बाब चहारुम
शहादत-ए-इमाम हुसैन बरक़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन
हम पहले अबवाब में देख चुके हैं कि हज़रत उस्मान ने क़ुरआन के बाहमी तख़ालुफ़ से घबरा कर और इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत से तंग आकर निहायत जाबिराना तौर पर एक नुस्ख़ा तालीफ़ करवा के राइज किया और बाक़ी नुस्खे़ जिस क़दर दस्तयाब हो सके शोला-ए-आतिश की नज़र किए। लेकिन इस से भी मुराद बरना आई क्योंकि बावजूद इस सख़्ती व तशद्दुद के भी हफ़्त-ए- क़िरअत जारी हैं । क़ुरआन को इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में पढ़ने वाले क़ारी कहलाते हैं । उनमें से बाअज़ मक्की, बाअज़ मदनी बाअज़ कूफ़ी और सीरिया के रहने वाले थे। हफ़्त-ए-क़िरअत उन्हीं के नाम से नामज़द हैं जिन्हों ने इन को राइज किया। चुनांचे जो क़िरअत क़ुरआन हिन्दुस्तान में मुरव्वज है वो आसिम या उस के शागिर्द हफ्स की क़िरअत कहलाती है। हालाँकि अरब में नाफ़ी नामी एक मदनी क़ारी की क़िरअत मुरव्वज है। जलाल उद्दीन ने अपनी मशहूर तफ़्सीर में क़ारी इमाम अबू उमर की क़िरअत की इक़्तदा की है बहुत से इख्तिलाफ़ तो महिज़ तलफ़्फ़ुज़ ही के हैं लेकिन बहुत से मुक़ामात पर बड़े बड़े इख्तिलाफात-ए-मआनी भी ताहाल मौजूद हैं। चुनांचे सुरह फ़ातिहा में याक़ूब ,आसिम, कसाई और खिलफ-ए-कूफ़ी वग़ैरा क़ारी तो मालीकी (مَالِکِ) पढ़ते हैं और बाक़ी सब के सब मलीकी (مَلِکِ) पढ़ते हैं।
अब हम साफ़ तौर से वो इख्तिलाफ़ पेश करेंगे जो मुरव्वजा मौजूदा क़ुरआन में मौजूद हैं। लेकिन मौजूदा क़ुरआन की तख़रीब व तहरीफ़ की मुफ़स्सिल मिसालें पेश करने से पेशतर हम इमाम हुसैन की मशहूर तफ़्सीर के दीबाचे से इस का एक क़ौल पेश करना चाहते हैं । चुनांचे ये बड़ा मशहूर मुफ़स्सिर लिखता है :-
"وچوں قراتِ جائز التلاوت بسیار است واختلافات قرات درحروف والفاظ بےشمار دریں اوراق ازقراة معتبر روایت بکراز امام عاصم رحمتہ اللہ علیہ دریں دیار بصفت اشتہار ورتبت اعتبار دار ثبت میگر دوبعض ازکلمات کہ حفص رابا اومخالفت است ومعنی قرآن بسبب آن اختلاف وتغر کلی مے یابدشارتے میردو"
यानी और चूँकि क़िरअतहाए जायज़ अल-तिलावत बहुत हैं और हुरूफ़ व अल्फाज़ में इख्तिलाफ़ क़िरअत बेशुमार हैं लिहाज़ा इन औराक़ में इस मुल्क की मुरव्वजा क़िरअत यानी मोअतबर क़िरअत बक्र मुसद्दिक़ा ए इमाम आसिम दर्ज की जाती है और चंद ऐसी इबारात की तरफ़ भी इशारा किया जाएगा जिनकी हफ़्ज़ मुख़ालिफ़त करता है और जिन के सबब से क़ुरआन के मआनी में एक कुल्ली तब्दीली पैदा हो जाती है"।
इस मशहूर मुफ़स्सिर कमाल-उद्दीन हुसैन के मज़कूरा बाला अल्फाज़ से साफ़ अयाँ है कि क़ुरआन में अब भी इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत मौजूद है और हुरूफ़ व अल्फाज़ में बेशुमार तब्दीलियाँ हो चुकी हैं और फ़क़त यही नहीं बल्कि वो साफ़ मानता है कि इस तब्दील व तगय्यूर व तख़रीब व तहरीफ़ से क़ुरआन के मआनी में भी तग़य्युर वाक़ेअ हुआ है। इलावा-बरें इमाम हुसैन ये भी बतलाता है कि मुख़्तलिफ़ ममालिक में क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा मुरव्वज हैं जिनमें से बाअज़ मोअतबर और बाक़ी ग़ैर-मोअतबर हैं। हिन्दुस्तान में हफ़्ज़ की क़िरअत राइज है और इमाम हुसैन दीगर क़िरअतें को इस की मुख़ालिफ़ बयान करता है । जो क़ुरआन हज़रत मुहम्मद ने सिखाया था वो तो दरकिनार हज़रत उस्मान के रिवाज क़ुरआन के बारे में भी इमाम हुसैन और दीगर उलमाए इस्लाम में से कोई भी ये नहीं बता सकता कि इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में से कौनसी फ़िल-हक़ीक़त उस्मानी क़ुरआन को पेश करती है। लेकिन एक बात यक़ीनी और साफ़ तौर से नज़र आती है कि ये इख्तिलाफ़ मौजूद हैं और उन से साफ़ साबित होता है कि क़ुरआन के हक़ में ईलाही हिफ़ाज़त यानी "نحن لہ حافظون" का दावा बिल्कुल बे-बुनियाद और बे जा नाज़ है।
अहादीस के मुताला से यह मुआमला बहुत कुछ साफ़ और आसान हो जाता है और यह बात अयाँ हो जाती है कि किस क़दर इख्तिलाफ़ पैदा हुए और कितनी आयात और सूरतें बिल्कुल मफ़क़ूद हो गईं। चुनांचे हज़रत उमर ने एक हदीस यूं लिखी है :-
"ھشام یقراسورة الفرقان فقرا فیھا صروفاً لمہ یکن نبی اللہ صلعمہ اقرا فیھا۔ قلت من اقراک ھذا السورة قال رسول اللہ صلعمہ ،قلت کذبت ماکذاک اقراک رسول اللہ صلعم"
यानी हिशाम ने सुरह फुर्क़ान में चंद आयात ऐसी पढ़ें जो रसूलुल्लाह ने मुझे सिखाई थीं । मैंने कहा तुम को यह सुरह किस ने सिखाई है ? इस ने कहा रसूलुल्लाह ने। मैंने कहा तू झूट बोलता है। रसूलुल्लाह ने हरगिज़ तुझको ऐसा नहीं सिखाया। फ़िल-हक़ीक़त तवारीख़ इस्लाम में क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन का बहुत ज़िक्र है। चुनांचे लिखा है कि एक मर्तबा सनाबद नामी एक क़ारी बग़दाद की जामा मस्जिद में क़ुरआन पढ़ रहा था लेकिन इस की क़िरअत वहां के क़ारीयों से मुख़्तलिफ़ थी। इस पर उसे बुरी सख़्ती से ज़िद-ओ-कूब करके क़ैदख़ाना में डाल दिया और जब वो अपनी क़िरअत से दस्त-बरदार हो गया तब उस की रिहाई हुई। इन क़िरअतहाए मुख़्तलिफ़ा में महिज़ तलफ़्फ़ुज़ की तफ़ावुत ना थी बल्कि बाअज़ हालतों में इबारत-ए-क़ुरआनी के मआनी बिल्कुल बदल जाते थे। अब हम चंद ऐसी इबारात पेश करेंगे जो इमाम हुसैन, बैज़ावी और दीगर रासख़ीन उलमाए इस्लाम ने अपनी अपनी तसानीफ़ में ज़िक्र किया है।इमाम हुसैन कि मशहूर व माअरुफ़ तफसीर में मर्कुम है कि सुरह अम्बिया के पहले रुकूअ में हाल कि मुरवज्जह क़िरअत के मुताबिक लिखा है "قال ربی یعلمہ" यानी हज़रत मुहम्मद ने कहा मेरा रब जानता है” लेकिन बक्र कि क़िरअत के मुताबिक पढना चाहिए "قل ربی یعلمہ" यानी “ए मुहम्मद कह मेरा रब जानता है” यह मिसाल मतन ए क़ुरआन में एसा तखालुफ़ पेश करती है जिस से मआनी बिल्कुल बदल जाते हैं I एक क़िरअत के मुताबिक खुदा हज़रत से फरमाता है कि “मेरा रब जानता है” दूसरी के मुताबिक हज़रत मुहम्मद कुफ्फार से यूँ कहते हुए पेश किये जाते हैं “मेरा रब जानता है” इस किस्म कि बहुत सी मिसालें हैं लेकिन इमाम हुसैन के बयान के मुताबिक हम एक मिसाल और पेश करते हैं सुरह अहज़ाब के पहले रुकूअ में मर्कुम है :-
"النَّبِيُّ أَوْلَى بِالْمُؤْمِنِينَ مِنْ أَنفُسِهِمْ وَأَزْوَاجُهُ أُمَّهَاتُهُمْ
“यानी नबी मोमिनीन के लिए उनकी जानो से अजीज़तर है और उस कि अज्वाज़ उनकी माँए हैं”
लेकिन इमाम साहिब बतलाते हैं कि उबी के क़ुरआन और इब्न मसउद कि क़िरअत के मुताबिक इस इबारत के साथ और ज़ाएद अल्फाज़ मिलाने पढते हैं यानी “وھواب لھمہ” मुहम्मद उनके बाप हैं” अब बखूबी समझ सकते हैं कि इब्न मसउद ने अपना क़ुरआन उस्मान को देने से क्यों इन्कार किया I उस के क़ुरआन कि हज़रत मुहम्मद ने खुद बहुत तारीफ़ कि थी लेकिन मौजूदा क़ुरआन में यह ज़ायेद अल्फाज़ नहीं हैं I पस जब अहले इस्लाम इन हक़ीकी और यकीनी इयुब को क़ुरआन में पा कर भी उसे पढते और एतेक़ाद और ईमान रखते हैं तो किस दलील से इंजील को पढने से मअयूब समझते हैं और क्योंकर ख्याल करते हैं कि उसकि बाज़ इबारत में तहरीफ़ और तब्दीलियाँ हो गई हैं I