बाब पंजुम

शहादत-ए-बैज़ावी बरक़रातहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन

जिन्हों ने मशहूर-ओ-मारूफ़ आलिम वफ़ा ज़ुल क़ाज़ी बैज़ावी की तफ़ासीर को पढ़ा है वो ख़ूब जानते हैं कि इस ने भी कई नुस्खाहाए क़ुरआन में बाहमी तख़ालुफ़ ज़ाहिर किया है। चुनांचे हम जे़ल में इस फ़ाज़िल मुफ़स्सिर की तसानीफ़ से चंद मिसालें पेश करेंगे।

ये अम्र अज़बस हैरत अफ़्ज़ा है कि क़ुरआन की पहली सुरह में जिसके मुहासिन व मनाक़ीब हर वक़्त उलमाए इस्लाम का विर्द ज़ुबान हैं और जिसे हर एक सच्चा मुसलमान अपनी तमाम रोज़ाना नमाज़ों में पढ़ता है। इख्तिलाफ़ क़िरअत मौजूद है और इस इख्तिलाफ़ ने उलमाए इस्लाम को सख़्त मुश्किल में डाल रखा है। चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी ने लिखा है कि पांचवीं आयत में बाअज़ नुस्ख़ों में "सिरात" (صراط) और बाअज़ में "सरात" (سراط) मुंदरज है। लेकिन हर दो क़िरअत को तो सही व दुरुस्त नहीं कह सकते।

फिर उसी सुरह की छठी आयत के बारे में बैज़ावी कहता है कि "सिरात अल्लज़ीना अनअमता अलैहिम" (صرا ط الذین انعمت علیھمہ) का जुमला बाअज़ नुस्ख़ों में "सिरात मन अनअमता अलैहिमा" (صراط من انعمت علیھمہ) मर्क़ूम है। पस उन हक़ीक़तों की मौजूदगी में क़ुरआन की मफ़रूज़ा सेहत व दुरुस्ती के बाब में क्या कहें ? कैसे तस्लीम कर लिया जाये कि क़ुरआन तख़रीब व तहरीफ़ से पाक है? ईलाही मुहाफ़िज़त-ए-क़ुरआन की लाफ़ वगज़ाफ़ की क्या बुनियाद है? क्या ये बात अज़हर-मिन-श्शम्स नहीं है कि क़ुरआन के बाअज़ नुस्ख़ों में "अल-लज़ीना" (الذین) के इवज़ में "मन" (من) लिखा गया है या बाअज़ में "मन" को बिगाड़ कर और बदल कर "अल-लज़ीना" बना लिया गया है।

इलावा-बरें इसी सुरह की आख़िरी आयत के बाब में क़ाज़ी बैज़ावी ने तहरीर किया है कि मुरव्वजा “लाअलज़ालीन" (لاالضالین) बाअज़ नुस्ख़ों में “ग़ैर अल-ज़ालिन" (غیر الضالین) कर दिया गया है। बावजूद येके इन मिसालों में मआनी की तब्दीली नहीं हुई तो भी ये हक़ीक़त साफ़ है कि बाअज़ अल्फाज़ का दीगर अल्फाज़ से तबादला किया गया है लेकिन असल नुस्ख़ा में तो ये मुतखालिफ़ अल्फाज़ मौजूद ना थे। इस से तख़रीब व तहरीफ़ पर साफ़ दलालत होती है।

फिर बैज़ावी बतलाता है कि सुरह बक़रा की इक्कीसवीं आयत में भी तहरीफ़ हुई है ।मुरव्वजा क़िरअत के मुताबिक़ "अबदना" (عبدنا) लिखा है लेकिन बाअज़ नुस्ख़ों में ये लफ़्ज़ बसीग़ा जमा "इबादना" (عبادنا) पाया जाता है। "इबादना" के मुताबिक़ कुल आयत का मतलब ये है कि "अगर तुम शक में हो उस चीज़ (वही) के बारे में जो हम ने अपने बंदों पर नाज़िल की" इस से हज़रत मुहम्मद के इलावा और भी वही क़ुरआनी के पाने वाले ठहरते हैं।

सुरह निसा की पांचवीं आयत में और बड़ी तहरीफ़ मतन क़ुरआन में मौजूद है। चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी लिखता है कि "फइन आनस्तुम" (فان انستمہ) बाअज़ नुस्ख़ों में "फइन अहसतूमा" (فان احستمہ) बना लिया गया है। इस किस्म की तहरीफ़ात मतन क़ुरआन में बेशुमार हैं और उन से साफ़ साबित होता है कि क़ुरआन हरगिज़ हरगिज़ कामिल व दुरुस्त सूरत में मौजूद नहीं है। फ़िउल-हक़ीक़त क़ुरआन में इस क़दर तग़य्युर व तबद्दुल वाक़ेअ हुआ है और इतनी काट छांट वक़ूअ में आई है कि मौजूदा क़ुरआन किसी तरह से काबिल-ए-एतिमाद और रसूल अरबी का अपने मोमिनीन को सिखाया हुआ तस्लीम नहीं किया जा सकता।

फिर बैज़ावी लिखता है कि सुरह निसा की पंद्रहवीं आयत में एक बड़ी तहरीफ़ है। क़ुरआन के मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों में बाहमी तख़ालुफ़ पाया जाता है और यह काबिल-ए-लिहाज़ है। चुनांचे लिखा है "व लहू अव-उख्तुन" (وَّلَہٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ) यानी उस का एक भाई है या बहन" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी बतलाता है कि उबई  और जै़द इब्न-ए-मालिक की क़िरअत के मुताबिक़ दो लफ़्ज़ और ज़रूरी हैं यानी "मन अलाम" (من الام) (एक माँ से) इस आयत की तफ़्सीर में क़ाज़ी साहिब ने यही मअनी क़बूल और बयान किए हैं। पस इन मिसालों से अयाँ है कि बाज़-औक़ात मतन क़ुरआन की तफ़हीम के लिए मुख़्तलिफ़ क़िरअतों के अल्फाज़ आयात-ए-क़ुरआन में दर्ज कर लिए जाते हैं और इस से क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन फिर क़ायम हो जाती हैं।

मतन क़ुरआन की तहरीफ़ की एक और मिसाल सुरह माइदा की 91 वीं आयत में मिलती है। इस में लिखा है कि क़सम के कफ़्फ़ारा में दस ग़रीब आदमीयों को खाना खिलाना चाहिए लेकिन अगर कोई खाना खिलाने की तौफ़ीक़ ना रखता हो तो उस के इवज़ में तीन रोज़े रखे। चुनांचे हाल के मुरव्वजा क़ुरआन में मर्कुम है "फसियामु सलासही अय्याम" (فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ) यानी "तीन दिन का रोज़ा" लेकिन मशहूर-ओ-मारूफ़ इमाम अबूहनीफ़ा यूं पढ़ते हैं "फ़सीयाम सलासा अय्याम मत्तता-बआत (فصیام ثلثہ ایام متتابعات) यानी" पै दरपे तीन दिन का रोज़ा"। ये निहायत बड़ी तहरीफ़ है क्योंकि इस से इस्लाम की शरीयत में तब्दीली वाक़ेअ होती है। इमाम अबू-हनीफ़ा और उन के पैरु पै-दरपे तीन दिन के रोज़े की तालीम देते हैं और क़ाज़ी बैज़ावी और दीगर मुफ़स्सिरीन इस तालीम को ग़लत और मुख़ालिफ़ क़ुरआन समझते हैं। अब इस क़दर ज़माना गुज़र जाने के बाद कौन बता सकता है कि इन मुख़्तलिफ़ क़िरअतों में से कौनसी क़िरअत सही व असली है और कौन सी ग़लत ?

सुरह अनआम की 154 वीं आयत में मर्क़ूम है "व अन्ना हाज़ा सिराती" (وَاَنَّ ھٰذَا صِرَاطِيْ) यानी तहक़ीक़ मेरी राह यही है" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी दो और क़िरअतें बतलाता है। अव्वल "हज़ा सिरात रब्बिकुमा" (ھذا صراط ربکمہ) यानी ये है कि तुम्हारे रब की राह" । दोम "हज़ा सिरात रब्बिका" (ھذا صراط ربک) यानी ये है तेरे रब की राह" । इन तीन किरातों पर नज़र करने से साफ़ मालूम होताहै कि। दूसरी और तीसरी क़िरअत से लफ़्ज़ "इन" (ان) मफ़क़ूद है और दो ज़ाइद अल्फाज़" रब्बिकुमा" (ربکمہ) और" रब्बिक" (ربک) मौजूद हैं। इन हक़ायक़ की मौजूदगी में कुछ ताज्जुब की बात ना थी कि ख़लीफ़ा उस्मान ने इस तरह के अज़ीम तख़ालुफ़ से परेशान व ख़ाइफ़ हो कर क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा के दूर करने और एक आम क़िरअत की तरवीज में कोशिश की अगरचे वो इस मक़सद के हिस्सों में निहायत बुरी तरह से बदनामी के साथ नाकामयाब रहा।

मतन-ए-क़ुरआन के बहुत से तहरीफ़ शूदा फुक्रात से उन के तहरीफ़ करने वालों के बे ढंगे मुहावरात पर साफ़ दलालत होती है। मसलन सुरह ताहा में मर्क़ूम है "क़ाल या बनोइम" (قال یا بنوئم) यानी इस ने (हारून ने) कहा ए मेरी माँ के बेटे" लेकिन सुरह आराफ़ 149 वीं आयत में मर्क़ूम है "क़ाल इब्न उम्म" (قال ابن امہ) यानी इस ने कहा मेरी माँ का बेटा"। इन दोनों फ़िक़्रों को बग़ौर देखने से साफ़ अयाँ हो जाता है कि पहले फ़िक़रे में हस्बेक़ायदा निदा के साथ "या" (یا) हर्फ़-ए-निदा मौजूद है लेकिन दूसरे फ़िक़रे से मफ़क़ूद नज़र आता है। पस अज़हर मन अश्शम्स है कि क़ुरआन की फ़साहत व खूबसूरती को क़ायम रखने के लिए दूसरे फ़िक़रे के साथ भी "या" (یا) हर्फ़-ए-निदा का होना ज़रूर है। क़ाज़ी बैज़ावी लिखता है कि दूसरे फ़िक़रे में हर्फ़-ए-निदा ज़ाइद किया गया है क्योंकि बाअज़ अच्छे मुसलमान फ़साहत-ए-क़ुरआन को बे-ऐब रखने की ग़रज़ से हर्फ़-ए-नदा ज़ाइद करने से बाज़ ना रह सके। चुनांचे क़ाज़ी मज़कूरा का बयान है कि इब्न उमर व हमज़ा, किसाई और अबू-बक्र ने "या इब्न उम" (یا ابن ام) पढ़ा है। लफ़्ज़ "या" (یا) इन मज़कूरा बाला अस्हाब के नुस्ख़ों में पाया गया है लेकिन बहुत से दीगर अल्फाज़ की तरह मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन से मफ़क़ूद है। इस से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ साबित होता है कि मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन बहुत ही मशकूक और ना काबिल-ए-एतिमाद है।

फिर सुरह यूनुस में तहरीफ़-ए-लफ़्ज़ी की एक निहायत बय्यन मिसाल मिलती है। इस में लिखा है कि बहीरा क़ुलज़ुम मैं फ़िरऔन की मौत उस के बाद आने वालों के लिए पनदो नसीहत और इबरत का निशान है। चुनांचे मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन के मुताबिक़ 92 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है "लिमन ख़लफ़क आयता" (لِمَنْ خَلْفَكَ اٰيَةً ) यानी तेरे बाद आने वालों के लिए एक निशान" लेकिन क़ाज़ी बैज़ावी बताता है कि बाअज़ नुस्ख़ों में "लिमन ख़लक़क आयता" (لمن خلقک آیتہ) मर्क़ूम है यानी "तेरे ख़ालिक़ के लिए एक निशान"। इस मुक़ाम पर क़ुरआनी मआनी भी बिल्कुल बदल गए हैं और हर दो क़िरअत में से सही व असल क़िरअत को दर्याफ्त करना परेशान ख़ातिर मुसलमान के लिए नामुमकिन ठहरता है।

इलावा-बरें सुरह कहफ़ की 36 वीं आयत में एक निहायत अज़ीम इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत मौजूद है। चुनांचे मौजूदा मुरव्वजा क़ुरआन में मर्क़ूम है لَّكِنَّا هُوَ اللَّهُ رَبِّي وَلَا أُشْرِكُ بِرَبِّي أَحَدًا यानी" लेकिन अल्लाह मेरा रब है और मैं किसी को अपने रब का शरीक नहीं बनाता"। लेकिन क़ाज़ी बतलाता है कि बाअज़ नुस्ख़ों में यूं मुंदरज है "ولکن ھو اللہ ربی ولکن انالاالہ الاھوربی" यानी लेकिन अल्लाह मेरा रब है, फिर हम ख़ुदा नहीं हैं, वही मेरा रब है"। इस तहरीफ़ के बारे में कुछ कहना फ़ुज़ूल है"। अयाँ राचा बयान"? ख़ुद नज़र-ए-इन्साफ़ से देख लीजिए।

फिर सुरह यासीन की 38 वीं आयत की तफ़ीसर करते हुए क़ाज़ी बैज़ावी एक और तबाही ख़ेज़ तहरीफ़-ए-क़ुरआनी दिखलाता है। चुनांचे मर्क़ूम है “وَالشَّمْسُ تَجْرِي لِمُسْتَقَرٍّ لَّهَا” यानी आफ़ताब अपनी आराममगाह की तरफ़ जाता है"। कोई तालीम-ए-याफ़ता मुसलमान ये नहीं मान सकता कि आफ़ताब दिन को चलता है और रात को आराम करता है लेकिन इस का मतलब यही हो सकता है कि ये इबारत महिज़ आम मुहावरा के मुताबिक़ है इस से कोई इल्म नुजूम की हक़ीक़त की तालीम मक़सूद नहीं है। लेकिन रसूल-ए-अरबी के बाअज़ गैरतमंद पैरोंएन ने चाहा कि इस क़ुरआनी कमज़ोरी व नक़्स को दूर करें और उन्होंने निहायत जुरआत व जसारत से बक़ौल बैज़ावी बाअज़ नुस्खाहाए क़ुरआन में लफ़्ज़" ला" (لا) ज़ाइद कर दिया और इस से ये मअनी पैदा हो गए कि "आफ़ताब चलता है और इस के लिए कोई आरामगाह नहीं है"!

इस बाब को ख़त्म करने से पेशतर हम मतन-ए-क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की एक मिसाल और क़ाज़ी बैज़ावी से नक़ल करेंगे। चुनांचे मौजूदा क़ुरआन के मुवाफ़िक़ सुरह क़मर की पहली आयत में यूं मर्क़ूम है اقْتَرَبَتِ السَّاعَةُ وَانشَقَّ الْقَمَرُ यानी वो घड़ी आ पहुंची और चांद फट गया"। इस आयत के मआनी के बाब में मुख़्तलिफ़ फिरकाहाए इस्लाम में बड़ी सख़्त बहस होती चली आई है। बाअज़ कहते हैं कि इस में हज़रत मुहम्मद के निहायत अज़ीमुश्शान मोजिज़ा "शक़्कुक़मर" का बयान है और बाअज़ उस के ख़िलाफ़ यूं कहते हैं कि इस में रोज़ क़ियामत का ज़िक्र है जबकि चांद फट जाएगा"। अगर इस से मोजिज़ा "शक़्कुक़मर" मुराद लेना चाहें तो किसी ऐसे लफ़्ज़ की ज़रूरत महसूस होती है जिससे मअनी ज़माना-ए-माज़ी से मख़सूस किए जाए पस बैज़ावी लिखता है कि "बाअज़ नुस्ख़ों में लफ़्ज़ "क़द" (قد) पाया जाता है और इस से ये मअनी हासिल होते हैं कि चांद टुकड़े कर दिया गया है" क्या ये अज़हर-मिन-श्शम्स नहीं है कि बाअज़ मुहम्मदी मुनाज़िरीन ने अपने ख़याल व दलाइल के क़ियाम और आँहज़रत की तरफ़ीअ शान की ग़रज़ से लफ़्ज़ "क़द" (قد) अपने नुस्खाहाए क़ुरआन में ज़ाइद कर दिया ? अगर ये वाजिबी नतीजा तस्लीम कर लिया जाये तो क्या इस से किसी हद तक बा सराहत मालूम नहीं हो जाता कि ज़माना-ए-माज़ी में इस्लाम की कुतुबु दीन और क़ुरआन से क्या सुलूक होता रहा है? क्या अहले इस्लाम के वो तमाम दआवे जो सेहत व दुरुस्ती क़ुरआन के बाब में किए जाते हैं इस तहरीफ़ से बे-बुनियाद साबित नहीं होते?

इस किस्म की होलनाक और तबाही ख़ेज़ तख़रीब व तहरीफ़-ए-क़ुरआन की मिसालें पेश तो बहुत सी की जा सकती हैं लेकिन इस किताबचा में गुंजाइश ना होने के सबब से हम जो कुछ पेश कर चुके हैं इसी पर इकतिफ़ा करेंगे। बेतास्सुब और मुंसिफ़ मिज़ाज अस्हाब के लिए हम काफ़ी तौर से साबित कर चुके हैं कि क़ुरआन में बहुत सी तख़रीब व तहरीफ़ वाक़ेअ हो चुकी है। इलावा-बरें हम ये दिखा चुके हैं कि सुन्नी व शिया बिल-इत्तिफ़ाक़ मानते हैं कि मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ाहाए क़ुरआन में बहुत से इख्तिलाफ़ात मौजूद हैं। बाअज़ उलमाए रासख़ीन ने ये भी तस्लीम कर लिया है कि बाअज़ कोताहअंदेश मुसलामानों ने जान-बूझ कर अम्दन क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की है चुनांचे क़ाज़ी बैज़ावी,मुआलिम, और अबुल्फिदा बिल-इत्तफाक़ अबदुल्लाह इब्न जै़द को ऐसे फे़अल का फ़ाइल बयान करते हैं। वो कहते हैं कि ये अबदुल्लाह इब्न जै़द आँहज़रत का मुंशी था और बद नीयती से इबारात क़ुरआनी में तग़य्युर व तबद्दुल किया करता था। अब फ़क़त यही नहीं कि मौजूदा क़ुरआन की इबारात तहरीफ़ शूदा और मशकूक हैं बल्कि हम उलमाए इस्लाम और कतुब इस्लाम के बयानात से साबित करेंगे कि असली क़ुरआन के बहुत से हिस्से मफ़क़ूद हैं और मौजूदा क़ुरआन फ़िल-हक़ीक़त इस किताब का जो हज़रत मुहम्मद ने अपने अपने पैरुउन को सिखाई एक तहरीफ़ शूदा और ना काबिल-ए-एतिमाद हिस्सा है।