बाब दोवम
तस्दीक़ तरदीद-ए-अबू-बक्र व उस्मान
मिश्कात के तीसरे बाब से मालूम होता है कि हज़रत मुहम्मद की वफ़ात के बाद कुछ अर्से तक क़ुरआन अक्सर लोगों के ज़हन व हाफ़ज़े में था और उस की बाहम मुतखालिफ़ क़िरआतें मौजूद थीं लेकिन यमामा की मशहूर लड़ाई में बहुत से हाफ़ज़ान क़ुरआन मारे गए । इस पर उमर ने ख़याल किया कि कहीं ऐसा ना हो कि किसी और लड़ाई में कुछ और हाफ़िज़ क़त्ल किए जाए और क़ुरआन का बहुत सा हिस्सा गुम हो जाए । चुनांचे वो इस ख़याल व अन्देशे से अबू-बक्र के पास गया और उस से दरख्वास्त की कि क़ुरआन को एक किताब की सूरत में जमा करने का हुक्म जारी करे । पहले तो अबू-बक्र ने कुछ पसोपेश किया और कहा "जो काम रसूलुल्लाह ने नहीं किया मैं क्योंकर कर सकता हूँ लेकिन आख़िरकार उमर के अलहाह व इसरार के बाइस से जै़द बिन साबित कातिब-ए-रसूलुल्लाह को हुक्म दिया कि आयात-ए-क़ुरआन की जुस्तजू करके सब को जमा करे। चुनांचे जै़द इब्न साबित ने खजूर के पत्तों । सफ़ैद पत्थरों और लोगों के हाफ़िज़ों से जो कुछ मिल सका जमा किया । ये क़ुरआन ख़लीफ़ा अबुबक्र को दे दिया गया और उस की वफ़ात के बाद ख़लीफ़ा उमर के क़ब्ज़े में आया जिसने बियूगान-ए-हज़रत मुहम्मद साहिब से अपनी बेटी हफ़्सा के सुपुर्द किया ।
बुख़ारी की इस मुन्दरिजाह बाला हदीस से साफ़ अयाँ है कि पहले-पहल अबू-बक्र ने क़ुरआन को किताब की सूरत में जमा करवाया लेकिन इस ने इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत को रफ़ा करने की कोशिश नहीं की बल्कि बख़िलाफ़ उस के बुख़ारी से अयाँ है कि थोड़े ही अर्से में तखालूफ़ व तज़ाद-ए-क़िरअत बहुत बढ़ गया और आख़िरकार ख़लीफ़ा उस्मान ने लोगों के इन शुकुक को जो इस तखालिफ़त व तज़ाद के सबब से पैदा हो गए थे रफ़ाअ करने की कोशिश की जो वसाइल उस्मान ने इस्तिमाल किए वो बदर्जा गायत जाबिराना थे। चुनांचे उस ने हुक्म दिया कि क़ुरआन की एक पूरी नक़ल तहरीर करके बाक़ी तमाम नुस्खे़ जला दिये जावें । इस काम के लिए एक कमेटी मुक़र्रर की और यह क़ायदा ठहराया कि अगर शरकाए कमेटी किसी अम्र में मुख़्तलिफ़ अलराए हों तो जै़द जो मदीना का बाशिंदा था अपनी राय से दस्त-बरदार हो और आख़िरी फ़ैसला क़ुरैशी शुरकाए कमेटी या ख़ुद ख़लीफ़ा के हाथ में रहे। ख़लीफ़ा उस्मान की मुदाख़िलत का बयान अहादीस में साफ़ मुंदरज है। ख़लीफ़ा मज़कूरा की बड़ी आरज़ू थी कि क़ुरआन बिल्कुल क़ुरैश के मुहावरा यानी रसूलुल्लाह की ज़ुबान में कलमबंद किया जाये। चुनांचे मर्क़ूम है कि अली ने लफ़्ज़ ताबूत (تابوة) को मुदवर (त) (مُدور(ة)) से लिखना चाहा और दूसरों ने कशीदा (त) (کشیدہ (ت)) से ताबूत पसंद किया। इस पर ख़लीफ़ा उस्मान ने फ़ैसला किया कि मुहावरा क़ुरैश के मुताबिक़ कशीदा(त) से लिखा जाये। लेकिन तरफ़ा ये है कि लफ़्ज़ ताबूत हरगिज़ अरबी लफ़्ज़ नहीं है बल्कि उन अल्फाज़ में से एक है जो हज़रत मुहम्मद ने रब्बियों की इब्रानी ज़ुबान से लिए थे। ये लफ़्ज़ सुरह ताहा में हज़रत मूसा के क़िस्से में पाया जाता है । इस एक ही छोटे से वाक़िया से साफ़ मुतरश्शेह है कि जामआन क़ुरआन ने क़ुरआन की मक्की अरबी यानी हज़रत मुहम्मद और हज़रत जिब्राईल की ज़ुबान में कलमबंद करने में कहाँ तक कामयाबी हासिल की।
अब हम जे़ल में बुख़ारी की वो हदीस दर्ज करेंगे जिससे हज़रत उस्मान की तस्दीक़ व तरदीद की कैफ़ीयत किसी क़दर मालूम हो जाएगी । इस से नाज़रीन को बख़ूबी मालूम हो जाएगा कि इस ज़माने में मतन क़ुरआन की कैसी नाज़ुक हालत थी। इलावा-बरें इस अम्र का भी अंदाज़ा लग सकता है कि हज़रत उस्मान ने कैसे ग़ैर-मामूली और जाबिराना वसाइल और तरीक़े इख़तियार किए। चुनांचे बुख़ारी ने रिवायत की है :-
حَدَّثَنَا مُوسَی حَدَّثَنَا إِبْرَاهِيمُ حَدَّثَنَا ابْنُ شِهَابٍ أَنَّ أَنَسَ بْنَ مَالِکٍ حَدَّثَهُ أَنَّ حُذَيْفَةَ بْنَ الْيَمَانِ قَدِمَ عَلَی عُثْمَانَ وَکَانَ يُغَازِي أَهْلَ الشَّأْمِ فِي فَتْحِ إِرْمِينِيَةَ وَأَذْرَبِيجَانَ مَعَ أَهْلِ الْعِرَاقِ فَأَفْزَعَ حُذَيْفَةَ اخْتِلَافُهُمْ فِي الْقِرَائَةِ فَقَالَ حُذَيْفَةُ لِعُثْمَانَ يَا أَمِيرَ الْمُؤْمِنِينَ أَدْرِکْ هَذِهِ الْأُمَّةَ قَبْلَ أَنْ يَخْتَلِفُوا فِي الْکِتَابِ اخْتِلَافَ الْيَهُودِ وَالنَّصَارَی فَأَرْسَلَ عُثْمَانُ إِلَی حَفْصَةَ أَنْ أَرْسِلِي إِلَيْنَا بِالصُّحُفِ نَنْسَخُهَا فِي الْمَصَاحِفِ ثُمَّ نَرُدُّهَا إِلَيْکِ فَأَرْسَلَتْ بِهَا حَفْصَةُ إِلَی عُثْمَانَ فَأَمَرَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ وَعَبْدَ اللَّهِ بْنَ الزُّبَيْرِ وَسَعِيدَ بْنَ الْعَاصِ وَعَبْدَ الرَّحْمَنِ بْنَ الْحَارِثِ بْنِ هِشَامٍ فَنَسَخُوهَا فِي الْمَصَاحِفِ وَقَالَ عُثْمَانُ لِلرَّهْطِ الْقُرَشِيِّينَ الثَّلَاثَةِ إِذَا اخْتَلَفْتُمْ أَنْتُمْ وَزَيْدُ بْنُ ثَابِتٍ فِي شَيْئٍ مِنْ الْقُرْآنِ فَاکْتُبُوهُ بِلِسَانِ قُرَيْشٍ فَإِنَّمَا نَزَلَ بِلِسَانِهِمْ فَفَعَلُوا حَتَّی إِذَا نَسَخُوا الصُّحُفَ فِي الْمَصَاحِفِ رَدَّ عُثْمَانُ الصُّحُفَ إِلَی حَفْصَةَ وَأَرْسَلَ إِلَی کُلِّ أُفُقٍ بِمُصْحَفٍ مِمَّا نَسَخُوا وَأَمَرَ بِمَا سِوَاهُ مِنْ الْقُرْآنِ فِي کُلِّ صَحِيفَةٍ أَوْ مُصْحَفٍ أَنْ يُحْرَقَ قَالَ ابْنُ شِهَابٍ وَأَخْبَرَنِي خَارِجَةُ بْنُ زَيْدِ بْنِ ثَابِتٍ سَمِعَ زَيْدَ بْنَ ثَابِتٍ قَالَ فَقَدْتُ آيَةً مِنْ الْأَحْزَابِ حِينَ نَسَخْنَا الْمُصْحَفَ قَدْ کُنْتُ أَسْمَعُ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَقْرَأُ بِهَا فَالْتَمَسْنَاهَا فَوَجَدْنَاهَا مَعَ خُزَيْمَةَ بْنِ ثَابِتٍ الْأَنْصَارِيِّ مِنْ الْمُؤْمِنِينَ رِجَالٌ صَدَقُوا مَا عَاهَدُوا اللَّهَ عَلَيْهِ فَأَلْحَقْنَاهَا فِي سُورَتِهَا فِي الْمُصْحَفِ
"यानी अनस इब्न मालिक बयान करता है कि हुज़ैफ़ा इब्न अलीमान जो कि फ़तह आरमीनीया में अहले सीरया से और आज़रबाईजान में अहले इराक़ से जंग कर चुका था और लोगों के दर्मियान तख़ालुफ़ क़िरआतहाए क़ुरआन से अज़बस परेशान ख़ातिर था उस्मान के पास आया और कहने लगा ए उस्मान उन लोगों की मदद कर इस से पेशतर कि ये लोग ख़ुदा की किताब में इख्तिलाफ़ करें जैसे यहूदी और मसीही अपनी किताबों में इख्तिलाफ़ करते हैं । इस पर उस्मान ने हफ़्सा से क़ुरआन के वो हिस्से जो उसके पास थे मंगवा भेजे और कहला भेजा कि नक़ल करके वापिस लौटा दिए जाएंगे । चुनांचे हफ़्सा ने जो हिस्से उस के पास थे भेज दिए । तब उस्मान ने जै़द इब्न साबित, अबदुल्लाह इब्न जुबैर, सईद इब्न आस और अब्द इब्न हारिस को नक़ल करवाने का हुक्म दिया और कहा कि अगर क़ुरआन के किसी हिस्से की क़िरअत के बारे में तुम में और जै़द इब्न साबित में इख्तिलाफ़ हो तो क़ुरैशी मुहावरा के मुताबिक़ लिखो क्योंकि क़ुरैश की ज़ुबान में नाज़िल हुआ है । पस उन्होंने उस्मान के फ़रमान के मुवाफ़िक़ अमल किया और जब मुतअद्दिद नुक़ूल तैयार हो गईं तो असल को हफ़्सा के पास वापिस भेज दिया । उस्मान ने तमाम ममालिक-ए-इस्लामीया में एक एक नक़ल भेज दी और हुक्म दिया कि इस के सिवा जहां कहीं जिस सूरत में क़ुरआन पाया जाये जला दिया जाये।
इब्न-ए-शहाब बयान करता है कि उस से ख़ारिजा बिन जै़द बिन साबित ने कहा कि इस ने जै़द बिन साबित को यह कहते सुना कि जब हम क़ुरआन लिख रहे थे तो सुरह अहज़ाब की एक आयत जो मैं ने रसूलुल्लाह से सुनी थी गुम हो गई। हमने उस की तलाश की और उसे हुज़ेमा बिन साबित अल-अंसारी के पास पाया । पस हमने उसे सुरह अहज़ाब में दर्ज कर दिया"।
बुख़ारी की इस हदीस से चंद उमूर बख़ूबी वाज़ेह हो जाते हैं । चुनांचे साफ़ ज़ाहिर है कि जब उस्मान ने देखा कि तख़ालुफ़-ए-क़िरआतहाए क़ुरआन दिन-ब-दिन ज़्यादा और ख़तरनाक होता जाता है तो उस ने जै़द और तीन दीगर अस्हाब को हुक्म दिया कि क़ुरआन को अज़सर नौ तालीफ़ करें। फिर इन मोअल्लिफ़िन को कई मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों को पढ़ कर बाअज़ की तस्दीक़ और बाअज़ की तरदीद करना था और तमाम मुक़ामात मुतनाज़ा में मक्की व कुरैशी मुहावरा को तर्जीह देना था । इस से भी साफ़ साबित होता है कि मतन क़ुरआन में बहुत सी तख़रीब व तहरीफ़ वाक़ेअ हो चुकी थी । बादअज़ां जब उस्मान तस्दीक़ व तरदीद को काम में लाकर हस्बेख़ाहिश क़ुरआन को अज़सर-ए-नौ तालीफ़ करवा चुका तो उस ने पुराने नुस्खे़ जहां तक हो सका जमा करके जला दिए । फिर नई तालीफ़ की मुतअद्दिद नुक़ूल तैयार करवा के तमाम इस्लामी ममालिक में तक़्सीम की । इस बयान से अज़हर-मीन-श्शम्स है कि जो क़ुरआन उस्मान की हिदायत से तालीफ़ किया गया और अब तक राइज है इन नुस्ख़ों से जो उस्मान के ज़माना में अरब के मुख़्तलिफ़ हिस्सों में राइज थे बहुत कुछ मुख़्तलिफ़ है क्योंकि अगर यह अम्र वाक़ई ना हो तो फिर बुख़ारी की मुन्दरिजाह हदीस के मुताबिक़ ख़लीफ़ा उस्मान को बाक़ी नुस्ख़ों को जमा करके जलाने की क्या ज़रूरत थी ? इस का नतीजा ये हुआ कि अब मुसलामानों के पास वही ख़लीफ़ा उस्मान का मन माना नुस्ख़ा बाक़ी है और किसी तरह की तहक़ीक़ की गुंजाइश बाक़ी नहीं रही जिससे दर्याफ्त हो सके कि जो क़ुरआन उस्मान ने तालीफ़ करवाया। इस में और अबू-बक्र की तालीफ़ में क्या फ़र्क़ था और जो नुस्खे़ उस वक़्त अरब के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात में राइज थे और बाद में जलाए गए उन में और मौजूदा क़ुरआन में कहाँ तक मुख़ालिफ़त थी । शीया लोग अक्सर उस्मान पर ये इल्ज़ाम लगाते हैं कि इस ने क़ुरआन से बहुत सी आयात जिनमें हज़रत अली और उस के ख़ानदान की अज़मत मज़कूर थी ख़ारिज कर दीं और बहुत सी दीगर तब्दीलियाँ कीं । चुनांचे फ़नसक किताब दबिस्ताँ में मर्क़ूम है कि "उस्मान ने क़ुरआन को जला दिया और उस से वो तमाम इबारात ख़ारिज कर दीं जिनमें अली और उस के ख़ानदान की बुजु़र्गी व अज़मत का ज़िक्र था"।
शीया लोगों की किताबों में इस किस्म की इबारात बकसरत पाई जाती हैं लेकिन इस रिसाला में उन के इंदिराज की गुंजाइश नहीं है । अगर नाज़रीन उन इबारात को देखना चाहें तो तसानीफ़ अली इब्न इब्राहीम अलक़ोमी, मुहम्मद याक़ूब अल कुलेनी, शेख़ अहमद इब्न-ए-अली लालित अलतबरासी और शेख़ अबू अली अलबतरासी वग़ैरा को मुताला करें। अब बुख़ारी और शीया लोगों की शहादत से शक की मुतलक़ गुंजाइश नहीं रहती बल्कि साफ़ साबित होता है । कि मौजूदा क़ुरआन हरगिज़ हरगिज़ तख़रीब व तहरीफ़ और रद्दोबदल से महफ़ूज़ नहीं रहा।
इलावा-बरें चूँकि हज़रत उस्मान ने क़ुरआन का वो नुस्ख़ा जो ख़ुद तालीफ़ करवाया था राइज किया और दीगर नुस्खे़ जहां तक दस्तयाब हो सके जमा करके सब के सब फिन्नार किए इस लिए हम ये नतीजा निकाल सकते हैं कि हज़रत उस्मान ने हफ़्त-ए-क़िरअत क़ुरआन को मंज़ूर नहीं किया और रसूलुल्लाह के इस कलाम को कि हफ़्त क़िरआतहाए मुख़्तलिफ़ा क़ुरआन सब दरुस्त-ओ-सही हैं हरगिज़ नहीं माना । हक़ीक़त तो ये है कि अगर तास्सुब से ख़ाली हो कर बनज़र इन्साफ़ इस तमाम मज़मून पर ग़ौर किया जाये तो साफ़ मुनकशिफ़ हो जाता है कि ये बाहम मुख़ालिफ़ हफ़्त क़िरअत क़ुरआन की सेहत व दुरुस्ती का अफ़साना हज़रत मुहम्मद ने नहीं बल्कि उस के बाद के मोमिनीन ने वज़ा करके शाया किया ताकि मुसलमान इस अम्र से ठोकर ना खाएं कि क़ुरआन बावजूद कलाम-उलल्लाह होने के ऐसे तज़ाद व तख़ालूफ़ से क्यों मामूर है।
फिर अली की अहादीस से ये मुआमला और भी साफ़ हो जाता है । चुनांचे मर्क़ूम है कि जब अबू-बक्र ख़लीफ़ा बना तो एक रोज़ अली उस के घर में बैठा था। अली ने अबू-बक्र से कहा कि मैंने लोगों को कलाम-उलल्लाह में कुछ मिलाते देखा है और मैं ने मुसम्मम इरादा कर लिया है कि जब तक कलाम-उलल्लाह को जमा ना करलूं सिवाए नमाज़ के वक़्त के ऊपर के कपड़े नहीं पहनूँगा"।
इन अहादीस मज़कूरा बाला से निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ अयाँ है कि इख्तिलाफ़-ए-क़िरअत क़ुरआन महज़ तलफ़्फ़ुज़ ही का इख्तिलाफ़ ना था बल्कि बाअज़ लोग क़ुरआन पढ़ते वक़्त अपनी तरफ़ से इस में व तफ़रीत किया करते थे । तवारीख़ इस्लाम से मालूम होता है कि अली ने अपने मुसम्मम इरादे के मुताबिक़ अमल किया और क़ुरआन जमा कर लिया लेकिन निहायत अफ़सोस की बात है कि अली का तालीफ़ कर्दा क़ुरआन मौजूद नहीं है । इस में तो ज़रा शक व शुबहा नहीं कि अगर वह क़ुरआन अब मौजूद होता तो हम उस में और इस मौजूदा क़ुरआन में बहुत बड़ा और हक़ीक़ी इख्तिलाफ़ पाते क्योंकि लिखा है कि जब उमर ने अली से दरख़ास्त की कि अपना तालीफ़ कर्दा क़ुरआन दे ताकि दीगर नुस्ख़ों का उस के साथ मुक़ाबला करके देखें तव उस ने देने से इन्कार किया और कहा कि जो क़ुरआन मेरे पास है वो बिल्कुल सही और कामिल है और उस में दीगर नुस्ख़ों की तरह किसी तरह की तब्दीली या कमी बेशी की गुंजाइश व ज़रूरत नहीं है । मैं ये क़ुरआन अपनी औलाद को दूंगा ताकि इमाम मह्दी की आमद तक बहिफ़ाज़त तमाम रखा जाये।