बाब अव़्वल
हफ़्त क़िरअत-ए-क़ुरआन
हज़रत मुहम्मद ने तमाम क़ुरआन एक वक़्त पर मजमूई सूरत में यक-बारगी पेश नहीं किया बल्कि हस्बे-मामूल और हस्बे-ज़रूरत थोड़ा थोड़ा करके सुनाया और इस तरह से इस की तब्लीग़ में क़रीबन तेईस 23 साल लगे फिर यह बात भी क़ाबिल लिहाज़ है कि आँहज़रत के पहले मोमिनीन ने सब का सब कलमबंद नहीं किया । बाअज़ हिस्से हिफ़्ज़ किए गए और बाअज़ खजूर के पत्तों, पत्थर की तख़्तीयों और चमड़े वग़ैरा पर लिखे गए । थोड़े ही अर्से में सख़्त इख्तलाफ़ात क़ायम हो गए और अहादीस से मालूम होता है कि क़िरअत-ए-क़ुरआन में बड़े बड़े तबाही ख़ेज़ इख्तिलाफ़ात पैदा हो गए । ये इख्तिलाफ़ (जैसा कि बाअज़ ख़ुश एतिक़ाद मुसलमान ख़याल करते हैं) महज़ तलफ़्फ़ुज़ ही के इख्तिलाफ़ नहीं थे । अहादीस की निहायत मशहूर किताब मिश्कात-अल-मसाबीह के एक बाब दरबाराह फ़ज़ाइल अल-क़ुरआन में यूं मर्क़ूम है :-
" أَخْبَرَنَا أَبُو الْحَسَنِ الشِّيرَزِيُّ ، أَخْبَرَنَا زَاهِرُ بْنُ أَحْمَدَ ، أنا أَبُو إِسْحَاقَ الْهَاشِمِيُّ ، أَخْبَرَنَا أَبُو مُصْعَبٍ ، عَنْ مَالِكٍ ، عَنِ ابْنِ شِهَابٍ ، عَنْ عُرْوَةَ بْنِ الزُّبَيْرِ ، عَنْ عَبْدِ الرَّحْمَنِ بْنِ عَبْدٍ الْقَارِئِ ، أَنَّهُ قَالَ : سَمِعْتُ عُمَرَ بْنَ الْخَطَّابِ ، يَقُولُ : سَمِعْتُ هِشَامَ بْنَ حَكِيمِ بْنِ حِزَامٍ يَقْرَأُ سُورَةَ الْفُرْقَانِ عَلَى غَيْرِ مَا أَقْرَؤُهَا ، وَكَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَقْرَأَنِيهَا ، فَكِدْتُ أَنْ أَعْجَلَ عَلَيْهِ ، ثُمَّ أَمْهَلْتُ حَتَّى انْصَرَفَ ثُمَّ لَبَّبْتُهُ بِرِدَائِهِ ، فَجِئْتُ بِهِ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ ، فَقُلْتُ : إِنِّي سَمِعْتُ هَذَا يَقْرَأُ سُورَةَ الْفُرْقَانِ عَلَى غَيْرِ مَا أَقْرَأْتَنِيهَا ، فَقَالَ لَهُ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : " اقْرَأْ " , فَقَرَأَ الْقِرَاءَةَ الَّتِي سَمِعْتُهُ يَقْرَأُ ، فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ : " هَكَذَا أُنْزِلَتْ " ، ثُمَّ قَالَ لِي : " اقْرَأْ " فَقَرَأْتُ ، فَقَالَ : " هَكَذَا أُنْزِلَتْ ، إِنَّ هَذَا الْقُرْآنَ أُنْزِلَ عَلَى سَبْعَةِ أَحْرُفٍ ، فَاقْرَءُوا مَا تَيَسَّرَ مِنْهُ " . هَذَا حَدِيثٌ مُتَّفَقٌ عَلَى صِحَّتِهِ ، أَخْرَجَهُ مُسْلِمٌ
"यानी उमर इब्ने खत्ताब ने कहा कि मैंने हिशाम इब्न हकीम इब्न हिज़ाम को सुरह फुर्क़ान पढ़ते सुना । इस का पढ़ना इस से मुख़्तलिफ़ था जो मैं पढ़ता था और जो मुझे रसूलुल्लाह ने सीखाया था । पहले तो मैं ने चाहा कि उसे फ़ौरन रोक दूं फिर मैंने उसे आख़िर तक पढ़ने दिया। इस का दामन पकड़ कर उसे रसूलुल्लाह के पास ले आया और कहा कि या रसूलुल्लाह मैंने इस आदमी को एक और ही तौर पर सुरह फुर्क़ान पढ़ते सुना है । जो कुछ आपने मुझे सिखाया है इस का पढ़ना इस से मुख़्तलिफ़ है । तब रसूल ने मुझसे कहा उसे छोड़ दो । फिर उस से कहा पढ़ो । इस ने इसी तरह पढ़ा जिस तरह मैंने उसे पढ़ते सुना था। इस पर रसूलुल्लाह ने कहा ऐसा ही नाज़िल हुआ है । फिर मुझ से कहा तुम भी पढ़ो । फिर जब मैं पढ़ चुका तो आप ने फ़रमाया कि इस तरह भी नाज़िल हुआ है । क़ुरआन हफ़्त क़िरअत में नाज़िल हुआ था। जिस तरह तुमको आसान मालूम हो उसी तरह पढ़ो ।"
हफ़्त क़िरअत क़ुरआन के बारे में बहुत सी अहादीस हैं और उलमाए इस्लाम ने कई तरह से उन क़िरअत -ए-मुख़्तलिफ़ा का मतलब बयान करने की कोशिश की है लेकिन ताहाल किसी तरह की कामयाबी नसीब नहीं हुई । हफ़्त-ए-क़िरअत का बाहमी तख़ालुफ़ निहायत अज़ीम व ख़तरनाक था क्योंकि निसाई की मर्वी एक हदीस में यूं मर्क़ूम है :-
"उमर ने निहायत साफ़ तौर पर से हिशाम पर अफ़तर परदाज़ी का इल्ज़ाम लगाया और कहा कि तुमने क़ुरआन में बहुत से ऐसे अल्फाज़ दाख़िल कर लिए हैं जो कि रसूलुल्लाह ने हमको कभी नहीं सिखाए "।
फिर एक और हदीस है जिसका रावी मुस्लिम है । इस में मुंदरज है कि इब्न काब ने जो कि क़ुरआन के निहायत मशहूर क़ारीयों में से था दो आदमीयों को नमाज़ पढ़ते सुना जिनका क़ुरआन उस के पढ़ने से मुख़्तलिफ़ था । उस ने रसूलुल्लाह से अर्ज़ की और इस पर आँहज़रत ने फ़रमाया कि दोनों तरह दुरुस्त है। इब्न काब कहता है कि ये सुनकर मेरे दिल में ऐसी बग़ावत पैदा हुई जिसका ज़माना-ए-जाहिलीयत से ले कर कभी ख़याल भी ना हुआ था।
इन अहादीस से साफ़ अयाँ है कि आँहज़रत की हिन-ए-हयात ही में क़ुरआन कई बाहमी मुतखालिफ़ क़िरआतों में पढ़ा जा रहा था और या बाहमी तख़ालुफ़ ऐसा बड़ा था कि फ़ौरन झगड़े पैदा हो गए। बाशिंदगाने हिमस ने अलमक़दाद इब्न अलअसुद की क़िरअत की तक़्लीद की । अहले क़ुफ़ा ने इब्न मस्ऊद की और अहले बसरा ने अबू मुसा की और उन के इलावा और भी कई फ़रीक़ थे । इस के मुताल्लिक़ ये ख़याल करना दुरुस्त नहीं है । कि ये इख्तिलाफ़ अरबी मुहावरात के मुताबिक़ महज़ क़ुरआन पढ़ने ही में थे क्योंकि इस अम्र की काफ़ी शहादत मौजूद है कि ये इख्तिलाफ़ मुख़्तलिफ़ तौर से पढ़ने के इख्तिलाफ़ से बहुत बढ़कर थे । इत्तिक़ान से साफ़ मालूम होता है कि मज़कूरा बाला अस्हाब यानी उमर और हिशाम दोनों क़ुरैशी थे इस ही एक हक़ीक़त से ये नतीजा निकल सकता कि क़ुरआनी क़िरअत का इख्तिलाफ़ मुहावरात का मफ़रूज़ा इख्तिलाफ़ नहीं था । इस रिसाले के बाक़ी अबवाब में हम दिखाएँगे कि क़िरअतहाए क़ुरआन का बाहमी तख़ालुफ़ कैसा बड़ा था और उस के इख़फ़ा के लिए क्या-क्या वसाइल इस्तिमाल किए गए।