इस्लाम में क़ुरआन
فَسْــَٔـلُوْٓا اَهْلَ الذِّكْرِ اِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْن
क़ुरआन कि सेहत व दुरुस्ती कि तहकी़क़
अज़
पादरी डब्ल्यू गोल्डसेक साहब
पंजाब रिलिजस बुक सोसायटी
अनारकली-लाहौर
1952 ईस्वी
The Qur'an in Islam
Rev William Goldsack
Australian Baptist Missionary and Apologist
1871–1957
इस्लाम में क़ुरआन
तमहीद
दीन-ए-इस्लाम की बुनियाद क़ुरआन शरीफ़ पर है । अहले इस्लाम इस किताब की बदरजा गायत ताज़ीम व तकरीम करते हैं और उन के दर्मियान क़ुरआन शरीफ़ बड़े बड़े आला अलक़ाब से मुलक्क़ब भी है। चुनांचे अज्जुम्ला ,फुर्क़ान, क़ुरआन-ए-मजीद, क़ुरआन शरीफ़ और अल-किताब बहुत बड़े बड़े अलक़ाब हैं । तमाम दुनिया के मुसलामानों का ये एतिक़ाद है कि "क़ुरआन ग़ैर-मख्लूक़ कलाम-ए-ख़ुदा है" जो उस ने जिब्राईल फ़रिश्ते की मार्फ़त अपने बंदे और रसूल हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल फ़रमाया।बहुतों का ख़याल है कि क़ुरआन की अरबी बेनज़ीर और मुम्तना उल-मिसाल है। हज़रत मुहम्मद ने ख़ुद कुफ़्फ़ार से कहा कि अगर तुम क़ुरआन को कलाम-अल्लाह तस्लीम नहीं करते और इख्तरा-ए-इन्सानी जानते हो तो तुम भी इस की मानिंद बना कर दिखलाओ। चुनांचे सुरह बक़रा की 23 वीं आयत में मर्क़ूम है :-
وَإِن كُنتُمْ فِي رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلَى عَبْدِنَا فَأْتُواْ بِسُورَةٍ مِّن مِّثْلِهِ وَادْعُواْ شُهَدَاءكُم مِّن دُونِ اللّهِ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ
यानी अगर तुम शक में हो उस कलाम से जो उतारा हमने अपने बंदे पर तो लाओ एक सूरत इस किस्म की और बुलाओ जिनको हाज़िर करते हो अल्लाह के सिवा अगर तुम सच्चे हो"।
बेशक इस में तो कलाम नहीं कि क़ुरआन के बाअज़ मुक़ामात की अरबी निहायत ही उम्दा और सुस्ताह है और तमाम जहान के मुसलमान उसे निहायत इश्तियाक़ से गा-गा कर पढ़ते हैं।
तमाम क़ुरआन को हिफ़्ज़ करना कार-ए-अज़ीम और कार-ए-सवाब ख़याल किया जाता है।
अगर मतन क़ुरआन पर बग़ौर नज़र की जाये तो साफ़ मालूम हो जाता है कि मज़ामीन मुन्दरिजाह क़ुरआन बहुत ही मुख़्तलिफ़ व मुतशत्ततह हैं लेकिन उस में ज़्यादा तर यहूदी और मसीही अदयान का ज़िक्र है । इन अदयान के बारे में जो कसीर-उल-तादाद हवालेजात पाए जाते हैं इन से साफ़ अयाँ है कि हज़रत मुहम्मद ने अपने तेईं किसी नई मिल्लत का बानी इस क़दर क़रार नहीं दिया जिस क़दर कि पुराने इब्राहिमी दीन का फैलाने वाला। इलावा-बरें आँहज़रत ने दीन-ए-यहूद और दीन-ए-ईसवी के बारे में जो कुछ बयान किया है यहूद नसारा की किताबों के हक़ में जो शहादत दी है इस से बकमाल सराहत ये नतीजा निकलता है कि क़ुरआन, तौरेत व इंजील की तंसीख़ नहीं बल्कि ताईद व तस्दीक़ करता है। क़ुरआन में ऐसी आयात बकसरत मिलती हैं जिनमें तौरेत व इंजील की बड़ी तारीफ़ व तौसीफ़ की गई है और उन को ईमान व इंक़ीयाद की हक़दार क़रार दिया है। लेकिन बड़े ताज्जुब की बात है कि बा-अन्हुमा ज़माना-ए-हाल के मुसलमान बिलाइत्तिफाक़ इन किताबों को मुहर्रफ़ यानी तहरीफ़ शूदा और पाया एतबार से गिरी हुई ख़याल करते हैं । इस का सबब अज़हर-मिन-श्शम्स है क्योंकि अगर मसीही और मुहम्मदी कुतुब-ए-दीन का बग़ौर मुताला व मुक़ाबला किया जाये तो बख़ूबी ज़ाहिर हो जाएगा कि क़ुरआन बावजूद यक कतुब-ए-साबिक़ा का मुस्दक़ होने का मुद्दई है उन की तालीमात की बहुत मुख़ालिफ़त करता है । पस अहले इस्लाम ने मजबूरन मुनासिब जाना कि इस मुख़ालिफ़त का कोई माक़ूल सबब तराशें चुनांचे उन्हों ने ये कहना शुरू कर दिया कि तौरेत व इंजील तहरीफ़ शूदा हैं । अगरचे ज़माना-ए-हाल के मुसलामानों ने कभी इस अम्र पर ग़ौर नहीं किया कि जब रसूल अरबी ने अपनी फ़साहत-ओ-बलाग़त से अहले-अरब के दिलों को खींच लिया था उस वक़्त से अब तक क़ुरआन में कुछ तहरीफ़ व तख़रीब वाक़ेअ हुई या नहीं तो भी अगर अरबी इल्म-ए-अदब व तवारीख़ से थोड़ी सी वाक़फ़ीयत भी हासिल हो तो ये राज़ साफ़ मुनकशिफ़ हो जाता है और यह हक़ीक़त निहायत वाज़ेह तौर पर अयाँ हो जाती है कि मौजूदा क़ुरआन फ़िल-हक़ीक़त हरगिज़ हरगिज़ बिल्कुल वही और बे कम व कास्त नहीं है जो कि हज़रत मुहम्मद ने अपने मोमिनीन को सिखाया था । इस रिसाले में हम इस हक़ीक़त को बड़े-बड़े मुसन्निफ़ीन व मुफ़स्सरिन-ए-इस्लाम के अक़्वाल और उनकी तहरीरात से साबित करेंगे कि हज़रत मुहम्मद के वक़्त से लेकर क़ुरआन की इस क़दर तहरीफ़ व तख़रीब और कांट छांट होती चली आई है कि अब उस को बिल्कुल सही व सालीम और बिल्कुल आँहज़रत का तालिमकर्दाह क़ुरआन तस्लीम करना अम्रे मुहाल है ।