बाब हशतुम

"उन्होंने . . . . जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी"

हालाँकि मुक़द्दस पौलुस ने ये बात महसूस कर ली थी कि मसीह मस्लूब का पैग़ाम हलाक होने वालों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है (1 कुरन्थियो 1:17) यहूदीयों के नज़दीक ठोकर और ग़ैर क़ौमों के नज़दीक बेवक़ूफ़ी है। (1 कुरन्थियो 1:23) लेकिन तो भी उसने ये मुसम्मम इरादा कर लिया कि मसीह मस्लूब के सिवा और कोई पैग़ाम ना दे। गो इसके बाईस उसे बहुत कमज़वी ख़ौफ़ और तज़बज़ब की हालत में से गुज़रना पड़ा। (1 कुरन्थियो 2:3) सलीब का पैग़ाम एक राज़े अज़ीम है। हालाँकि पौलुस ने ख़ुदा की हिक्मत और उस की क़ुदरत को ज़ाहिर किया लेकिन ये फ़क़त रूह के ज़रीये से हुआ जो ख़ुदा की तह की बातें भी दर्याफ़्त कर लेता है (1 कुरन्थियो 4: 10) इसी ख़्याल के ज़िमन में पौलुस ने इस जहान के सरदारोँ की निस्बत जिन्होंने ख़ुदा की हिक्मत के भेद को ना समझा। निहायत बेबाकी से अपनी राय का इज़्हार किया है। यानी

"अगर समझते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते" (1 कुरन्थियो 2:8)

एफ़सस की कलीसिया के बुज़ुर्गों को ख़िताब करते हुए मुक़द्दस पौलुस उनसे भी बढ़कर दिलेराना और दिलकश अल्फ़ाज़ इस्तिमाल करता है "पस अपनी और उस सारे गिला की ख़बरदारी करो। जिसका रूहुल-क़ुद्दुस ने तुम्हें निगहबान ठहराया ताकि ख़ुदा की कलीसिया की गल्लाबानी करो जिसे उसने अपने ख़ास ख़ून से मौल लिया" (आमाल 20:28) हम ऐसे दिलेराना इशारात यानी जलाल के ख़ुदावंद का सलीब दिया जाना और ख़ुदा का ख़ून वग़ैरा को सुनकर ज़रा झिझकते हैं। लेकिन जब हम इन अल्फ़ाज़ की सख़्ती को किसी क़दर दूर करने की कोशिश करते हैं तो हम देखते हैं कि यूनानी ज़बान की इस इबारत का बजुज़ उसके और कोई मतलब नहीं।

इस में कुछ शक नहीं कि अमरीका के नए तर्जुमा में (आमाल 20:28) बजाय ख़ुदा के लफ़्ज़ ख़ुदावंद आया है। जो बिल्कुल ग़ैर-ज़रूरी है । एक्सपोज़ीटरज़ बाइबल (Expositor’s Bible) में स्टोक्स कहता है "बाअज़ लोगों ने ख़ुदा के इव्ज़ उसको ख़ुदावंद बाअज़ ने उसके मसीह का लफ़्ज़ पढ़ा है। लेकिन नज़र-ए-सानी शूदा तर्जुमा में वीसटकट हार्ट (औरनील) के तराजिम को सही तस्लीम करते हुए महिज़ नक़्क़ादाना वजूह के पेश-ए-नज़र उस की ज़ोरदार सूरत को क़ायम रखा गया है।

अगनेशीएस (Ignatius) ने मुक़द्दस पौलुस के ख़त लिखे जाने के पच्चास साल बाद अहले इफ्सुस को यूं लिखा "ईमानदार ख़ुदा के ख़ून के बाईस एक ज़िंदा आग की मानिंद भड़क उठते हैं।" इसके सौ साल बाद तरतोलियान भी यही अल्फ़ाज़ यानी "ख़ुदा का ख़ून" इस्तिमाल करता है। दूसरे मुक़ाम में भी यूनानी मतन यक़ीनन सही है और यह अल्फ़ाज़ मुक़द्दस पौलुस ने इस वाक़ये के सत्ताईस साल बाद लिखे यानी अनाजील के राइज होने से भी पेशतर "अगर वो जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।”

"ये जलाल का बादशाह कौन है ? लश्करों का ख़ुदावंद ही जलाल का बादशाह है" (ज़बूर 24:10)

अहद-ए-अतीक़ और अहद-ए-जदीद दोनो में जलाल के ख़ुदावंद से मुराद वही है जिसकी सिफ़ात में जलाल बादशाह है (ज़बूर 29:1+आमाल 7:2+इफ्सियों 1:17 और याक़ूब 2:1) यानी वो ख़ुदावंद जो अपने ज़ाती व तबई हक़ के मुताबिक़ जलाल का मालिक है ये ख़्याल इलाहिय्यत की रु से बड़ी एहमीयत रखता है क्योंकि ये हमारे ख़ुदावंद की उलूहियत पर इशारा करता है। इसी क़िस्म के दीगर मुक़ामात मसलन (1 कुरन्थियो 11:20 व 1 कुरन्थियो 11:27) जहां "ख़ुदावंद की मौत" और "ख़ुदा का ख़ून और उसका बदन" मज़कूर हैं एहमीयत तो वैसी ही रखते हैं । लेकिन उनके अल्फ़ाज़ इस क़दर मुहीब नहीं। अपनी ज़मीनी ज़िंदगी के अय्याम में भी हमारा नजातदिहंदा पौलुस रसूल के नज़दीक वही ख़ुदावंद था जो अपने ज़ाती और तिब्बी हक़ के मुताबिक़ कामिल जलाल का मालिक है जैसे यूहन्ना के नज़दीक वैसे ही पौलुस के नज़दीक भी कलाम जो मुजस्सम हुआ "इब्तिदा में ख़ुदा के साथ और कलाम ख़ुदा था।"

बिला-रैब एक ईलाही हस्ती एक क़ादिर-ए-मुतलक़ मुनज्जी का सलीब पर कीलों से जकड़ा जाना एक राज़ है जिससे बढ़कर ज़मीन व आस्मान पर और कोई राज़ नहीं। लेकिन इबारत माफ़ौक़ से यही मआनी निकलते हैं। सलीब पर ही हम मसीह में ख़ुदा की मुहब्बत व शफ़क़त को मुजस्सम सूरत में देखते हैं । उस मुक़ाम पर पहुंच कर और आख़िरी तदबीर को पूरा होते देखकर हम सूबादार की मानिंद उस की उलूहियत के क़ाइल हो जाते हैं । ये वो कार-ए-अज़ीम है जो फ़क़त ख़ुदा ही की शान के शायां है लेकिन मसीह ने उसे सलीब पर अंजाम दिया। और हर एक रूह जो उस के ज़रीये से जीत ली जाती है वो मसीह में हो कर ख़ुदा के लिए जीती जाती है।

मसीह अपनी मौत और ज़िंदा होने के ज़रीये से पौलुस पर आलम-ए-मौजूदात का ऐन मर्कज़ साबित होता है वो तमाम मख़्लूक़ात का मब्दा उनके बाहमी यगानगत व रफ़ाक़त का असल उसूल है। उनका अंजाम और उनके तमाम इसरार काहिल है (कुलुस्सियों 1:13 ता 18) इस मुक़ाम को पढ़ कर कोई शख़्स इस अम्र से इन्कार नहीं कर सकता कि मसीह ख़ुदा के जलाल में बराबर का हिस्सादार है।

इसी मुक़ाम के मुताल्लिक़ जहां ख़ुदा के बेटे की उलूहियत पर इशारा है कि जिसकी मुहब्बत में हमारी नजात है। जान कारडीलईर रोमन कैथोलिक सूफ़ी यूं गोया है "अगर सलीब की कुछ हक़ीक़त है तो ये कि वो दुनिया के वजूद की बुनियाद है वो आलम-ए-मौजूदात में एक हयूला से लेकर दूसरे हयूला तक जाती है और दुनिया की हदूद को बाहम मिलाती है और उन्हें अपनी ज़ख़्मी हाथ दिखाती है ज़िंदगी के शोबा जात में तमाम तरक़्क़ी मुहब्बत और रंज-वालम की उस बाहमी टक्कर से पैदा होती है जो उस की असलीयत का राज़ है।

मसीह की पुर-इसरार सऊबत हमारी मुसर्रत व ख़ुशी की बीना है। ये बात निहायत हैरत-अंगेज़ मालूम होती है कि किस तरह कोई माहिर इल्म-उल-हयात मसीही मज़्हब के बजाय किसी दूसरे मज़्हब का पैरौ हो। जिस हाल कि आलम-ए-मौजूदात के हर एक तबक़ा में मसीहीयत का ज़बरदस्त और गहिरा निशान यानी सलीब मौजूद पाता है और वो हर जगह देखता है कि दुख जद्द-ओ-जहद और क़ुर्बानी का उसूल नई पैदाइश के यौमिया अमल में भी वैसे ही कारफ़रमा है जैसे कि जिन्स के बतदरीज कमाल को पहुंचने के लिए उनका होना शर्त है।

बुलंदीयों और पस्तियों में, अंदर, बाहर जिधर नज़र दौड़ाओ हर जगह सलीब मौजूद है। हम मसीह की मौत में फ़क़त ख़ुदा की बेहद मुहब्बत ही को नहीं देखते बल्कि उसके बेहद रंज-वालम और उस की रहमत का भी मुलाहिज़ा करते हैं। एक सौ तीसरे ज़बूर में ये अल्फ़ाज़ मर्क़ूम हैं:—

"जिस तरह बाप बेटों पर तरस करता है ।" और ऐसी मुक़ाम में जे़ल के अल्फ़ाज़ भी दर्ज हैं "पूरब पच्छम से जितना दूर है। उतनी दूर तक उसने हमारी ख़ताओं को हमसे दूर किया।"

सलीब पर ग़म से और मुहब्बत बाहम मिलकर बहते हैं यानी ख़ुदा का रंज-वालम और उसकी की मुहब्बत।

मसीह की उलूहियत की तालीम की जड़ में कफ़्फ़ारा की तमाम मसीही तालीम मौजूद है । अव़्वल-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे एतिक़ाद ही से आख़िर-उल-ज़िक्र के मुताल्लिक़ हमारे ईमान का अंदाज़ा लगाया जाता है । महिज़ इन्सान दूसरे इन्सान के गुनाह की सज़ा नहीं उठा सकता । मसीह की शख़्सियत की बुजु़र्गी व शान की अज़ीम हक़ीक़त के मुक़ाबले में उसके फ़िद्या कफ़्फ़ारा होने के मुताल्लिक़ तमाम एतराज़ात यक क़लम व माद्दुम हो जाते हैं।

डाक्टर ग्रेशिम मीचन रक़म तराज़ हैं कि "ये बात बिल्कुल सही है कि मौजूदा उलमाए तिब्बयात के तसव्वुर का मसीह हरगिज़ दूसरों के गुनाहों की सज़ा उठाने के काबिल नहीं हो सकता। लेकिन इसमें और जलाल के ख़ुदावंद में आस्मान व ज़मीन का फ़र्क़ ही अगर मौजूदा मुख़ालिफ़त के मुताबिक़ क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी का ख़्याल बिल्कुल फ़िज़ूल है तो मसीही तजुर्बा के क्या मअनी जो उस पर मबनी है ? मौजूदा आज़ाद ख़्याल कलीसिया के नज़दीक तजुर्बा की बहुत क़दर-ओ-मंज़िलत है।

फिर वो हक़ीक़ी मसीही तजुर्बा जो फ़क़त उस ईमान का नतीजा है। जो कलवरी के पास मिलता है कहाँ से मयस्सर होगा? वो इत्मीनान फ़क़त उस वक़्त हासिल होता है जब इन्सान ये महसूस कर लेता है कि ख़ुदा से मेल पैदा करने में उसकी तमाम कश्मकश और नजात हासिल करने से पेशतर शरीयत के अहकाम की तामील करने में उस की वसई व कोशिश बिल्कुल बेकार व बेसूद ठहरती है और यह जान लेता है कि ख़ुदावंद मसीह ने सलीब पर उस के इव्ज़ जान देकर उस दस्तावेज़ के नक़्श को जो उस के बरख़िलाफ़ सब्त हो चुकी थी मिटा दिया। कौन उस तसल्ली और ख़ुशी के उमुक़ का अंदाज़ा लगा सकता है जो उस मुबारक इल्म से हासिल होती है ! क्या कफ़्फ़ारा फ़क़त एक नज़रिया ही नज़रिया है या इन्सान के तसव्वुरात की फ़रेबख़ुर्दगी ? या क्या ये वाक़ई एक ईलाही सदाक़त है?"

जब पौलुस रसूल मसीह के सलीबी दुख का बयान इस तौर पर करता है जिसका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं तो वो ऐसे बात करता है कि गोया वो आस्मानी हक़ीक़तों का बयान कर रहा है । और "ख़ुदा की तह की बातें" कहता है। (1 कुरन्थियो 2:10) ये इसरार इस क़दर अमीक़ हैं कि इन्सानी फ़लसफ़ा और हिक्मत की उस तक रसाई नहीं। ये इस क़दर बुलंद हैं कि इन्सान का इदराक और उसकी अक़्ल उस तक परवाअज़ नहीं कर सकती।

बहर-ए-काहइल के बाअज़ हिस्से इस क़दर गहरे हैं कि आला से आला आलात भी उसकी तह तक पहुंचने में क़ासिर रह गए। अजराम-ए-फल्की के दरमियान बाअज़ ऐसे सितारे और सय्यारे हैं जहां ज़बरदस्त तरीन दूरबीन के ज़रीये भी चशम इन्सानी की रसाई मुम्किन नहीं। यानी "ऐसी चीज़ें जो ना आँखों ने देखीं ना कानों ने सुनीं ना आदमी के दिल में आईं।"

लेकिन ख़ुदा उन्हें अपने रूह के वसीले से बच्चों पर ज़ाहिर करता है और हालाँकि हम उन्हें समझ नहीं सकते तो भी हम शुक्रगुज़ारी और ख़ाकसारी की रूह से मामूर हो कर ख़ुदा के हुज़ूर सज्दे में गिर पड़ते हैं। सलीब पर हमारे ख़ुदावंद की ज़ात की दोनो फ़ितरतें एक दूसरे से जुदा ना हुईं। उस की हक़ीक़ी इन्सानियत और उसकी ज़ाती उलूहियत बाहम मख़लूतना थीं बल्कि दोनो जुदा जुदा और सरीह तौर पर मौजूद थीं। "ख़ुदा ने मसीह में हो कर अपने साथ दुनिया का मेल मिलाप कर लिया।" उस क़ुर्बानी के ज़रीये से मसीह फ़क़त ख़ुदा की मर्ज़ी को ही नहीं बजा ला रहा था बल्कि ख़ुदा मसीह में हो कर इन्सान का अपने साथ मेल मिलाप कर रहा था ये बह अल्फ़ाज़ दीगर अपना मेल मिलाप इन्सान से कर रहा था।

मसीह की मौत ख़ुदा के हुक्म की तामील के मुताबिक़ किसी बहादुर की मौत ना थी बल्कि वो दुनिया के गुनाहों के लिए ख़ुदा के बेटे की मौत थी। इन्जीली बयान के बमूजब मसीह ने अपनी ज़िंदगी के उस मौक़े पर अपना जलाल साफ़ और बैयन तौर से ज़ाहिर किया। ऐसा जलाल जो बाप के इकलौते का जलाल था और जो फ़ज़्ल और सच्चाई से मामूर था। कफ़्फ़ारा कामिल उलूहियत का फे़अल है। क्योंकि बाप ने दुनिया से इस क़द्र मोहब्बत की कि अपने बेटे को बख़्श दिया। खुदा बेटे ने दूसरों की ख़ातिर अपनी जान फ़िद्या में दी। और ख़ुदा रूहुल-क़ुद्दुस ने मसीह को अपनी हुज़ूरी और अपनी क़ुदरत से मामूर कर दिया ताकि वो मौत की बर्दाश्त कर सके और अपनी मुबारक क़ियामत के ज़रीये से उस पर ग़ालिब आए (रोमीयों 1:4)

ना सिर्फ बैत-लहम में बल्कि कलवरी पर भी हम फ़रिश्तों के हम-नवा हो कर ये गा सकते हैं। "ख़ुदा को आस्मान पर तारीफ़ । ज़मीन पर सलामती और आदमीयों में रजामंदी हो।"

फोरसिथ कहता है पस इसलिए हम जे़ल की इबारत के अमीक़ मआनी को समझने की कोशिश करें।" ख़ुदा मसीह में हो कर मेल मिलाप कर रहा था।” मसीह के ज़रीये से नहीं बल्कि ख़ुद मसीह की सूरत में मौजूद हो कर वो अपने मेल मिलाप के काम को अंजाम दे रहा था। ये काम तीनों अक़ानीम बाहम मिलकर कर रहे थे ना फ़क़त उक़नूम सानी यानी बेटा, क़दीम उलमाए इल्म ईलाही का ख़्याल बिल्कुल दुर्रुस्त था कि नजात का फे़अल तीनों अक़ानीम का फे़अल है यानी बाप, बेटे और रूहुल-क़ुद्दुस का जब हम तीनों अक़ानीम के नाम में बपतिस्मा के ज़रीया से किसी को ख़ुदा के साथ मेल मिलाप की अज़ सर-ए-नौ ज़िंदगी में दाख़िल करते हैं तो हम उस का इक़रार करते हैं।

अगर हम उस राज़ की तह तक पहुंचना चाहते हैं तो चाहिए कि उस पर और ज़्यादा ग़ौर-ओ-ख़ौज़ करें। चाहिए कि ये महिज़ हमारा अक़ीदा ही अक़ीदा ना रहे। बल्कि एक तजुर्बा बन जाये। हमने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी। हम ही उसके ख़ून से ख़रीदे गए।

मुक़द्दस एनसलम को रात के वक़्त सलीब के पास दुआ व मनाजात करते हुए सुनिये "ऐ मेरे महबूब ! ऐ मेरे मुशफ़िक़ मसीह ! तूने क्या किया है कि इस क़दर तेरी मिन्नत व सिमाजत की जाये?........मैं ही वो ज़र्ब हूँ जो तुझको लगी और जिस ने तुझे दुख पहुंचाया। तेरी मौत का सबब मैं हूँ। मैंने ही तुझे सख़्त ईज़ा पहुंचाने की कोशिश की।" फिर वो हमारी जानिब रुख़ करके वो अल्फ़ाज़ कहता है जिनकी सदा अब तक हमारे कानों में गूंज रही है" उसकी मौत पर कामिल भरोसा कर किसी और चीज़ पर तवक्कुल ना कर। उस की मौत पर कामिल एतिमाद व तकीया कर उस को अपना मजाद मादा बना और उसी में सुकूनत कर"

मुक़द्दस बरनर्ड जैसे आलिम शख़्स को भी सुनिए "आला तरीन फ़लसफ़ा और मेरी इंतिहाई हिक्मत ये है कि मैं मसीह मस्लूब को जानूं क्योंकि कलवरी आशिक़ों के विसाल का मुक़ाम है।"

ज़रा उस दुआ की तरफ़ भी मुतवज्जा हो जाए जो मुक़द्दस फ्रांसीस से मंसूब है "ऐ मेरे ख़ुदावंद येसु मसीह मैं तुझसे बमिन्नत अर्ज़ करता हूँ कि मुझे मेरे मरने से पेशतर दो बरकतें इनायत फ़र्मा। अव़्वल ये कि मैं अपने अय्याम ज़िंदगी में अपने जिस्म और अपनी रूह में तेरे तल्ख़ तरीं रंज वालम का एहसास कर सकूँ । दोम ये कि मैं अपने दिल में उस बेहद मुहब्बत को पाऊं जिसने तुझे इब्ने ख़ुदा को तरग़ीब दी कि इस क़दर तल्ख़ मुसीबत व अज़ाब को हम गुनाहगारों की ख़ातिर बर्दाश्त करे।"

हम जानते हैं कि मसीह कि मौत और अम्बिया महबूबान-ए-वतन और शहीदों की मौत में बहुत फ़र्क़ है। मसीह की मौत के मुताल्लिक़ पेशीनगोईआं की गईं वो गुनाह से ख़लासी बख़्शने के लिए थी जो उस वक़्त ज़हूर में आई उसके ज़रीये से मौत और क़ियामत पर फ़ौक़ उल-फ़ितरत फ़तह हुई । लेकिन असल फ़र्क़ उस शख़्स की ज़ात में पाया जाता है । जिसने अपनी जान दी क्योंकि "वो ख़ुदा का बेटा था ।" उस में कामिल उलूहियत मौजूद थी कलाम मुजस्सम हुआ और हमारी ख़ातिर मस्लूब हुआ।

कलवरी की सलीब पर दुनिया की सबसे अज़ीमुश्शान चीज़ यानी मुहब्बत ज़ाहिर होती है और दुनिया का सबसे तारीक तरीन राज़ यानी गुनाह और ख़ुदा की ज़ात व सिफ़ात का सबसे आला इज़्हार यानी उस की क़ुददुसियतI" इसी को उसने हमारे वास्ते गुनाह ठहराया ताकि हम उसमें हो कर ख़ुदा की रास्तबाज़ी हो जाएं" यही इज़्हार कफ़्फ़ारा है।

डाक्टर काली चरण चैटर्जी जो अड़तालीस साल तक पंजाब में मशहूर-ओ-मारूफ़ मुबश्शिर की हैसियत में ख़िदमत करते रहे और जो कलीसिया ए हिंद में बक़दर शहज़ादा गुज़रे हैं। उनकी सवानिह उमरी में जो कुछ अरसा हुआ शाया हुई हम उनकी जे़ल की गवाही पढ़ते हैं:—

"अक्सर औक़ात मुझसे ये सवाल पूछा गया है कि मैं क्यों हिंदू धर्म को तर्क करके मसीह का शागिर्द हो गया। इसका जवाब ये है कि मसीह की पाक और बे ऐब ज़िंदगी की कशिश ने उसके ख़ुदा की मर्ज़ी के ताबे होने और उस के पुर-मुहब्बत और शफ़क़त आमेज़ आमाल ने मुझे ख़ुद बख़ुद अपनी जानिब खींच लिया। पहाड़ी वाअज़ में उसकी अजीब व गरीब नसीहतों ने और गुनाहगारों के लिए उसकी मुहब्बत ने मुझे उस का गरवीदा बना लिया। मैं उसका बड़ा मद्दाह था और उस से मुहब्बत करता था। राम, कृष्ण, और काली के अवतार जिनकी इज़्ज़त करना मुझे बचपन से सिखाया गया था। महिज़ ज़ोर और ताक़त के अवतार थे। वो बहादुर थे जो हमारी मानिंद गुनहगार थे और हमारे से जज़्बात रखते थे। फ़क़त मसीह ही मुझे पाक और ख़ुदा की मानिंद इज़्ज़त व तारीफ़ के लायक़ मालूम हुआ। वो तालीम जिसकी वजह से मैंने मसीही मज़्हब इख़्तियार करने का फ़ैसला किया मसीह की क़ाइम मक़ाम क़ुर्बानी की तालीम और उसकी अज़ीयत और मौत थी मैंने अपने गुनाहों का एहसास किया और मसीह में एक ऐसे शख़्स को पाया जिसने मेरे गुनाहों की ख़ातिर अपनी जान दी और वो सज़ा जो मेरा हक़ थी उसने ख़ुद उठाई ।"

क्योंकि तुमको ईमान ही के वसीले से फ़ज़्ल और नजात मिली है और यह तुम्हारी तरफ़ से नहीं। ख़ुदा की बख़्शिश ना आमाल के सबब से है ताकि कोई फ़ख़्र ना करे।" मेरे दिल में ये ख़्याल समा गया कि मसीह ने अपनी जान दी और ऐसा करने से वो क़र्ज़ अदा किया जो और कोई शख़्स अदा ना कर सकता था। ये यक़ीन मेरी मसीही ज़िंदगी और तजुर्बा के साथ तरक़्क़ी करता और क़ुव्वत पकड़ता गया और अब मेरी ज़िंदगी का जुज़ु बन गया है । यही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान माबाह-अल-इम्तयाज़ है। जिस वक़्त मैं मसीही हुआ मैंने इस हक़ीक़त को महसूस किया और अब ये मेरे दिल में और भी ज़्यादा पुख़्ता और मुहकम हो गई है।"

गुनाह की ख़ातिर फ़क़त एक नजातदिहंदा का क़ाइम मक़ाम हो कर क़ुर्बान होना ही मसीहीयत और दीगर मज़ाहिब के दरमियान ख़त इम्त्तीयाज़ नहीं बल्कि एक ऐसे नजातदिहंदा की मौत, सब कुछ उस शख़्स की ज़ात व सिफ़ात पर मुनहसिर है जिसने क़ाइम मक़ाम ठहर कर उस सज़ा को कामिल तौर पर उठा लिया।

एनसलम ग्यारहवीं सदी की उस आलिमाना और मनतक़याना रिसाला कर डेविस होमो (Cur Deus Homo) में कहता है:—

"उस ईलाही शख़्स मसीह की ज़िंदगी ऐसी आला अफ़्ज़ल और बीशबहा है कि वो इन गुनाहों से कहीं ज़्यादा वज़नदार है जो उस को सलीब देने के जुर्म से इस क़दर बढ़ गए हैं कि इन्सानी अक़्ल व अंदाज़ा के दायरा से बईद हो गए हैं। मैं तो दुनिया के तमाम गुज़शता, हाल मुस्तक़बिल के मकरूह से मकरूह गुनाहों बल्कि और गुनाहों का भी जो इन्सान की अक़्ल व ख़याल में आ सकते हैं मुर्तक़िब होना कहीं ज़्यादा पसंद करूँ बनिस्बत उस के जलाल के ख़ुदा को सलीब देकर उस एक ख़ौफ़नाक गुनाह-ए-अज़ीम के लिए मुजरिम ठहराया जाऊं" उस की तालीम के मुताबिक़ सिर्फ उलूहियत ही इस काबिल है कि उलूहियत के तक़ाज़ा को कामिल तौर से पूरा कर सके। लेकिन चूँकि इन्सान ने गुनाह किया है इसलिए इन्सान ही को इन्सान के गुनाह की सज़ा उठानी है। लिहाज़ा ये वाजिब बजा और पूरी सज़ा सिर्फ वही उठा सकता है जिसमें उलूहियत और इन्सानियत दोनो पाई जाएं। शायद कोई कहे कि ये तर्ज़-ए-इस्तिदलाल तो अज़्मिना वुसता के उल्मा का है लेकिन आजकल भी हम नमाज़ की किताब में जो आम तौर पर राइज है इन्ही हक़ायक़ का अक़ाइद की सूरत में मुलाहिज़ा करते हैं बल्कि ग़लतीयों से भी उस अक़ीदे का इज़्हार होता है।

औसत दर्जा की अक़्ल का शख़्स। इस क़िस्म के बयानात को सुनकर बड़ा ब्रहम होता है लेकिन फ़क़त उन हक़ीक़तों पर ग़ौर करने ही से हमारी उबूदीयत की रूह को तक़वियत पहुँचती है और हम नमाज़-ओ-याज़त के वक़्त ज़ाहिरदारी के गुनाह से बाज़ रह सकते हैं । अक़ीदों और मतबदीयों के सवाल जवाब की किताबों के मआरिफ़ जब हम पर ख़ूब वाज़िह हो जाते हैं तो ना सिर्फ निहायत पुरलतीफ़ मालूम देते बल्कि हमारे दिलो-दिमाग को फ़र्हत बख़्शते हैं और हमारी अक़्ल व क़यास में भी आ जाते हैं।

कुतुब मुक़द्दसा की "ख़ुदा कि तह की बातों" पर ग़ौर करना अज़-हद मुश्किल है बल्कि शुरू में बाज़-औक़ात उनका मुताला बे-लुत्फ़ सा मालूम होता है। लेकिन ये मौसीक़ी के सुरों के सीखने के मुतरादिफ़ है। कुछ अरसा के बाद अक़ाइद के सुरबाहम मिलकर एक निहायत शीरीं रुहानी राग बन जाते हैं और वो जो इस्तिक़लाल के साथ बराबर उस में मुनहमिक रहता है। आख़िर-कार ख़ुदा की उस दौलत व हिकमत और मुताल्लिक़ मज़ीद तजस्सुस और तफ़तीश में कामयाब होता है जो अज़बस अमीक़ है।

पस हम फिर मुक़द्दस पौलुस के अल्फ़ाज़ की जानिब मुतवज्जा होते हैं । बल्कि उन अल्फ़ाज़ की तरफ़..................जो ख़ुदा की रूह की हिदायत से लिखे गए यानी उन्होंने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" ख़ुदा की कलीसिया............जिसे उस ने ख़ास अपने ख़ून से मोल लिया।"

मसीह की शख़्सियत में दो फ़ितरतें मौजूद हैं असली व हक़ीक़ी उलूहियत व इंसानियत उसकी ज़ात में मौजूद हैं लेकिन ये दोनों फ़ितरतें बाहम दीगर मख़लूत नहीं। ख़ुदा ने सलीब पर दुख उठाया। लेकिन अपनी ईलाही फ़ित्रत व ज़ात के एतबार से नहीं बल्कि इन्सान होने की हैसियत में I हुकर (Hooker) कहता है कि जब रसूल फ़रमाता है कि "यहूदीयों ने जलाल के ख़ुदावंद को सलीब दी" (1 कुरन्थियो 2:8) तो हमें जलाल के ख़ुदावंद से मसीह की कामिल ज़ात मुराद लेनी चाहिए । जो जलाल का ख़ुदावंद होते हुए हक़ीक़त में सलीब पर मारा गया। लेकिन इस लिहाज़ से नहीं जिसके एतबार से वो जलाल का ख़ुदावंद कहलाता है। बईना जब इब्ने आदम ज़मीन पर होते हुए ये दावा करता है कि इब्ने आदम उसी वक़्त आस्मान पर भी मौजूद था (यूहन्ना 3:13) तो इब्ने आदम से मसीह की कामिल शख़्सियत मुराद है जो मुजस्सम हो कर ज़मीन पर मौजूद होते हुए आस्मान पर भी जल्वा-अफ़रोज़ था। लेकिन उस एतबार से नहीं जिसकी रु से उसे इन्सान कहा गया है ।

मौत का फ़तवा लगाए जाने से पेशतर मसीह ने ख़ुद सरदार काहिन के सामने अपनी अटल इन्सानियत और उलूहियत का जिस क़दर ज़बरदस्त इक़रार मुम्किन था किया। ये बयान तमाम इजमाली अनाजील में दर्ज है (मत्ती 26:64, मरकुस 14:62+लूक़ा 22:7) "मगर येसु चुप ही रहा। सरदार काहिन ने खड़े हो कर उस से कहा तू जवाब नहीं देता?.......मैं तुझे ज़िंदा ख़ुदा की क़सम देता हूँ कि अगर तू ख़ुदा का बेटा मसीह है तो हम से कह दे येसु ने उससे कहा तूने ख़ुद कह दिया (मरकुस के बयान के मुताबिक़ "मैं हूँ") बल्कि मैं तुमसे सच्च कहता हूँ कि इसके बाद तुम इब्ने आदम को क़ादिर-ए-मुतलक़ की दाहिनी तरफ़ बैठे और आस्मान के बादलों पर आते देखोगेI इस पर सरदार काहिन ने अपने कपड़े फाड़े कि उस ने कुफ़्र बका है। अब हमें गवाहों की क्या हाजत रही? देखो तुमने अभी ये कुफ़्र सुना है। वो क़त्ल के लायक़ है। इस पर उन्होंने उसके मुँह पर थूका।"

मुक़द्दस पौलुस फ़रमाता है कि इनमें से किसी ने ना जाना "क्योंकि अगर जानते तो जलाल के ख़ुदावंद को सलीब ना देते।" लियोअ आज़म जो एक ज़बरदस्त आलिम इलाहियात गुज़रा है कहता है कि "हमारे नजातदिहंदा की ज़ात में दो फ़ितरतें मौजूद थीं। हालाँकि दोनों की ख़ुसूसीयतें जुदागाना बराबर क़रार रहें तो भी दोनो के जवाहर में ऐसी अज़ीम यगानगी थी कि जिस वक़्त से कलाम मुजस्सम हो कर कुँवारी के बतन में आया हम उस की उलूहियत का बग़ैर उसकी इन्सानियत के और उस की इन्सानियत का बग़ैर उस की उलूहियत के ज़िक्र नहीं कर सकते। दोनो फ़ितरतें अपनी असलीयत के अपने मख़्सूस आमाल के ज़रीया से जुदागाना ज़ाहिर करती हैं। लेकिन ऐसा करने से अपना बाहमी रिश्ता व ताल्लुक़ तोड़ती नहीं। दोनो एक दूसरे के तक़ाज़ों को कामिल तौर से पूरा करती हैं। अज़मत व बुज़ुर्गी के साथ कामिल अदनापन मौजूद है और अदनापन के साथ ही कामिल अज़मत व बुज़ुर्गी मौजूद है। यगानगी बे-तरतीबी पर मुंतिज नहीं। ना मौज़ूनियत निफ़ाक़ पैदा करती है एक चीज़ काबिल-ए-गुज़र है।

दूसरी नाक़ाबिल-ए-गुज़र और जलाल का हक़दार है इसी के हिस्से में हक़ारत व रुसवाई भी है जो तवानाई व ताक़त का मालिक है उस के हिस्सा में कमज़ोरी भी है यही शख़्स लायक़ व क़ाबिल और मौत पर ग़ालिब आने वाला है। ख़ुदा ने कामिल इन्सान की सूरत इख़्तियार की और ख़ुद इन्सान की ज़ात में ऐसा मिल गया और उस को अपनी शफ़क़त व ज़ोर में ऐसा मिला लिया कि दोनो ज़ातें एक दूसरे में आ गईं। लेकिन दोनो ने बाहम मिल जाने के बावजूद भी अपनी ख़ासतयों को बरक़रार रखा।

पस मसीह की सलीबी मौत में इन्सानी अज़ीयत व बेहुरमती उलूहियत के बाईस हक़ीक़ी ईलाही मुसीबत में तब्दील हो गई । क्योंकि उलूहियत इन्सानी रूह और जिस्म के साथ ज़ाती एहसास की यगानगी के सबब एक हो गई। चूँकि मुसीबत उठाने वाला शख़्स लामहदूद है । इसलिए मुसीबत भी लामहदूद है। ख़ुदा के बेटे ने मुझसे मुहब्बत रखी और अपने आप को मेरे इव्ज़ फ़िद्या में दे दिया। ख़ुदा ने कलीसिया को अपने ख़ून से ख़रीद लिया।


ख़ुदावंदा थकामाँदा हूँ मैं जब
मुझे तक्लीफ़-दह हूँ तेरे अहकाम
ज़बां बार-ए-गराँ से जब होशा की
दिखा हाथ अपने तब अनेक फ़रख़ाम
दिखादे हाथ ख़ून-आलूदा अपने
जड़े थे काठ पर जूए नकोनाम

कभी जो पांव मेरे लड़खड़ाएं
करूँ आगे को जाने से मैं इन्कार
अगर हो आबला पाए से दहश्त
हो मेरी राह सुनसान और पुरख़ार
तू अपने पांव वो मुझको दिखादे
कि जिनमें कीलों के अब तक हैं आसार

ख़ुदावंदा नहीं ये मुझमें जुरात
दिखाऊँ अपने दस्त वपा की हालत
(बिशप बीडली साहिब की नज़म का तर्जुमा)