बाब शुशम

"ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है ?"

मसीह के हफ़्त सलीबी कलिमात में फ़क़त एक यही कलिमा है । जिसे मरकुस, मत्ती हर दो ने अपनी अनाजील में लिखा है। बाईसवीं ज़बूर का आग़ाज़ इन्ही अल्फ़ाज़ से होता है। लेकिन दोनों मुबश्शिरों में से एक ने ये भी ज़िक्र नहीं किया कि किसी पेशीनगोई की तक्मील है। सलीब पर कामिल छः घंटे सख़्त मुसीबत और अज़ाब उठाने के बाद हमारे नजातदिहंदा के लब हाय मुबारक से ये अल्फ़ाज़ निकले। उस का पहला कलिमा ये था "ऐ बाप इनको माफ़ कर क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या करते हैं।” यानी माफ़ी के लिए दुआ। उसका दूसरा कलिमा सलामती और इत्मीनान का वाअदा है। "मैं तुझसे सच्च कहता हूँ कि आज ही तू मेरे साथ फ़िर्दोस में होगा।” उस का तीसरा कलिमा अपनी माँ को तसल्ली देने और उसके लिए फ़िक्रमंद होने से मुताल्लिक़ है "ऐ औरत देख तेरा बेटा........देख तेरी माँ" उस के बाद तारीकी तारी हो गई । फिर तीन आख़िरी कलिमात से पेशतर चंद लम्हों के अरसा में यकेबाद दीगरे कहे गए उस ने निहायत दर्दनाक आवाज़ से चिल्ला कर कहा "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया है?

इन अल्फ़ाज़ में ज़रूर कोई ख़ास ताक़त और जज़्बा मख़्फ़ी है इसका सबूत ये है कि दोनों मुबश्शिरों ने निहायत ग़ौर व ख़ोज़ के बाद मसीह के अल्फ़ाज़ ऐन उसी ज़बान में जिसमें मसीह ने फ़रमाए कलमबंद किए "एली एली लमा शबक़तनी" पाक कलाम में मसीहाई ज़बूर के इलावा ये अल्फ़ाज़ और कहीं नहीं पाए जाते। ये चिल्लाने की आवाज़ ऐसी भारी तक्लीफ़ का इज़्हार करती है जो ना तो उस से पेश्तर कभी दुनिया में देखी गई और ना ही उस की मिसाल फिर कभी देखने में आएगी।

कारथोसीयह के लुडोल्फ (Ludolf) से चौधवीं सदी की एक रिवायत है मंसूब की जाती है कि हमारे मौला ने सलीब पर लटके हुए बाईसवीं ज़बूर की आयात को दोहराना शुरू किया और बराबर यही करता रहा यहां तक कि वो इकत्तीसवीं बाब की पांचवीं आयत तक पहुंचे। "मैं अपनी रूह को तेरे हाथ में सौंपता हूँ।” इस में कुछ शक नहीं कि इस ख़्याल के इलावा हम मसीह की ज़िंदगी उसके मसीहाई इल्म और उस की आगही की तशरीह दीगर कुतुब की निस्बत मज़ामीर में सबसे ज़्यादा वाज़िह और रोशन पाते हैं।

ये बिल्कुल सही है कि बाईसवें ज़बूर में मसीह की सलीबी मौत का बयान ऐसे अल्फ़ाज़ में मर्क़ूम है और हम सवाल करते हैं कि आया ये तारीख़ है या पेशीनगोई ? अलबत्ता स्टरास और इसी क़िस्म के दीगर लोग कहते हैं कि इस वाक़्ये का इन्जीली बयान महिज़ फ़र्ज़ी है और दरहक़ीक़त वक़ूअ में नहीं आया । बल्कि फ़क़त इसलिए लिखा गया कि अहद-ए-अतीक़ के और एक मुक़ाम का बहतरीक़ नबुव्वत पूरा होना साबित किया जाये।

लेकिन ईमानदार के लिए उस के नजातदिहंदा का ये कलिमा इन मसाइब का मज़हर है जो उसे बर्दाश्त करने पढ़ें और गुनाहगारों के लिए उसकी मुहब्बत का सबूत है। पस ये आवाज़ हमको और जुमला मुक़द्दसिन को ललकार ललकार कर कह रही है कि ज़ोरआवर बनो और जे़ल के अल्फ़ाज़ के मआनी को बख़ूबी समझो यानी उस की चौड़ाई और लंबाई और ऊंचाई और गहराई कितनी है और मसीह की उस मुहब्बत को जान सको जो जानने से बाहर है।”

अगर सलीब अहद-ए-जदीद की मर्कज़ी सदाक़त है तो ये आवाज़ इस सदाक़त की असल है और इसका ज़बरदस्त इज़्हार । मसीह के दुख के वाक़ियात का बाअदब मुताला करने वालों के नज़दीक ये पाक तरीन मुक़ाम है।

सुपरजन ने किया ख़ूब कहा है "चाहिए कि हम उस निहायत अल्मनाक कलिमा के हर एक लफ़्ज़ पर जुदागाना ग़ौर ना करें । "तूने" मैं समझ सकता हूँ कि क्यों सरकश यहुदाह और बुज़दिल पतरस मुझे छोड़ गए। लेकिन तू ऐ ख़ुदावंद मेरे ख़ुदा ! मेरे वफ़ादार शफ़ीक़ तू मुझे किस तरह छोड़ सकता है?" ये उस के मसाइब में से बदतरीन मुसीबत थी। दोज़ख़ की आतिश शोला-ज़न ख़ुदा और रूह की बाहमी जुदाई है। "मुझे" यानी अपने बेऐब, फ़र्मांबरदार और मुसीबतज़दा बेटे को । तूने मुझे क्यों हलाक होने के लिए छोड़ दिया?"

अगर हम ताइब और मनफ़अल दिल से सलीब पर लटके हुए मसीह को देखें तो हम उस ज़बरदस्त मसले को समझ सकेंगे। मसीह इसलिए छोड़ा जाता है कि हमारे गुनाहों ने ख़ुदा और उसके दरमियान जुदाई पैदा कर दी । "क्यों?" इस अजीबो-गरीब हक़ीक़त का क्या सबब है कि ख़ुदा ने अपने बेटे को ऐसी हालत और ऐसे नाज़ुक वक़्त में छोड़ दिया?

इसका सबब मसीह में मौजूद नहीं तो फिर वो छोड़ा गया" "छोड़" अगर तू मुझे तंबीह करता तो शायद मैं इस की बर्दाश्त कर लेता। क्योंकि तेरे चेहरे का जलवा मुझे नज़र आता रहता। लेकिन आह ! तूने मुझे बिल्कुल छोड़ दिया। क्यों तूने ऐसा किया ? "दिया" यानी फ़िल-हक़ीक़त ऐसा हो गया। हमारा नजातदिहंदा उसके ख़ौफ़नाक असर को महसूस करते हुए ये सवाल पूछता है यक़ीनन ये बिल्कुल सच्च है लेकिन कैसा पुरइसरार है। ये महिज़ छोड़ देने की धमकी ना थी जिसके बाईस हक़ तआला ने बुलंद आवाज़ से चिल्ला कर ये अल्फ़ाज़ कहे बल्कि उसने वाक़ई छोड़ जाने का तजुर्बा किया।

इस जिस्मानी, रुहानी और दिमाग़ी तक्लीफ़ का अंदाज़ा लगाने के लिए जो उस आवाज़ से आश्कारा है। हमें उन तमाम वाक़ियात पर दुबारा ग़ौर करना चाहिए । सलीब दिया जाना ज़माना -ए-क़दीम के ईज़ा पहुंचाने के तरीक़ों में से सबसे ज़्यादा हैबतनाक तरीक़ा था। और रूमी अदालत में ये जराइम की इंतिहाई सज़ा मुतसव्वर होती थी। उसमें जिस्मानी बेइज़्ज़ती और जानकनी शामिल थी। जानकनी इसलिए कि जिस्म को ग़ैर मामूली तौर से रखते और हाथ पांव में मेख़ें ठोंकने के बाईस सख़्त दर्द होता। प्यास की आग भड़क उठती और आख़िर कार ताक़त बतदरीज ज़ाइल हो जाती और मौत की नौबत आ पहुँचती।

इस क़िस्म की बेइज़्ज़ती बिलख़सूस क़ौम यहूद के नज़दीक बहुत ज़्यादा समझी जाती थी । क्योंकि वो सलीब को निहायत नफ़रत व हक़ारत की नज़र से देखते थे और उसको ख़ुदा की लानत तसव्वुर करते थे (ग़लतीयों 3:13, व इस्तसना 21:22) इसके साथ ही वो तक़ाबुल भी मलहूज़ रखना चाहिए जो मसीह की पाकीज़गी, उस की बेगुनाही और उसकी ईलाही शान और उस वहशयाना तम्सख़र, मुज़हका और नफ़रत के तीरों की बोछार के दरमियान है जो तमाशाबिन ज़ेरे सलीब खड़े हो कर उस पर चिल्ला रहे थे बल्कि वो भी जो उस के दाएं और बाएं सलीब पर लटके थे। सरदार काहिन उस का ठट्ठा करते हुए उसे ले गए। "उसने औरों को बचाया अपने तईं नहीं बचा सकता...........उसने ख़ुदा पर भरोसा रखा है। अगर वो उसे चाहता है तो अब उसको छुड़ा ले।" इस के जवाब में एक मोजज़ाना तारीकी इस तमाम नज़ारा पर छटे घंटे से लेकर नौवें घंटे तक छाई रही कामिल तीन घंटों की तारीकी के बाद अपनी जानकनी और अज़ाब और मुसीबत की ज़ुल्मत के बाईस येसु बुलंद आवाज़ से चलाया "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?"

मेलनकथन और दीगर मुस्लिहीन इस आवाज़ का मतलब यूं बयान करते हैं कि ये आवाज़ इस अम्र का बाईस है कि मसीह ने अपनी इन्सानी रूह में गुनाह के बरख़िलाफ़ ग़ज़ब व क़हर का एहसास किया था। बाअज़ का ये ख़्याल है कि ये आवाज़ उसकी सियासी तदाबीर की नाकामयाबी का इज़्हार थी। यानी एक मायूस हुब्बुल वतन की नाउम्मीदी की आवाज़।

बाअज़ दीगर अश्ख़ास जिनमें शलईरमीचर (Schleiermacher) भी शामिल है का ये ख़्याल है कि ये अल्फ़ाज़ उस मातमी ज़बूर का इफ़्तिताही कलिमा में जिसका इख़्तताम भी निहायत आला है और मसीह ने उसे अपने दावा मसीहाई के सबूत में दोहराया था।

मावर कहता है कि लोगों से रद्द किए जाने की वजह से "ख़ुदा के" साथ उसकी यगानगी व रफ़ाक़त का एहसास एक लम्हा के लिए किसी क़दर कम हो गया था।"

ओल्हाउसन (Olhausen) कहता है कि ये "फ़िल-हक़ीक़त ख़ुदा का उसे एक लम्हा के लिए क़सदन छोड़ना था।”

डाक्टर फ़लीब शाप (Philip Schaff) मसीह के इस तजुर्बा को बाग-ए-गतसमनी की जानकनी का उस पर निहायत शिद्दत से हमला-आवर होना और उस की कफ़्फ़ारा दही की मुसीबतों का इख़्तताम कहता है। ये गुनाह और मौत का ईलाही तजुर्बा था। यानी नस्ल-ए-इन्सानी के लिए गुनाह और मौत के अंदरूनी बाहमी ताल्लुक़ और उनकी आलमगीर हक़ीक़त को एक शख़्स ने दर्याफ़्त किया जो बिल्कुल बेऐब और पाक ज़ात था। ये तजुर्बा एक ऐसी पुर-इसरार और नाक़ाबिल-ए-बयान जिस्मानी रुहानी तक्लीफ़ थी जो क़रीब-अल-वक़ूअ मौत के ख़्याल बल्कि दरअसल मौत ही से कश्मकश करने के बाईस थी।

मौत गुनाह की मज़दूरी और तमाम इन्सानी तकलीफों का इख़्तताम है हालाँकि मसीह उस से बिल्कुल आज़ाद था तो भी उसने उस बेमिसाल मुहब्बत के बाईस जो उसे इन्सान से है उसे इरादतन इख्तियार कर लिया था।

यक़ीनन हम उसे अहले इस्लाम के ख़्याल के मुताबिक़ मसीह का मौत से ख़ौफ़-ज़दा होना और अंजाम और नतीजा की बर्दाश्त करने में अख़्लाक़ी दिलेरी की कमी नहीं कह सकते ।

जैन जीकोउस रूसो (Jean Jacques Rousseau) जैसा काफ़िर भी ये कहता है कि "अगर सुक़रात ने एक फिलासफर की मानिंद अपनी जान दी तो मसीह नासरी की मौत तो एक ख़ुदा की मौत थी।"

हम मसीह के सलीब पर बुलंद आवाज़ से चिल्लाने के मआनी उस वक़्त तक हरगिज़ नहीं समझ सकते जब तक हम ये ईमान ना ले आएं कि वो हमारे गुनाहों को लेकर सलीब पर चढ़ गया। और जब तक हम उस की मौत में अपने गुनाहों के फ़िद्या के क़ाइल ना हो जाएं। लेकिन अगर हम ये मान लें कि मसीह ख़ुदा का बर्रा था और ख़ुदा ने उस पर हम सबकी बदकारीयाँ लादीं) तो हम उस तक्लीफ़ के सरबस्ता राज़ को मालूम नहीं कर सकते हैं।

अगर मसीह की मौत फ़क़त एक शहीद की मौत थी जिसने किसी अज़ीमुश्शान हक़ीक़त के लिए अपनी जान दी तो ये आवाज़ बे मौक़ा और बेमहल ठहरती है । लेकिन अगर उसका मरना एक बेऐब का गुनाहगारों के लिए मरना था और अगर वो हमारे लिए गुनाह बना तो हमारे और तमाम दुनिया के गुनाह हमारे नजातदिहंदा के दहन-ए-मुबारक से ये तक्लीफ़ और तन्हाई की आवाज़ निकलवाते हैं।

कफ़्फ़ारा किया है? कफ़्फ़ारा इन्सान के गुनाह के इव्ज़ ख़ुदा के प्यारे बेटे की सज़ा है जो उस ने इन्सान का क़ाइम मक़ाम हो कर ख़ुदा के अदल व इन्साफ़ के तक़ाज़ा को बरक़रार रखने के लिए उठाई।

अगर हम कफ़्फ़ारा की मज़कूरा बाला तारीफ़ को नापसंद करते हैं तो हम अज़ीमुश्शान हक़ीक़त को अशाए रब्बानी की नमाज़ों में जिसको हम मसीह की मौत की यादगारी के लिए बरक़रार रखते हैं और जो कलीसिया में राइज हैं देख सकते हैं। बलीजीयम और हॉलैंड की इस्लाह याफ्ताह कलीसियाओं ने जो मसला कफ़्फ़ारा की तशरीह व तौज़ीह की है भला उस से ज़्यादा ख़ूबसूरत तशरीह और क्या हो सकती है। यानी हम ईमान रखते हैं कि उसने अपने मुबारक बदन का सलीब पर ठोंका जाना इसलिए गवारा किया ताकि उस पर वो हमारे गुनाहों की तहरीर को सब्त करे। और कि उसने उस लानत को जो हमारा हिस्सा थी अपने ऊपर उठा लिया ताकि हमको अपनी बरकतों से मामूर कर दे। और कि उसने अपने आपको जिस्मानी और रुहानी तौर से दोज़ख़ी आज़ार और मलामत के मातहत कर दिया। जब उसने सलीब पर लटके हुए बुलंद आवाज़ से चला कर कहा "ऐ मेरे ख़ुदा ! ऐ मेरे ख़ुदा ! तूने मुझे क्यों छोड़ दिया?" ताकि ख़ुदा हमें ना छोड़े और हम ख़ुदा के हुज़ूर मक़बूलियत हासिल करें।

मिसिज़ बर्रेउनिंग (Mrs Browning) की नज़म के आख़िरी अल्फ़ाज़ में जो काओपर (Cowper) की क़ब्र पर कुंदा हैं यही ख़्याल ज़ाहिर होता है:—

एक मर्तबा इम्मानुएल के तन्हाई की हालत में "ऐ मेरे ख़ुदा ऐ मेरे ख़ुदा तूने मुझे क्यों छोड़ दिया" चिल्लाने की आवाज़ ने इस दुनिया को ता व बाला कर दिया। वो सदा गूँजे बग़ैर आस्मान पर पहुंची। वह उस गुमराह शूदा मख़्लूक़ के दरमियान से उसके मुबारक लबों से निकली। वो इसलिए बाद अज़ां उस गुमराह शूदा मख़्लूक़ के किसी फ़र्द को फिर ऐसे दर्दनाक अल्फ़ाज़ निकालने की ज़रूरत ना महसूस हो।"

"उसने हम सबकी बदकारीयाँ उस पर लादीं" यानी हमारे गुनाह, हमारे बदनुमा दाग़, हमारी ज़बरमीं, हमारी पीशमानी, हमारी कोताहियों, हमारे क़सूर, हमारी लग़्ज़िशें, हमारे जुर्म, हमारी ख़ताएँ, हमारी ख़िलाफ़ वरज़ीयां, हमारी तक्सीरें, हमारी जहालत, हमारी नजासत और हमारी बदकारीयाँ, हमको उस हक़ीक़त के ख़ौफ़नाक एहसास से घबराना नहीं चाहिए। हम कभी अपने ग़रूर और अपने तकब्बुर को नज़र-ए-हक़ारत से नहीं देख सकते। जब तक हम पहले ये महसूस ना करलें कि ख़ुदा के साथ हमारा मेल फ़क़त इस सबब से मुम्किन है कि "वो जो गुनाह से वाक़िफ़ ना था।" उसी को उसने हमारे वास्ते गुनाह ठहराया ताकि हम उसमें हो कर ख़ुदा की रास्तबाज़ी हो जाएं। मसीह जो हमारे वास्ते लानती बना उस ने हमें मोल लेकर शरीयत की लानत से छुड़ाया।” वो फ़क़त हमारे ही गुनाह की ख़ातिर नहीं बल्कि तमाम दुनिया के गुनाह की ख़ातिर ख़ुदा से छोड़ा गया। गोया ज़मानों के गुनाह और उन की शर्मिंदगी एक बहर-ए-बे-कराँ व मोजज़न पानियों की मानिंद उस पर से गुज़री। गहराइयाँ गहिराईयों को पुकारती हैं। वहशी इन्सान की तमाम ना-मुकम्मल नफ़्सानी ख़ाहिशात और उन की जहालत की तारीकी, बनी इस्राइल की ख़ुदपसंदी और खुदअराई नैनवा और सूर की शेख़ी, मिस्र और बाबुल के ज़ुल्मो सितम, फ़िर्क़ों और गिरोहों की बे-इंसाफ़ी, बाज़ारों के जुर्म व गुनाह क़हबा ख़ाने और जंग के मैदान यहुदाह का पकड़वाना, पतरस का इन्कार और मसीह के दीगर शागिर्दों की फ़रारी, पिलातुस, हेरोदेस, और काइफ़ा की तक्सीरें, बल्कि ज़माना गुज़शता, हाल व मुस्तक़बिल की बदकारीयाँ ये तमाम बातें उस की रूह को पस्त कर रही थीं जिसका नतीजा ये दर्दनाक सदा थी उस दिल को जो ख़ुदा का मुक़द्दस था गुनाह आलूदा दुनिया का तसव्वुर बाग-ए-गतसमनी में एक घिनौनी सूरत बन कर सता रहा था। सलीबी दुख निहायत तारीक और हक़ीक़ी था। मसीह की रूह का दुख फ़िल-हक़ीक़त उस का असल दुख था।

फोरसिथ (Forsyth) कहता है कि मसीह का दुख उठाना और उस की मौत दरहक़ीक़त मामूली दुख और मुसीबत से कहीं बढ़कर है क्योंकि वो अमल कफ़्फ़ारा था। तारीख़ कलीसिया (हर दौर रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट) के मुख़्तलिफ़ मदारिज पर मसीह के दुखों पर किसी क़दर मुबालग़ा के साथ ज़ोर दिया जाता है । लेकिन असल में मसीह के दुख पर इतना जोर नहीं देना चाहिए जितना इस अम्र पर कि उसने "क्या किया" मसीह का दुख उठाना एक ईलाही फे़अल है। क्योंकि उसने ब-आसानी उस को कार-ए-अज़ीम में तब्दील कर दिया।

ये मुसीबत ख़ुशी से गवारा की गई और पाक और मुक़द्दस इताअत व फ़रमांबर्दारी के ज़रीये से इन माहौल के तहत जो गुनाह और लानत के बाईस ख़ुदा की पाकीज़गी के बमूजब इन्सान पर वारिद हुए तब्दील की गई । ये मुसीबत ख़ुदा की पाकीज़गी और उसके हुस्न-ए-तक़द्दुस के सामने एक क़ुर्बानी थी। यहां तक तो ये सज़ा ठहरी लेकिन उस मुसीबत की शिद्दत और उस की इंतिहा नहीं बल्कि उस की इताअत और उस की पाकीज़गी ही इन्सान के लिए कफ़्फ़ारा ठहरी।"

इन्सान को उस आवाज़ की तशरीह करने से किसी क़दर ख़ौफ़ आता है। इन तमाम बातों के बावजूद जो इन्सान ने इस के मआनी को रोशन करने के लिए कही हैं ये एक चीसतान ही है। यानी कफ़्फ़ारा एक नाक़ाबिल-ए-हल हक़ीक़त है। ख़ुदा जो क़ादिर-ए-मुतलक़ और मुहब्बत करने वाला बाप है उसने क्यों अपने इकलौते बेटे को इस इंतिहाई तक्लीफ़ की तारीकी मैं अकेला छोड़ दिया ? बाअज़ लोग निहायत जुरात और दिलेरी से ये कहते हैं कि मसीह ख़ुदा के ग़ज़ब व क़हर का तख़्ता मश्क़ बना। अगर इस ख़्याल की निहायत एहतियात से तरमीम ना की गई तो ये तसव्वुर बहुत ही तक्लीफ़-दह साबित होगा। मुम्किन नहीं कि ईलाही सितम-रसीदा शख़्स एक लम्हे के लिए भी बाप के ग़ज़ब का तख़्ता मश्क़ बना हो । वो आस्मान से फ़क़त इसी लिए आया ताकि बाप की मर्ज़ी बजा लाए और उस लाइंतिहा मुहब्बत के मक़्सद को तबाह शूदा दुनिया को नजात बख़्शने के कारे अहम के ज़रीये से अंजाम दे। ख़्वाह ऐसा करने से उसकी पाक ज़ात को कितना ही दुख क्यों ना पहुंचे बल्कि बरअक्स इसके उससे पेशतर बाप की तवज्जा और उसकी मुहब्बत बेटे पर कभी इस से ज़्यादा मर्कूज़ ना थी ।"

"बाप मुझसे इसलिए मुहब्बत रखता है कि मैं अपनी जान देता हूँ ताकि उसे फिर ले लूं"

मसीह ने ख़ुद पेश अज़ीं वक़्त इस क़दर ये महसूस ना क्या होगा कि वो बाप की मर्ज़ी बजा ला रहा है और इसलिए बाप उस से ख़ुश होगा और उसे कभी अकेला ना छोड़ेगा।

इस दर्दनाक सदा में मसीह की तन्हाई का वो एहसास पिनहां है जो मुजस्सम होने के अय्याम में उस ने महसूस किया था और जिस का ख़ातमा सलीब पर ही हुवा I

"मैंने तन-ए-तन्हा अंगूर को कोल्हों में कुचला।” वो अपनी पैदाइश के वक़्त तन्हा था। नासरत में उसने अपने अय्यामें ज़िंदगी तन्हाई में बसर किए। बादअज़ां सहराओं और पहाड़ों की बुलंद चोटियों पर उस ने तन्हाई के लम्हे गुज़ारे। उस के मुताल्लिक़ अवाम की ग़लतफ़हमी । उसकी पीशीवाई, उस की आज़माईश और उस की दुआएं ये सब उसकी तन्हाई का सबब थीं। वो अवाम के दरमियान रह कर तन्हा रहा पहाड़ पर अपनी सूरत के तब्दील होने के वक़्त वो अकेला ही था। यरूशलेम पर मातम करते और उस पर आँसू बहाते वक़्त वो अकेला ही था। बाग़ गतसमनी और कोह कलवरी पर वो अकेला ही रहा। "सारे शागिर्द उसे छोड़कर भाग गए।" "उन्होंने मुझसे मुफ़्त अदावत की ।" क्योंकि उसने किसी तरह का ज़ुल्म ना किया और उस के मुँह में हरगिज़ छल ना था। लेकिन ख़ुदावंद को पसंद आया कि उसे कुचले । उसने उसे ग़मगींन किया ।"

सलीब की तन्हाई का बयान करते हुए राबर्ट किबल कहता है:—

"मेरा ख़्याल है कि वो यक़ीनी तौर पर अपने तजुर्बात-ए-ज़िंदगी को ज़ाहिर कर रहा था। ऐसे तजुर्बे जो उस वक़्त तक उस मर्द-ए-ग़मनाक ने ख़ामोशी के साथ हासिल किए होंगे। इसमें कुछ शक नहीं कि सलीब पर वो ज़्यादा शदीद मालूम हुए होंगे । वो तन्हा मर्द जो दुनिया से इसलिए रद्द किया गया क्योंकि वो गुनाह से मुबर्रा था। ख़ुदा से इसलिए रद्द किया जाता है क्योंकि वो गुनाह बना। आह ! ये कैसी मुहब्बत है जो क़ियास से बालातर है।

आह ! उस की तन्हाई की फ़तह कैसी अजीबो-गरीब है ! उस नौवें घंटे में येसु हमारा ख़ुदावंद दुनिया में ऐसी तन्हाई की हालत में था जो इन्सान के इदराक व फ़हम से बाहर है !"


“मुल्क-ए-मिस्र के बादशाही मक़बरों के कुतबों और मनक़ोशात पर जगह जगह ज़िंदगी की कुंजी (मिफ़्ताह-उल-हयात) का निशान देखा जाता है। अजीब बात है कि वो निशान सलीब की शक्ल में है। जब हम अपनी गोल मेज़ों के चौगिर्द बैठे थे तो यकायक हमारे दिलों में ये ख़्याल गुज़रा कि सलीब ही मिफ़्ताह-उल-हयात है और यहां ज़ेरे सलीब हमने तमाम अश्या की माहीयत पर ग़ौर किया। हमने ये महसूस किया कि इसमें यानी सलीब ही में आलम मौजूदात की हक़ीक़त हम पर रोशन होती है और अगर हमारी रसाई उस दुख और तक्लीफ़ तक हो जाएगी जो सलीब में मख़्फ़ी है तो हम ज़िंदगी के मआनी को समझ सकेंगे।

बला-रैब मसीह एक राज़ है और इस का हल उस की क़ुर्बान होने वाली रूह में मौजूद है और वो राज़ हल भी कहाँ होता है ? सलीब पर ! इसका समझना मसीह को समझना है। मसीह को समझना ख़ुदा को समझना है। और ख़ुदा को समझना आलम-ए-मौजूदात और ज़िंदगी के मआनी को समझना है। पस सलीब ही वो वाहिद कुंजी है जिसको अगर मैं अपने हाथ से जाने दूं तो पशेमान हो जाता हूँ और कायनात का राज़ मुझ पर नहीं खुलता। लेकिन इस कुंजी को अपने क़ब्जे और अपने दिल में रखते हुए में उस राज़ को मालूम करने पर क़ादिर हूँ।"

(इक़तिबास अज़ "क्राइस्ट ऐट दी राउंड टेबल" मिन तस्नीफ़ ई स्टैनली जोन्स)