बाब शुशम
शहादत-ए-अहादीस दरबारा क़ुरआन
नाज़रीन को याद होगा कि हज़रत उस्मान ने एक नुस्खा-ए-क़ुरआन तालीफ़ करवा के राइज किया और दीगर नुस्खे़ जहां तक दस्तयाब हो सके जमा करके जला दिए । इस फे़अल के सबब से शीया लोग हमेशा उसे जाबिर समझते चले आए हैं और उस के इस फे़अल को बहुत बुरा जानते हैं। वो कहते हैं कि जिन इबारात-ए-क़ुरआनी में हज़रत अली और उस के ख़ानदान की अज़मत व बुज़ूर्गी का बयान था वो सब उस्मान ने क़ुरआन से ख़ारिज कर दी हैं। एक पूरी सुरह मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस सुरह में हज़रत अली की फ़ज़ीलत और बुजु़र्गी का बहुत ज़िक्र है। ये "सुरह अल-नुरैन" यानी दो नूर के नाम से मशहूर है और उस से हज़रत मुहम्मद और हज़रत अली मुराद हैं । चुनांचे ये सुरह "तहक़ीक़ अल-ईमान" के ग्यारवें से तेरहवें सफ़ा तक मुफ़स्सिल मुंदरज है। ग़ालिबन ये सुरह अली के तालीफ़ कर्दा क़ुरआन में से है लेकिन वो क़ुरआन ही मफ़क़ूद है ताहम शीया लोगों का एतिक़ाद है कि जब इमाम मह्दी यानी आख़िरी इमाम ज़ाहिर होगा तो फिर पूरा क़ुरआन दुनिया को दिया जाएगा।
अहादीस के मुताला से साफ़ अयाँ होता है कि हज़रत मुहम्मद के अय्याम का क़ुरआन इस मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन से बहुत बड़ा था। चुनांचे हिशाम ने अबी अब्दुल्लाह से एक हदीस की यूं रिवायत की है। "ان القران الذی جا بہ جبریل الیٰ محمد صلی اللہ " — علیہ وسلمہ سبعتہ عشرالف ایات यानी" जो क़ुरआन जिब्रईल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास लाया इस में सत्तर हज़ार आयात थीं"। लेकिन बैज़ावी के बयान के मुताबिक़ मौजूदा क़ुरआन में फ़क़त छः हज़ार दो सौ चौंसठ (6264) आयात हैं। लिहाज़ा इस मुन्दरिजाह बाला हदीस से मालूम होता है कि मौजूदा क़ुरआन असली क़ुरआन के क़रीबन दो सलस के बराबर है। इस मज़मून पर और अहादीस भी हैं। चुनांचे एक हदीस में यूं मर्क़ूम है
محمد بن نصر عندانہ قال کان فی لمہ یکن اسمہ سبعین رجالامن قریش باسماء ھمہ واسماء آباھ
यानी मुहम्मद इब्न नस्र ने सुना कि अबी अबदुल्लाह ने कहा कि सुरह लम-यकुन (لمہ یکن) में क़ुरैश में से सत्तर आदमीयों के नाम उन के आबा के नामों के साथ मुंदरज थे"। लेकिन ये सत्तर नामों की फ़हरिस्त मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस से साफ़ अयाँ है कि ये फ़हरिस्त इस क़ुरआन में मौजूद थी जो अब नहीं मिलता और जिसकी तरफ़ मुन्दरिजाह बाला हदीस इशारा करती है।
जलाल-उद्दीन की मशहूर किताब इत्तिक़ान में मर्क़ूम है कि "सुरह अहज़ाब में एक ऐसी आयत मौजूद थी जिसमें ज़िना की सज़ा मुंदरज थी। ये मशहूर आयत जो कि आयत अल-रज्म के नाम से नामज़द है अहादीस में इस का अक्सर ज़िक्र मिलता है और इस में ज़रा भी शक नहीं कि किसी वक़्त ये आयत क़ुरआन में दाख़िल थी। चुनांचे इत्तिक़ान में यूं मुंदरज है :—
"فیھا آیتہ الرجمہ قال وماالرجمہ قال اذارینا الشیخ والشیختہ فارجموھا "
यानी" इस में (सुरह अहज़ाब में) आयत रज्म थी। इस ने (इब्न-काब ने ) कहा और रज्म क्या है? इस ने (इब्न हब्श ने) कहा अगर कोई शादीशुदा मर्द या औरत ज़िना करे तो उन को संगसार करो"।
ये आयत मौजूदा क़ुरआन से मफ़क़ूद है लेकिन इस अम्र की काफ़ी से ज़्यादा शहादत मौजूद है कि ये आयत असली क़ुरआन में शामिल थी। मस्लन लिखा है कि उमर उसे फ़िल-हक़ीक़त क़ुरआन का हिस्सा जानता और मानता था लेकिन चूँकि किसी क़ारी-ए-क़ुरआन ने उसके ख़याल की ताईद व तस्दीक़ ना की इस लिए इस ने उसे क़ुरआन में दाख़िल करने से इन्कार किया। चुनांचे किताब फ़तह-अल-बारी में यूं मर्क़ूम है :—
بقول عمر ھذا انہ کانت عندہ شہادت فی آیتہ الرجم انھا من القرآن فلمہ یلقحھا بنض
المصحف بشھادت وحدہ
"यानी उमर ने बयान किया कि इस के पास इस अम्र की शहादत थी कि आयत अलरज्म जुज़ुव क़ुरआन है लेकिन चूँकि किसी और ने इस की शहादत की ताईद ना की इस लिए वो उसे क़ुरआन में दाख़िल करने की जुरआत ना कर सका"। इन अहादीस से साबित होता है कि हज़रत मुहम्मद के ज़माना के हाफ़ज़ान क़ुरआन के हाफ़िज़ा की मुबालग़ा आमेज़ तारीफ़ से कुछ ख़ारिज करना चाहिए क्योंकि ये आयत फ़िल-हक़ीक़त जुज़्व क़ुरआन थी लेकिन इस हक़ीक़त की तस्दीक़ एक हाफ़िज़ ने भी ना की। आँहज़रत की निहायत अज़ीज़ बीवी हज़रत आईशा की शहादत आयत अल-रज्म के बारे में कई अहादीस में मुंदरज है चुनांचे एक हदीस में यूं मर्क़ूम है:—
قالت عائشتہ کانت الاحزاب نفرفی زمن رسول اللہ مایتی آیتہ فلما کتب عثمان المصاحف مایقدر الاعلیٰ مااثبت وکان فیھا آیتہ الرجمہ
यानी सुरह अहज़ाब जो मैं पढ़ती थी ना-मुकम्मल थी। रसूलुल्लाह के ज़माना में इस में दो सौ आयात थीं और जब उस्मान ने क़ुरआन लिखा तब उस ने कोई आयत क़बूल ना की जिसकी ताईद व तस्दीक़ शहादत से ना हुई हो और आयत अल-रज्म भी ऐसी ही थी"।
आँहज़रत की अज़ीज़ तरीन बीवी की इस शहादत से मौजूदा क़ुरआन के ना-मुकम्मल होने के बारे में मुन्दरिजाह बला बयानात की निहायत सफ़ाई व सराहत के साथ तस्दीक़ होती है क्योंकि हज़रत आईशा के बयान के मुताबिक़ हज़रत मुहम्मद के ज़माने में सुरह अहज़ाब में दो सौ आयात थीं दरहांलाकि मौजूदा क़ुरआन के मुताबिक़ फ़क़त तिहत्तर 73 आयात हैं। फिर हज़रत आईशा हज़रत उमर की शहादत से मुत्तफ़िक़ हो कर कहती हैं कि इस सुरह में आयत अल-रज्म थी लेकिन मौजूदा क़ुरआन में इस आयत का कहीं नामोनिशान तक नहीं मिलता। फिर किताब मुहाजिरात की मुन्दरिजाह एक हदीस से भी इस मशहूर आयत की गुम-गश्तगी का पता मिलता है। चुनांचे लिखा है:—
عن عائشتہ قالت لقد نزلت آیتہ الرجمہ ورضاعتہ الکبیر عشر القد کان صحیفتہ تحر سریری فلما مات رسول اللہ صلعمہ وتشا غلنا بموتہ دخل واجن فا کلھا
यानी आईशा ने बयान किया कि आयत अल-रज्म और आयत अल-रज़ाअत नाज़िल हुईं और लिखी गईं लेकिन काग़ज़ मेरे तख़्त के नीचे था और जब रसूलुल्लाह सलअम ने वफ़ात पाई और हम उन की तजहीज़ व तकीफ़न में मशग़ूल थे एक बकरी घर में आ घुसी और उसे खा गई!
अब इस आयत के बारे में कुछ और लिखने की ज़रूरत नहीं। अब भी अगर नाज़रीन इन तमाम हक़ीक़तों को पढ़ कर जिन को हम कलमबंद कर चुके हैं क़ुरआन की ईलाही हिफ़ाज़त के दआवे को बे-बुनियाद ना समझें तो ज़रूर या तो वो इल्मी पहलू से बिल्कुल बे-बहरा हैं या तास्सुब ने उन की चश्म-ए-बसीरत पर तारीकी का पर्दा डाल रखा है। मबादा कोई हमारे इस बयान को मुबालग़ा आमेज़ तसव्वुर करे हम चंद अहादीस मोतबरा और भी नक़ल करते हैं जिनसे साबित हो जाएगा कि हम निहायत साफ़ तौर से हक़ायक़ पेश कर रहे हैं। चुनांचे इब्न उमर की एक निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ हदीस में यूं मर्क़ूम है:—
عن ابن عمر قال لایقولو احد کمہ قداحذت القرآن کلمہ قدذھب منہ قرآن کثیر ولکن یقل قد اخذت ماظہر منہ
यानी इब्न उमर ने कहा तुम में से कोई ये ना कहे कि मैंने तमाम क़ुरआन पा लिया है क्योंकि जो क़ुरआन मालूम है वो तमाम व कामिल नहीं है और बहुत से हिस्से गुम हो गए हैं लेकिन यूं कहना चाहिए कि मेरे पास इतना क़ुरआन है जितना कि मालूम व महफूज़ है"।
फिर एक और हदीस में यूं मुंदरज है :—
بن جیش قال ابی بن کعب کاین تعد سورہ الاحزاب ؟ قلت اثنین وسبعین ایتہ اوثلاثاو سبعین ایتہ قال ان کانت لتعدل سورہ البقر
यानी इब्न जैश ने बयान किया कि इब्न काब ने कहा सुरह अहज़ाब में कितनी आयात हैं? मैंने कहा 72, या 73, इस ने कहा सुरह अहज़ाब सुरह बक़रा के बराबर थी"।
ये मशहूर हदीस जलाल-उद्दीन अलसीवती की मशहूर तसनीफ़ इत्तिक़ान में मुंदरज है। इस से मालूम होता है कि सुरह अहज़ाब जिसमें अब 72, या 73 आयात हैं किसी वक़्त में सुरह अल-बक़रा के बराबर थी जिसमें 286 आयात हैं। पस साफ़ ज़ाहिर है कि इस एक सुरह से 200 से ज़्यादा आयात गुम हो गई हैं।
फिर इब्न अब्बास की एक निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ हदीस में यूं मर्क़ूम है:—
قال سالت علی بن ابی طالب لمہ لمہ یکتب قی براة بسم اللہ الرحمن الرحیمہ؟ قال انھا امان وبراةمنزلت بالسیف وعن مالک ان اولھا لما سقط مع ابسم اللہ فقد ثبت انھا کانت تعدل بقرة لطولھا
यानी इब्न अब्बास ने कहा मैंने अली इब्न अबी तालिब से पूछा कि सुरह बरात क्यों बग़ैर बिस्मिल्लाह लिखी गई ? इस ने कहा इस लिए कि बिस्मिल्लाह ईमान के लिए और सुरह बरात जंग के लिए नाज़िल हुई है। और मालिक की एक हदीस से साबित होता है कि जब इस सुरह का पहला हिस्सा गुम हो गया तो बिस्मिल्लाह भी इस के साथ ही जाती रही लेकिन ये बात साबित शूदा है इस की लंबाई सुरह बक़रा के बराबर थी"।
इलावा-बरें मुस्लिम की जमा कर्दा अहादीस में से एक में मर्क़ूम है कि क़ारी क़ुरआन अबू मूसा नामी ने बसरा के क़ारियने क़ुरआन की एक जमात से मुख़ातब हो कर। यूं कहा :—
اناکنا نقداسورہ کنا نسشبھامافی الطول والشدہ ببراة فاینتھا غیرانی قد حفظت منھا وکنا نقرا سورہ کنا نشبھا باحد من السبحان فاینتھا غیرانی قد حفظت منھا
यानी" हम एक सुरह पढ़ा करते थे जो तुल और जज़ो-तोबीख़ में सुरह बरात के बराबर थी पर वो मेरी याद से जाती रही। सिर्फ एक आयत मुझे याद है...फिर हम एक और सुरह भी पढ़ा करते थे जो कि मसब्बहात में से एक के बराबर थी उस की मुझे एक ही आयत याद है कि बाक़ी सब भूल गईं। इस मुक़ाम पर ये कहना ज़रूरी नहीं मालूम होता कि इन सूरतों में से कोई भी हज़रत उस्मान के तालीफ़ कर्दा क़ुरआन में नज़र नहीं आती।
फिर निहायत मशहूर-ओ-मारूफ़ मुहद्दिस अलबुख़ारी की तवारीख़ में एक हदीस से साबित होता है कि सुरह अहज़ाब से बहुत सी आयात बिल्कुल ग़ायब व मफ़क़ोद हैं। चुनांचे यूं मर्क़ूम है :—
واخرج البخاری فی تاریخہ عن حذیفتہ قال قرات سورہ الحزاب علی النبی فلسیت منھا سبعین آیتہ ماوجد تھا"
यानी और बुख़ारी ने अपनी तवारीख़ में एक हदीस हुज़ैफ़ा से लिखी है कि इस ने कहा मैं नबी के सामने सुरह अहज़ाब पढ़ रहा था लेकिन इस की सत्तर(70) आयत भूल गईं और फिर कभी दस्तयाब ना हुईं।
इस किताबचा को ख़त्म करने से पहले एक और हदीस क़ाबिल इंदिराज है। इस में बजाय माज़ी के क़ुरआन की आइन्दा तवारीख़ का बयान है।
चुनांचे इब्न माजा यूं बयान करता है:—
عن حذیفہ بن الیمان قال رسول اللہ صلعمہ یدرس الا سلام کماید رس وشق الثوب حتی الایدرک ماصیام ولا صلواة لانسک ولا صدقتہ ولیسری علی کتاب اللہ عزوجل فی لیلتہ فلایبقی فی الارض منہ آیہ
यानी हुज़ैफ़ा इब्न यमान ने कहा रसूलुल्लाह सलअम ने फ़रमाया कि इस्लाम पोशाक के दामन की तरह कुहना व बोसीदा हो जाएगा यहां तक कि लोग नमाज़ व रोज़ा और सदक़ा व खैरात से बिल्कुल बे-ख़बर हो जाएंगे और एक रात को कलाम-उलल्लाह बिल्कुल ग़ायब हो जाएगा और उस की एक आयत भी रुए ज़मीन पर बाक़ी नहीं रहेगी"।
जो अहादीस हम नक़ल कर चुके हैं उन के बारे में हम कुछ और नहीं कहना चाहते। इन से निहायत सफ़ाई व सराहत के साथ और काफ़ी तौर से हर एक मुंसिफ़ मिज़ाज हक़ जोई पर रोशन हो जाएगा कि मतन क़ुरआन की मौजूदा हालत कैसी है। अहले इस्लाम को उमूमन ये तालीम दी जाती है कि क़ुरआन को ईलाही हिफ़ाज़त हर तरह के तग़य्युर व तबद्दल से महफ़ूज़ रखती है बल्कि क़ुरआन ख़ुद इस अज़ीम दावा का मुद्दई है चुनांचे लिखा है:—
"यक़ीनन हमने क़ुरआन को नाज़िल किया और हम ज़रूर उस को महफ़ूज़ रखेंगे"।
फिर एक और मुक़ाम पर मुंदरज है" ये किताब जिसकी आयात तख़रीब व तहरीफ़ से महफ़ूज़ हैं.... ख़ुदाए हकीम व अलीम की तरफ़ से बवसीला वही भेजी गई है"। अहादीस में भी इसी किस्म के लगू व लायानी दआवे मुंदरज हैं। चुनांचे किताब फ़ज़ाइल उल-क़ुरआन में मर्क़ूम है कि अगर क़ुरआन आग में डाल दिया जाये तो आग उस को हरगिज़ ना जलाईगी।
जो शवाहिद व दलाइल इस किताबचा में उलमाए इस्लाम और कतुब-ए-इस्लाम से पेश किए गए हैं उनकी रोशनी में नाज़रीन ख़ुद इन्साफ़ से देख लें कि क़ुरआन की सेहत व दुरुस्ती के मज़कूरा बाला दआवे की क्या हक़ीक़त है इस से साफ़ अयाँ हो जाएगा कि क़ुरआन ईलाही हिफ़ाज़त में महफ़ूज़ होने का मुद्दई बनने मैं ख़ुद अपनी बीख़-कनी करता है। और इन्सानी ईजाद व इख़तराअ साबित होता है। अगर नाज़रीन इस अहम मज़मून पर ज़ाइद आगही के ख्वाहिशमंद हों तो पंजाब ट्रेक्ट सोसाइटी लाहौर से उर्दू ज़ुबान में हिदायत-अलमुस्लिमीन, मीनार उल-हक़, मीज़ान उल-हक़, तहक़ीक़ अल-ईमान, तहरीफ़-ए-क़ुरआन और तावील उल-क़ुरआन मंगवाकर मुताला करें और इस मज़मून का निहायत सरगर्मी से पीछा करें क्योंकि जिनके ख़्यालात व तसानीफ़ का हमने ज़िक्र किया है वो दीन इस्लाम के अव्वल दर्जे के उल्मा में से हैं और जो कुछ उन्हों ने तहरीर किया है और शहादत दी है इस की तहक़ीर व तख़फ़ीफ़ करना हरगिज़ हरगिज़ मुनासिब नहीं है। हम देख चुके हैं कि क़ाज़ी बैज़ावी, इमाम हुसैन, मुस्लिम, बुख़ारी और जलाल-उद्दीन जैसे उलमा रासख़ीन इस्लाम ने क़ुरआन के बारे में क्या कहा है। हम ये भी देख चुके कि ख़ुद हज़रत मुहम्मद की हिन्-ए-हयात ही में क़ुरआन में इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत पैदा हो गया था। हम ये भी मालूम कर चुके हैं कि इख्तिलाफात-ए-क़िरअतहाए क़ुरआन को दूर कर के एक क़िरअत की तरवीज की कोशिश का नतीजा हमेशा नाकामयाबी ही हुआ। हमने ये भी दर्याफ्त किया है कि हज़रत उस्मान की तस्दीक़ व तरदीद और हज़रत अबू-बक्र की तजदीद व तसहीह इब्न मस्ऊद के क़ुरआन से कहाँ तक मुख़्तलिफ़ व मतफ़ावत थी। इलावा-बरें हमने बड़े बड़े मुफ़स्सिरीन-ए-इस्लाम की तफ़ासीर से मालूम कर लिया है कि मौजूदा क़ुरआन में इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत बकसरत मौजूद है जिससे अक्सर मुक़ामात पर आयात के मआनी बिल्कुल तबदील होजाते हैं और आख़िर में हमने ये भी देख लिया है कि अहादीस से ये मुत्तफ़िक़ा शहादत मिलती है कि क़ुरआन के बहुत से बड़े बड़े हिस्से बिल्कुल मफ़क़ूद हैं। इस हालत में अहले इस्लाम के लिए निहायती मुनासिब और बड़ी दानाई की बात है कि अहले-ए-किताब की इन कुतुब मुक़द्दसा की तरफ़ रुजू लावें जिन पर ईमान व अमल की ख़ुद हज़रत मुहम्मद साहिब ने ताकीद की है। लारयब ये किताबें हज़रत मुहम्मद के अय्याम में तख़रीब व तहरीफ़ से पाक थीं जैसा कि आँहज़रत के मुतवातिर हवालेजात से साफ़ ज़ाहिर होता है । इस में भी किसी तरह के शक व शुबह को जगह नहीं कि आँहज़रत के ज़माने से अब तक उनमें तहरीफ़ नहीं हुई क्योंकि यूरोप के बड़े बड़े अजाइब ख़ानों में वो नुस्खे़ अब तक मौजूद हैं जो हज़रत मुहम्मद के ज़माने से बहुत अरसा पेशतर के लिखे हुए हैं और उन में और ज़माना हाल की मुरव्वजा अनाजील में मुवाफ़िक़त व मताबक़त-ए-कुल्ली है।
इस किताबचा के पढ़ने वाले को चाहिए कि इस को पढ़ कर बंद करने से पेशतर उस के सर-ए-वर्क़ को ज़ीनत देने वाली आयत-ए-क़ुरआनी पर ख़ूब ग़ौर व फिक्र करे। वो आयत कहती है :—
अगर तुम नहीं जानते हो तो अहले ज़िक्र से पूछ लो"।
ए मुसलमान पढ़ने वाले क्या आपके लिए ये अव़्वल दर्जे की दानाई की बात नहीं है कि आप क़ुरआन की इस तालीम को मानें और अनाजील में राह-ए-हयात को तलाश करें? ना सिर्फ अहले इस्लाम को यह हिदायत होती है कि मसीही दीन की कतुब मुक़द्दसा से अपने शकूक रफ़ा करें बल्कि ख़ुद हज़रत मुहम्मद को भी क़ुरआन यही हिदायत देता है। चुनांचे सुरह यूनुस की 94 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—
فَإِن كُنتَ فِي شَكٍّ مِّمَّا أَنزَلْنَا إِلَيْكَ فَاسْأَلِ الَّذِينَ يَقْرَؤُونَ الْكِتَابَ مِن قَبْلِكَ
यानी सो अगर तू हे शक में इस चीज़ से जो उतारी हमने तेरी तरफ़ तो पूछ उन से जो पढ़ते हैं किताब तुझसे आगे"।
हम बख़ूबी ये दलायल व बराहीन देख चुके हैं कि मौजूदा क़ुरआन काबिल-ए-एतिमाद व वसुक नहीं है। पस अहले-ए-इस्लाम को चाहिए कि दिलेरी व मुसम्मम इरादे के साथ अनाजील की तरफ़ मुतवज्जा हों और उन से ख़ुदा की इस अजीब मुहब्बत को दर्याफ्त करें जो इस ज़ूलजलाल ने सय्यदना मसीह में ज़ाहिर फ़रमाई है। सय्यदना मसीह ख़ुद फ़रमाते हैं कि :—
"ज़मीन वा समान टल जाएंगे लेकिन मेरी बातें हरगिज़ ना टलेंगी"।
ख़ुदा के अख़लाक़ और उस की मर्ज़ी का पूरा और कामिल इज़हार सिर्फ़ इंजील ही में नज़र आता है और सिर्फ इंजील ही में मर्क़ूम है कि ख़ुदा ने जहान से ऐसी मुहब्बत रखी कि इस ने सय्यदना ईसा मसीह को दे दिया ताकि जो कोई उस पर ईमान लाए हलाक ना हो बल्कि हमेशा की ज़िंदगी पाए। ए पढ़ने वाले इस नजातदिहंदा के मुहब्बत भरे अल्फाज़ पर कान लगा और सुन कि वो ख़ुद फ़रमाता है कि "ए तुम सब लोगो जो थके और बड़े बोझ से दबे हुए हो मेरे पास आओ और मैं तुम्हें आराम दूंगा। मेरा जुआ उठालो । और मुझ से सीखो क्योंकि मैं दिल से ख़ाकसार हूँ और तुम अपने जुओ में आराम पाओगे क्योंकि मेरा जुआ मुलाइम और मेरा बोझ हल्का है"