो उन लोगों को जिनको इल्हाम का इल्म तक नहीं है। क्योंकर उस का इल्म होता कि ज़ुल्म वगैरह बुरे हैं और अदल वग़ैरह अच्छे हैं।
बख़ुदा मेरा इरादा था कि इस तबाहकुन और मुख़र्रिब अख़्लाक़ मसअला से जो नताइज पैदा हुए उन सबको बिलाकम व कासित सपुर्द क़लम कर दूँ। लेकिन क्या करूँ फिर भी मुझे इस्लाम का ख़्याल है। मैं नहीं चाहता कि मौलवी सना-उल्लाह साहिब की ग़लती से इस्लाम का वो अहले हदीसाना पहलू पेश करूँ जिनको देखकर लोग महूव-हैरत हो जाएं।
काश कि मौलवी साहब के ज़हन में ये बात आ जाए कि ख़ुदा का ये काम नहीं है कि वो अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा ठहराए। बल्कि ख़ुदा का काम ये है कि जो चीज़ अच्छी है उसको अच्छी और जो बुरी है उसको बुरी बतला कर हमें अच्छी चीज़ों के इख़्तियार करने और बुरी चीज़ों से बचने का हुक्म दे और हर एक पर बिलतर्तीब जज़ा व सज़ा मुरत्तब करे।
जाअल जाइल के मुताल्लिक़ मौलवी साहब ने एक मिसाल पेश की है जो आप के लिए तो मुफ़ीद नहीं अलबत्ता हमारे लिए मुफ़ीद है। इस पर भी ज़रा ग़ौर कीजिए जो ये है :—
"इसकी मिसाल बिल्कुल ये है कि आक़ा अपने ग़ुलाम को हुक्म देता है कि एक साल तक तुम एक रुपया माहवार मुझे दिया करो तो मैं तुम आज़ाद कर दूँगा। आज़ादी के मुक़ाबला में एक रुपया फ़ी नफ्सिही कुछ चीज़ नहीं लेकिन (यजअल जाइल) मालिक के कहने से यही रुपया मूजिब आज़ादी हो गया।”
मैं थोड़ी देर के लिए तनज़लन ये तस्लीम करता हूँ कि आज़ादी के मुक़ाबले में एक रुपया फ़ी नफ्सिही कुछ चीज़ नहीं लेकिन इस रहम मुजस्सम "आक़ा" से तो पूछो कि क्या उस के नज़्दीक भी फ़िल-हक़ीक़त एक रुपया फ़ी नफ्सिही कुछ चीज़ नहीं है। अगर उस के नज़्दीक भी "माहवार एक रुपया" यानी बारह रूपये सालाना कुछ हक़ीक़त नहीं रखते हैं तो इस बेचारे ग़ुलाम को एक साल तक तक्लीफ़ में डाल देने से क्या फ़ायदा है रुपया लिए बग़ैर उसको क्यों आज़ाद नहीं करता है ! बग़ैर रूपयों के आज़ाद ना करना ही इसकी काफ़ी दलील है कि अगरचे मौलवी साहब के नज़्दीक बारह रूपये कुछ चीज़ नहीं" लेकिन इस के "आक़ा" के नज़्दीक बारह रूपये उस के ग़ुलाम की आज़ादी से ज़्यादा बेशक़ीमत हैं।
अगर दरहक़ीक़त इन तमाम मुआमलात में जाअल जाइल को दख़ल है तो फिर किस मुँह से आप कफ़्फ़ारे पर एतराज़ करने बैठ गए। क्योंकि हम भी तो यही कहते हैं कि ख़ुदा ही ने मसीह के कफ़्फ़ारा को रुहानी आज़ादी का सबब ठहराया है। आपकी मिसाल में लफ़्ज़ "रुपया" की जगह पर अगर आप लफ़्ज़ "मसीह का कफ़्फ़ारा" रखते तो आपकी मिसाल "बिल्कुल" कफ़्फ़ारा की ताईद में होती। देखिए ख़ुदा ए बरतर व तवाना ने किस तरह आप ही के क़लम से कफ़्फ़ारे की तस्दीक़ कराई।
मैंने अपने रिसाले "मैं क्यों मसीही हो गया" में इन अहादीस के मुताल्लिक़ जिनमें आँहज़रत सलअम ने ये फ़रमाया था कि "मैं भी अपने आमाल सालेहा से नजात नहीं पा सकता मगर ख़ुदा के रहम से" ये लिखा था कि अगर ख़ुदा इसी तरह रहम क्या करे और सब को मह्ज़ अपने रहम से बख़्श दिया करे तो फिर अम्बिया का मबऊस हो जाना, कुतुब समाविया का नाज़िल होना ये सब अबस ठहरेंगे। मौलवी साहब ने इस फ़िक़रा पर जिस मसर्रत का इज़्हार किया है वो आपकी जे़ल की इबारत से अयाँ है :—
"नाज़रीन फ़िक़रा ज़ेर ख़त को मल्हूज़ रखें आगे चल कर हम इस से कुछ काम लेंगे।”
(हाशिया अहले हदीस मत्बूआ 1929 ई. सफ़ा 3 कालम 2)
आपने मेरी इबारत बाला से अपनी समझ के मुवाफ़िक़ ये नतीजा निकाला है कि गोया में भी इस सफ़सता का क़ाइल हूँ जिनके मौलवी साहब क़ाइल हैं। यानी ये कि शरीयत और अम्बिया इस लिए आए ताकि एक चीज़ को नेक ठहराएँ। ख़्वाह वो चीज़ फ़ी नफ्सिही कैसी बद क्यों ना हो। बात ये है कि आप बड़े सुख़न-शिनास हैं। इस लिए आपने इबारत बाला से ये मज़हका ख़ेज़ नतीजा निकाला जो एक निहायत कम इस्तअदाद उर्दू ख्वाह भी नहीं निकालेगा हालाँकि अगर आप मेरी इबारत को पूरे तौर पर नक़्ल करते तो आपकी इस अजज़नुमा ख़ुशी की हक़ीक़त सब पर ज़ाहिर हो जाती। चूँकि आपने इस से गुरेज़ किया लिहाज़ा मज्बूरन में पूरी इबारत हद्या नाज़रीन करता हूँ। सुन लीजिए :—
"अगर ख़ुदा रहीम है तो वो आदिल भी है। अगर ख़ुदा सिर्फ अपने रहम से माफ़ कर दे तो सिफ़त अदल मुअत्तल रहेगी और तअत्तुल से ख़ुदा की ज़ात में नुक़्स वारिद होगा। जो ख़ुदा की शान के शायां नहीं। पस रहम से नजात कामिल पाना मुहाल अक़्ल है और ख़ुदा ऐसा करता है तो ख़ुदा सिर्फ मुसलमानों का ख़ुदा तो है नहीं वो कुल इन्सान और माफीअलकुन का ख़ुदा है। लिहाज़ा उसकी रहमत कुल के लिए होना चाहिए। यानी वो मुशरिकों और बुतपरस्तों वग़ैरा पर भी रहम करना लाज़िम है। लेकिन ख़ुदा मुशरिकों और बुत परस्तों को माफ़ नहीं करता। और अम्बिया का मबऊस हो जाना कुतुब समावी का नाज़िल होना ये सब अबस ठहरेंगे। चूँकि ये अबस नहीं पस रहम से नजात की तवक़्क़ो रखना ग़लत है।”
(मैं क्यों मसीही हो गया सफ़ा 38)
अब ख़ुद नाज़रीन इन्साफ़ फ़रमाएं कि मैं क्या कहता हूँ और मौलवी साहब क्या सुनते हैं। जवाब से आजिज़ आ कर टालमटोल करना मौलवी साहब की आदत है।