बाब पंजुम
"और उन्होंने.......उसके कपड़े क़ुरआ डाल कर बांट लिए"
उन्होंने मसीह के कपड़े उतारे ! हमारे ख़ुदावंद येसु मसीह के इस ख़ौफ़नाक तजुर्बा का बयान तमाम इंजील नवीसों ने किया है। मरकुस जो ख़ुद बाग़ गतसमनी से बरहना भाग गया था इस का बयान करता है। मत्ती इस वाक़िये को मसीहाई ज़बूर की पेशीनगोई का तक्मिला तसव्वुर करता है ।
यूहन्ना भी उस ज़बूर की तरफ़ इशारा करता है जिसमें दीगर तमाम तहरीरों की निस्बत मसीह की मौत और उस के दुख उठाने का बिल्कुल सही और दुर्रुस्त बयान दर्ज है:—
"वो मेरे हाथ और पांव छेदते । मैं अपनी सब हड्डीयों को गिन सकता हूँ। वो मुझे ताकते और घूरते हैं।”
ये तजुर्बा मसीह के दीगर तजुर्बात की निस्बत उस को ज़्यादा तक्लीफ़दह मालूम हुआ होगा। ख़ुसूसन इसलिए कि वो पाक ज़ात था और एक शानदार और बुज़ुर्ग शख़्सियत का मालिक था। मुक़द्दस यूहन्ना फ़रमाता है कि:—
"उन्होंने उसके कपड़े उतारे"
वो अपनी माँ के पेट से बरहना बाहर आया और बरहना सलीब पर लटक रहा है!
पहले आदम ने अपने गुनाह के बाईस बाग-ए-अदन में जिस्मानी व अख़्लाक़ी बर्हेनगी का तजुर्बा हासिल किया। दूसरे आदम ने गुनाह आलूद जिस्म की सूरत इख़्तियार की और उस की वजह से हमारी बर्हेनगी की शर्मिंदगी का तजुर्बा किया।
कलाम मुजस्सम हुआ और लोगों ने उस का जलाल देखा। उस की रुस्वाई और उस के नंग का मुलाहिज़ा किया लेकिन ये फ़िल-हक़ीक़त उस का जलाल था । मसीह येसु के कपड़े उतारे गए। यह उस की ज़िल्लत और बेइज़्ज़ती की हद थी। उसे बरहना किया गया ताकि उस की रास्तबाज़ी के सबब हम सफ़ैद पोशाक से मुलब्बस हों और जिस वक़्त मौत हमें बरहना कर दे तो उस वक़्त हम अपनी बर्हेनगी के बाईस शर्मिंदा ना हूँ।
तमाम रूमी मुसन्निफ़ इस अम्र पर मुत्तफ़िक़ हैं कि सलीब पर लटकाते वक़्त मुजरिम के कपड़े उतार लिए जाते थे। हमें बताया जाता है कि अहले यहूद अपने मुजरिमों को एक लँगोट बाँधने की इजाज़त देते थे। इस हैबतनाक नज़ारे की तस्वीर उस ज़माना के मसुव्वारिन ने भी यूं ही खींची है। लेकिन इस दर्द अंगेज़ तस्वीर पर हमें इस आख़िरी और इंतिहाई बेइज़्ज़ती का इज़ाफ़ा करना चाहिए। अपने पर्दा हया व शर्म को उस बेदर्दी से चाक होते देखकर कुल शुहदाए किराम भी ख़ौफ़-ज़दा होते थे बल्कि बाअज़ तो दिम सलीब उसके ख़्याल ही से काँपते और घबराते थे। लेकिन मसीह ने उसे हमारी ख़ातिर गवारा किया।
अरमीनीयों के क़त्ल-ए-आम में मसीही ख़्वातीन को ये शर्मिंदगी भी बर्दाश्त करनी पड़ी जो मौत की तक्लीफ़ की निस्बत तल्ख़-तर थी। कोवनीटरी की गोडीवा हालाँकि इफ़्फ़त की चादर ओढ़े थी लेकिन तो भी उसने महसूस किया कि गोया दीवार के तमाम शिगाफ़ उस पर नज़र जमाए हुए हैं। इसी तरह मसीह ने भी दुख उठाया। हम जो ख़ुद अब उस तस्वीर में फीके रंगों का इज़ाफ़ा कर रहे हैं चाहिए कि हम बे-एअतिनाई से उसे नज़र-अंदाज ना करें।
गलगता में जब सलीब अपनी ले आया येसु
तब उन्होंने उस को ख़ुद मस्लूब कर के लटका दिया
उस के हाथों और पाओं में भी मेख़ें ठोकीं
कलवरी उसे बनादी उस के कीलें ठोंक कर
ख़ारदार एक ताज उन्होंने उस के सर पर रख दिया
ज़ख़्म थे उन के शदीद उन से लहू जारी हुआ
उस ज़माना के थे कैसे वहशी और ज़ालिम बशर
गोश्त-ए-इन्सानी की इन दिनों में कुछ क़ीमत नहीं थी
जब येसु आया था बर्मिंघम पर ऐसे हाल में
लोग उस के सामने से सब जा रहे थे गुज़र
गो कि लोगों ने उसे तक्लीफ़ मुतलक़ ना दी
लेकिन ऐसे तन्हा उसे मरने दिया
इस क़दर बेरहम वहशी थे गो तब के लोग
इसलिए ईज़ा उसे पहुंचाने से बाज़ ना आए
भागे वो बारिश में तन्हा भीगता उस को फ़क़त
अपने अपने रास्तों पर उस तरीक़ा से गए
फिर भी चिल्लाता रहा येसु उन को कर माफ़
क्योंकि वाक़िफ़ ही नहीं उस से कि क्या करते हैं वो
हो रही थी मूसलाधार एक तो बारिश उधर
दूसरे है सख़्ततर सर्दी का आलम उस तरफ़
हो रहे हैं कपड़े भी येसु के बिल्कुल तर-बतर
बारिश-ए-बाराँ से कोई भी ना थी उस की पनाह
लोगों के अंबोह के अंबोह उस के पास से
बे किए परवाह कुछ उस की यूंही जाते हैं गुज़र
बल्कि उसको छोड़ जाते हैं तन-ए-तन्हा ही वो
और येसु ऐसी हालत में लगा दीवार से
कलवरी के वास्ते रोता है चिल्लाता है
सलीबी दुख के दो पहलू हैं यानी जिस्मानी दर्द और ज़हनी तक्लीफ़ जिस्म व रूह हर दो की जानकनी बेरहमी से कोड़े लगाना। हाथ और पांव में मेख़ें ठोंकना । आतिश-ए-प्यास का भड़कना। ख़स्ता व ज़ख़्मी आज़ा का बार जिस्म को उठाना और मख़लिसी की तमन्ना ये तमाम जिस्मानी तकालीफ़ हैं।
अपनी क़ौम से रद्द किया जाना। गुनाहगारों में शुमार होना साथीयों से ठट्ठों में उड़ाया जाना बरहना किया जाना। हदफ़ लानत व मलामत बनना फ़ौक़उल-फ़ितरत ज़ुल्मत का तारी होना। ये सब रुहानी आज़ार हैं।
मसीह की निहायत दर्दनाक आवाज़ ने साफ़ ज़ाहिर कर दिया कि उस की रुहानी तक्लीफ़ दरअसल उस की तमाम मुसीबत की जड़ थी।
जब हम मसीह की मौत के इस पहलू पर नज़र ग़ाइर डालते हैं तो हमारी तवज्जा तीन ख़्यालात की जानिब मुल्तफ़ित होती है । सलीब पर उस के हया व हिजाब को बे-नक़ाब किया गया। दुनिया अब तक उसे बरहना करती और फिर क़ुरआ डाल कर उस की पोशाक बांट लेती है। हर मसीही को भी इसी तरह सलीब पर बरहना होना है।
एक निहायत ही दक़ीक़-रस मुसन्निफ़ का क़ौल है कि:—
"आप तक्लीफ़ उठाए बग़ैर मसीह से मुहब्बत कर नहीं सकते। ना ही रंज व अलम कि बर्दाश्त किए बग़ैर सलीब से आपका विसाल हो सकता है। ख़्वाह आप चाहें या ना चाहें विसाल सलीब की कोशिश में आपके ज़रूर कोई ना कोई ज़ख़्म आही जाएगा । और यक़ीनन ये मसीह के बे-हिजाब किए जाने पर ग़ौर व फ़िक्र करने का नतीजा है।
तजस्सुम के मआनी की गहराई का मुलाहिज़ा कलवरी पर ही होता है।
मुक़द्दस पौलुस के नज़दीक ये मसीह के रंज और उस की पस्ती की इंतिहाई मंज़िल थी। वो फ़रमाता है:—
और "इन्सानी शक्ल में ज़ाहिर हो कर अपने आपको पस्त कर दिया और यहां तक फ़रमांबर्दार रहा कि मौत बल्कि सलीबी मौत गवारा की।”
रोज़ अदालत में रास्त बाज़ों के सवाल का कि "ए मेरे ख़ुदा हमने तुझे कब नंगा देखा?" एक जवाब ये है। वो कुछ भी छिपा नहीं रखता। अय्यूब ने अपनी मुसीबत के वक़्त कहा "देख वो मुझे मार डालता है तो भी मुझे उसका भरोसा है।” और मसीह फ़रमाता है ख़्वाह वो मुझे
सलीब भी दे दें तो भी मैं उन्हें अपने हाथ और पांव और अपना ज़ख़्मी पहलू दिखाऊँगा।” मैं अपनी सब हड्डीयों को गिन सकता हूँ। वो मुझे ताकते और घूरते हैं।”
यहां पर शाह ज़ूलजलाल मौजूद है लेकिन अपनी शानो-शौकत के साथ नहीं बल्कि बर्हेनगी की हालत में ख़ुदा मुजस्सम हुआ और सिपाहीयों काहिनों, अवाम के हुजूम, मुहब्बत करने वाले शागिर्दों औरतों बल्कि अपनी माँ पर भी यकसाँ ज़ाहिर हुआ। लेकिन अपने जलाल और अपनी हशमत के साथ नहीं। फ़क़त वो जिसने उसे देखा हो वहां वही ये अल्फ़ाज़ कह सकता है कि जो इब्रानियों के ख़त में मर्क़ूम हैं:—
"इसलिए कि वो ख़ुदा के बेटे को.......सलीब देकर अलानिया ज़लील करते हैं "
ये कोई अजीब बात नहीं कि ऐसे ख़ौफ़नाक आलम के वक़्त पर्दा बीच में से फट गया ! मसीह ने अपनी जान आजिज़ी और जानकनी के वक़्त ना सिर्फ सलीबी मौत पर गवारा की बल्कि उस ख़ुशी के सबब जो उस की आँखों के सामने थी उस ने उस ज़िल्लत व रुसवाई को हीच समझा।
मुक़द्दस लूक़ा की इंजील के मुताबिक़ उस मौक़ा पर हमारे ख़ुदावंद ने फ़रमाया:—
"ऐ बाप इनको माफ़ कर क्योंकि ये जानते नहीं कि किया करते हैं"
उसके सर के ऊपर पिलातुस ने ये मज़हकाख़ेज़ नविश्ता लगाया यहूदीयों का बादशाह बादशाह बग़ैर अर्ग़वानी पोशाक और उसका तख़्त क्या ? सलीब ! सलीब के नीचे सिपाही उस के कपड़ों के हिस्से करते और उस की पोशाक पर क़ुरआ डालते हैं। इन सब बातों के बाद किस तरह मुम्किन है कि कोई मसीह से शर्माए या दुबारा सलीब देकर अलानिया उसे ज़लील करे। वो नज़ारा आने वाले हालात का मज़हर था। क्योंकि इन उन्नीस सदीयों में बराबर मसीह को अज़सर-ए-नौ सलीब पर खींचा जाता और उसे अलानिया ज़लील किया जाता है।
मसीह का लिबास क्या है? ऐ ख़ुदावंद मेरे ख़ुदा तू निहायत बुज़ुर्ग है। तू हशमत और जलाल का लिबास पहने है। वो नूर को पोशाक की मानिंद पहनता है।” कायनात ख़ुदा की हशमत का लिबास है। आस्मान एक पर्दा है जो उस के जलाल पर छाया हुआ है। अबर उस के रथ हैं। चूँकि मसीह ख़ुदा से ख़ुदा है इसलिए मुक़द्दस यूहन्ना ये कहने से नहीं झिझकता "जो कुछ पैदा हुआ उस में से कोई चीज़ भी उस के बग़ैर पैदा नहीं हुई ।
क़ुदरत का तमाम हुस्न व जमाल उसका ख़ल्क़ किया हुआ है। वो उस का हशमत व जलाल का बिन सिला लिबास है । हिक्मत व साइंस फ़क़त उस ख़ूबसूरती और तर्तीब को दर्याफ़्त या उस की नक़ल ही कर सकती है जो अज़ल से क़ुदरत में पिनहां है क्योंकि मसीह के मुबारक हाथों ने उन्हें वहां रखा है। शफ़क़ "उस मुक़द्दस हस्ती का रंगीन लिबास है जो फ़क़त एक घंटा हुआ क़त्ल किया गया।”
तमाम फ़ुनून-ए-लतीफ़ मसलन मुसव्विरी, संग तराशी, मौसीक़ी और फ़ने इमारत वग़ैरा सबकी लताफ़त और नफ़ासत का सबब मसीह की ज़िंदगी की मुबारक तासीर और उस की मौत ही है।
कई बार मुसव्विरों और माहिरीन मौसीक़ी ने अपने फ़ायदे और अपनी तलक़ीन की ख़ातिर उस की पोशाक उतार ली और फिर उसे बरहना और ज़लील करके लटका रहने दिया। डार्विन अपने नज़रिया दरबाब "माहीयत अजनास" में इन्सान की माहीयत और क़ुदरत में उस का दर्जा दिखाने की कोशिश करता है लेकिन वो इब्ने आदम को बिल्कुल नज़र-अंदाज कर देता है।
मसीह की माहीयत क्या थी ? आलमे मौजूदात के पार एक ऐसा आलिम और भी है जो साईंस के फ़हम व इदराक से बाला-ए-तर है जब हम मख़्लूक़ को उस के ख़ालिक़ से जुदा कर देते हैं और मख़्लूक़ के तमाम क़वानीन और क़वाइद को ख़ालिक़ की हस्ती के बग़ैर समझना चाहते हैं तो क्या ऐसा करने से हमारा मुबल्लिग़-ए-इल्म बढ़ जाता है या कम हो जाता है। शायद लोगों ने यरूशलेम में मसीह को देखकर ये कहा हो कि देखो वो नासरत का रहने वाला जाता है जिसकी पोशाक बिन सिली है। लेकिन क्या ऐसे लोगों की रसाई उसके दिल तक हुई ?
महिज़ साईंस में अख़्लाक़ी ख़ूबीयों को कोई क़दरो मर्तबा हासिल नहीं जिसमें टी. एडमीज़ कहता है कि "अगर हम साईंस के मुरव्वजा तसव्वुरात को कामिल तौर से क़बूल कर लें तो हम इन्सानी ज़िंदगी की तमाम ख़ूबीयों को ज़ाए कर देते हैं ।
अन्वाअ व अक़्साम के हुनर मुज़िर असर को ज़ाहिर कर रहे हैं। मसलन आजकल के क़िस्सा कहानीयों और अफ़्सानों ही को ले लो । अगर इन्सानी चल-चलन कुछ हक़ीक़त ही नहीं रखता और शख़्सियत फ़क़त एक फ़र्ज़ी शैय है और आज़ादी आमाल फ़क़त एक ख्व़ाब है और हम महिज़ दिमाग़ की तब्दीलीयों का एक सिलसिला हैं और बस इतनी ही वक़्त-ओ-मंज़िलत रखते हैं जितनी एक बेचारे जुगनू को लकड़ी के ख़ुश्क कुंदे पर हासिल हो तो फिर कोई बताए कि इन के मुताल्लिक़ लिखने लिखाने से किया फ़ायदा ?
फ़लसफ़ा ने भी मसीह को बरहना कर रखा है और फ़लसफ़ादां अक्लमंदी से कहीं या बे-अक़्ली से कुछ ऐसे मसाइल पर बेहस करते हैं जिनका जवाब देने के लिए मसीह ना फ़क़त आप आया था बल्कि जिनका जवाब वो बज़ात-ए-ख़ुद है। लेकिन बादअज़ां ये लोग अपने बेहस व मुबाहिसा से उसे ख़ारिज कर देते हैं। हाल ही में एक नई किताब "फ़लसफ़ा जदीद से मुताल्लिक़ मसाइल" शाया हो कर अमरीका के कॉलिजों में उमूमन इस्तिमाल हो रही है । उस ज़खीम किताब के 575 सफहों में एक जगह भी मसीह की जानिब कोई इशारा नहीं पाया जाता। हालाँकि वो फ़लसफ़ा के बुनियादी सवालात का जवाब देने आया था। मसलन हम कहाँ से आए हैं ? और हम यहां क्यों मौजूद हैं ? हमारी सही फ़ित्रत क्या है ? हमारा अंजाम क्या है ? ज़िंदगी क्या है ? मौत क्या है ? रंज व अलम का राज़ क्या है और इन्सानियत की उम्मीद क्या है ?
क्या स्पिनोज़ा (Spinoza), हीगल (Hegel), शोपनहोर (Schopenhauer), काण्ट (Kant), हक्सले (Huxley), स्पनसर (Spencer), बर्गसन (Bergson) और इसी क़िस्म के दीगर फ़लसफ़ी मसीह की पोशाक पर क़ुरआ नहीं डाल रहे?
जदीद इल्मे अख़्लाक़ मसीह से पहाड़ी वाअज़ तो ले लेता है। लेकिन कलवरी पर चढ़ने से उसे साफ़ इन्कार है। वो जो बाग़ गतसमनी में कभी दाख़िल ही नहीं हुए और मसीह की जानकनी से वाक़िफ़ नहीं वो आलमगीर इखुवत और ख़ुदा की अब्बूवीयत के मुताल्लिक़ चर्ब ज़बानी तो बहुत दिखाते हैं । लेकिन वो उसकी असल क़द्रो-क़ीमत से वाक़िफ़ नहीं।
जदीद मसीही इलाहिय्यात, जदीद हिन्दूधर्म, जदीद दीने इस्लाम और जदीद यहूदियत सब के सब मसीह के अख़्लाक़ को तो लेना चाहते हैं । लेकिन उस की उलूहियत का इन्कार करते हैं जो कुछ सच्चाई है। ख़ूबसूरती और शराफ़त इन जदीद मज़ाहिब और फ़लसफ़ों में मौजूद है वो ऐसी पोशाक है जो मुस्तआर ली हुई है। "जब सिपाही येसु को सलीब दे चुके तो उसके कपड़े उतार कर चार हिस्से किए, हर सिपाही के लिए एक हिस्सा ।”
अरबाब-ए-मईशत एक मुआशरी इंजील की मुनादी करते हैं। लेकिन ये भूल जाते हैं कि मुआशरी इंजील बैत-लहम में पैदा हुई थी। और इन्सानियत के हुक़ूक़ पर गलगता में मसीह के ख़ून से मुहर लगाई गई। सलीब जो पहले ज़िल्लत व रुसवाई का निशान थी अब मसीह के ख़ून के बाईस रहम, सुलह व सलामती और मुहब्बत, दिलेरी ,शहादत व उबुदियत का निशान बन गई। पस ये बिल्कुल नामुम्किन है कि हम मुआशरी ख़िदमत का ज़िक्र करें और मसीह को नज़र-अंदाज कर दें।
जब कभी हम सलीब अह्मर के शिफ़ा ख़ानों और ख़ैरात ख़ानों में जाते हैं वहां मसीही रूह तो मौजूद होती है। लेकिन मसीह और उस के पैग़ाम का कोई निशान नहीं पाते । ये देखकर हम फ़ौरन मर्यम के हम नवा हो कर पुकार उठते हैं "मेरे ख़ुदावंद को उठा ले गए और मालूम नहीं उसे कहाँ रखा।” निशान तो बिलाशक मौजूद है लेकिन मसीह को नज़र-अंदाज कर दिया जाता है । उस के लिए अंदर कोई जगह नहीं। हम ईद विलादत की मुबारकबादियां भेजने का एहतिमाम तो बड़े वसीअ पैमाना पर किया करते हैं। लेकिन इन रोक़ओं पर जो उस की विलादत की ख़बर देते हैं उस की आमद का कोई पैग़ाम मौजूद नहीं होता। पोशाक तो मौजूद होती है लेकिन ख़ुद मसीह ग़ायब होता है। जब कि हनूज़ मसीह सलीब पर बरहना और तन्हा लटका होता है तो लोग उस की पोशाक पर क़ुरआ डालते हैं। और "जब उस का ठट्ठा उड़ा चुके तो उस की पोशाक उस पर से उतार ली" (मत्ती 27:31)
पस ये कोई ताज्जुब की बात नहीं कि आबाए कलीसया-ए-यूनान ने मसीह के दुख उठाने की नमाज़ की तर्तीब में हमारे नजातदिहंदा के तमाम मसाइब को जुदागाना शुमार करने और उन के ज़रीये से रहम की इल्तिजा करने के बाद ये इज़ाफ़ा किया है "तू अपनी नामालूम तकलीफों और मुसीबतों की ख़ातिर जो तूने सलीब पर उठाई और जिनका हमें साफ़ व सरीहयह इल्म नहीं हम पर रहम कर और हमें बचा।”
हमें भी इसी दुआ की ज़रूरत है। मसीही भी मसीह की मानिंद सलीब पर बरहना किया जाता है। शागिर्द अपने उस्ताद से बड़ा नहीं होता। हमारी अस्लीयत हमारी सलीब पर ही ज़ाहिर होती है। मुसीबत के बर्दाश्त करने से ही तजुर्बा हासिल होता है। मौत के उस होलनाक पुल पर से बरहना शख़्सियत के सिवा और किसी चीज़ का गुज़र नामुम्किन है । कार्लाइल इन्सानियत का नक़्शा खींच कर दिखाता है जब बनी-नौ इन्सान को बरहना किया जाता है और उस की पोशाक की ज़ीनत उन से जुदा कर ली जाती है तो तमाम इन्सान एक दूसरे के हम-शक्ल होते हैं। यानी जब मर्तबा व मनसब-ओ-मंज़िलत की बुजु़र्गी और हशमत इन्सान से दूर हो जाती है तो उन में बाहम कोई फ़र्क़ बाक़ी नहीं रहता। इन्सान की असली तबीयत व माहीयत का इन्किशाफ़ फ़क़त रंज वालम के ज़रीये से होता है । आग में ताए जाने और सलीब पर खींचे जाने से ही इन्सान की हक़ीक़त ज़ाहिर होती है। येसु मसीह, गेस्टेस (Gestas), और डसीमस (Desmas) तीनों सलीब पर लटक रहे हैं। एक गुनाह में मरा, एक गुनाह के एतबार से मुर्दा है और तीसरे के ज़रीये से गुनाह की मौत वाक़े हुई । एक काफ़िर है, एक ईमानदार है और तीसरा नजातदिहंदा है। एक ने मरकर अपनी ज़िंदगी ज़ाए की दूसरे ने ज़िंदगी हासिल की। तीसरे ने अपनी ज़िन्दगी को फ़िद्ये में दे दिया।
सलीब पर हम ख़ुदा और उसकी मख़्लूक़ को उनकी हक़ीक़ी सूरत में देखते हैं। मौत हमारी रूह के सिवा और सब कुछ हमसे जुदा कर डालती है। हमारी ज़ात पर पर्दा डालने वाली तमाम अश्या हमसे दूर हो जाती हैं। जब हम ख़ुदा के हुज़ूर अदालत में हाज़िर होंगे। तब हम बर्हेनगी की हालत में होंगे। अय्यूब कहता है कि "अपनी माँ के पेट से मैं नंगा बाहर निकल आया और फिर नंगा वहां जाऊंगा।” जब हम मौत के दरिया से उबूर करते हैं तो जे़ल की आयत की तस्दीक़ होती है। और उस से मख़्लूक़ात की कोई चीज़ छिपी नहीं बल्कि जिससे हमको काम है। उस की नज़रों में सब चीज़ें खुली और बेपर्दा हैं।”
लिहाज़ा मसीह को सलीब पर लटके हुए देख कर हम ये आरज़ू रखते हैं कि हम भी "अपने आस्मानी घर से मुलब्बस हो जाएं ताकि मुलब्बस होने के बाईस नंगे ना पाए जाएं।" मुबारक वो है जो जागता है और अपनी पोशाक की हिफ़ाज़त करता है ताकि नंगा ना फिरे। लोग उसकी बर्हेनगी ना देखें "मुकाशफ़ात की किताब की सात मुबारकबादियों में से इस मुबारकबादी की तरफ़ बहुत कम तवज्जा दी जाती है।
आस्मान में "पाना" मुसद्दिर के लिए कोई जगह नहीं क्योंकि वहां "बनना" मुसद्दिर उस की जगह ले लेता है। हम वहां पर कुछ पाएँगे नहीं बल्कि ख़ुद एक ग़ैर-फ़ानी मीरास बिन जाऐंगे। ये कौन हैं जो सफ़ैद जामे पहने खड़े हैं? ये अपनी रास्तबाज़ी में मुलब्बस नहीं हैं और उन सफ़ैद लिबास वालों की अंबोह कसीर के ऐन दरमियान वो खड़ा है। जो सलीब पर बरहना किया गया था। लेकिन "अब पांव तक का जामा पहने और सोने का सीना बंद सीने पर बाँधे हुए था।”
जी टी वाट्स (G.T. Watts) ने जो एक मशहूर मुसव्विर गुज़रा है । फ्रेडरिक शील्डज़ (Frederick Shields) से दर्याफ़्त किया कि:—
"फ़ेथ" यानी ईमान की पोशाक के लिए कौन से रंग मुनासिब हैं। उस ने जवाब दिया "ईमान इन्सान के लिए जो हिस्सी अश्या से महसूर है आस्मानी चीज़ों का यक़ीन है। इसलिए नीलगूं आस्मान का रंग उस के लिए मौज़ूं है यानी उसके बाज़ू और उस के चोग़ा के लिए। लेकिन उस का बाक़ी लिबास बेदाग़ और सफ़ैद होना चाहिए और या इसलिए कि वो जो आमाल हसना के ज़रीये से रास्तबाज़ी को हासिल करना चाहते हैं। नाकामयाब होते हैं। क्योंकि ये "फ़ेथ" यानी ईमान का इनाम है "बादशाह के सफ़ैद लिबास से मुलब्बस हो कर हम आख़िर-ए-कार मुंदरजा ज़ैल अल्फ़ाज़ के रुहानी और ग़ैबी माअनी को समझेंगे यानी "उन्होंने उस के कपड़े आपस में बांट लिए
सलीब से मुताल्लिक़ जो ज़बूर है वो "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ा है" से शुरू होता है और बाअज़ तर्जुमों के मुताबिक़ "पूरा हुआ" से ख़त्म होता है। हम ये कह सकते हैं कि रंज व अलम की बईद अज़ क़यास गहिराईयों के इज़्हार के एतबार से इस ज़बूर से बढ़कर और कोई ज़बूर नहीं ये हमारे ख़ुदावंद की जानकनी और हालत-ए-नज़ा की दर्दनाक तस्वीर है। उसके आख़िरी कलिमात का बयान उसके आख़िरी आँसूओं का अश्कदान और उसकी ख़ुशी के इख़्तताम की यादगार है। शायद दाऊद और उसकी मुसीबत भी इस में किसी क़दर पोशीदा हों । लेकिन जिस तरह सितारे आफ़्ताब की रोशनी में मादूम हो जाते हैं। इसी तरह जो उस में येसु को देख लेता है दाऊद उसके लिए ग़ायब हो जाता है बल्कि दाऊद की जानिब उसका ख़्याल तक भी नहीं जाता। यहां हमारे सामने सलीब के जलाल और उस की तारीकी हर दो के बयानात मौजूद हैं। यानी मसीह की मुसीबत और उसका जलाल जो उस की मुसीबत का नतीजा है।
ए काश हमें फ़ज़्ल इनायत हो कि हम उस अज़ीमुश्शान नज़ारा को देख सकें ! चाहे कि हम मूसा की मानिंद अपनी जूतीयां उतार कर कमाल आजिज़ी और ख़ाकसारी से उस मज्मुर का मुताला करें क्योंकि हमारी कुतुब-ए-मुक़द्दसा में सबसे पाकतरीन मुक़ाम यही है (चार्ल्स. ऐच.सरजन)