पांचवां बाब

मसीह रूहुल्लाह

मुसलमान मसीह को एक और बड़े लक़ब यानी "रूहुल्लाह" से मुलक़्क़ब करते हैं चुनांचे सूरह निसा की 169 वीं आयत में मर्क़ूम है :—

إِنَّمَا الْمَسِيحُ عِيسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُولُ اللّهِ وَكَلِمَتُهُ أَلْقَاهَا إِلَى مَرْيَمَ وَرُوحٌ مِّنْهُ

यानी बे-शक मसीह ईसा इब्ने मर्यम ख़ुदा का रसूल है और उस का कलिमा है जिसे उसने मर्यम में डाला और उस की रूह है

इस बड़े लक़ब "कलिमतुल्लाह" की तरह मुसलमान मुफ़स्सिरीन को इस लाज़िम नतीजा यानी ईसा की उलूहियत से इन्कार की मुख़्तलिफ़ राहें ढूँढते हैं निहायत मुश्किल में डाल रखा है । ख़लील-उल्लाह ,सफ़ी-उल्लाह और नबी-उल्लाह वग़ैराह अल्क़ाब जो दूसरे अम्बिया को दिए गए हैं हमारी मानिंद कमज़ोर इन्सानों को दिए जा सकते हैं लेकिन "रूहुल्लाह" जो मुसलामानों ने सय्यदना मसीह को दिया है निहायत सफ़ाई से इस की बुजु़र्गी व बरतरी पर दलालत करता है और अज़हद यक़ीनी तौर से उसे तमाम दीगर अम्बिया से आला व बाला ठहराता है।

ऐसे शख़्स को बख़ूबी "इब्नुल्लाह" कह सकते हैं लेकिन मसीहीयों को अक्सर इस से हैरत होती है कि मुसलमान बिरादरान "इब्नुल्लाह" पर क्यों एतराज़ करते हैं दर-हालीका वो ख़ुद उसे रूहुल्लाह कहते हैं और रूहुल्लाह इब्नुल्लाह से कम नहीं है।

रासिख़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन मानते हैं कि "रूहुल्लाह" एक ऐसी ख़ुसूसीयत रखता है जो किसी और नबी से मंसूब नहीं हो सकता। चुनांचे इमाम राज़ी कहते हैं कि :—

वो (मसीह) इस लिए "रूहुल्लाह” कहलाता है कि वो अहले-दुनिया को उनके अदयान में ज़िंदगी बख़्शने वाला है"

और बैज़ावी तहरीर फ़रमाते हैं :—

"वो ऐसी रवा रखता है जो ज़ात और असल के लिहाज़ से बिलावासिता ख़ुदा से सादर है" और या कि वो मुर्दों को ज़िंदा करता है और बनी-आदम के दिलों को हयात बख़्शता है"

हाँ ये "रूहुल्लाह" अब भी साहिबे उलूहियत होने के सबब से दुनिया को ज़िंदा करता और क़ुलूब इन्सानी को हयात बख़्शता है और आज-कल ग़ैर-मामूली तौर से शुमाल व जुनुब और मशरिक़ व मगरिब के लोग वो नई पैदाइश और ज़िंदगी हासिल कर रहे हैं जो फ़क़त ईसा ही से मिलती है इमाम साहिब ने ये लिखते वक़्त ज़रूर इंजील शरीफ़ से सय्यदना ईसा का ये फ़रमान पढ़ा होगा कि :—

“क़ियामत और ज़िंदगी में हूँ और जो मुझ पर ईमान लाता है अगरचे वो मर गया हो तो भी जियेगा” (युहन्ना 11:25)

फ़िर यह भी मर्क़ूम है कि :—

“पहला आदम जीती जान हुआ और दूसरा आदम (मसीह) ज़िंदगी बख़्शने वाली रूह”

बैज़ावी की तफ़्सीर मसीह के अल्फ़ाज़ से कैसी मुताबिक़त रखती है क्योंकि बैज़ावी और मसीह के अल्फ़ाज़ में फ़र्क़ सिर्फ ये है कि मसीह फ़रमाता है :—

"मैं आया हूँ कि वो ज़िंदगी पाएं और उसे कसरत से हासिल करें"।

ये मालूम करके कि ज़माना-ए-हाल के बाअज़ मुसलमान मसीह की आस्मानी असल को मानते हैं हमें बहुत ख़ुशी है चुनांचे एक बंगाली इस्लामी अख़बार मुसम्मा-बह प्रचारक "पूस 1307 हिज्री में मर्क़ूम है" :—

ईसा महिज़ ज़मीनी शख़्स ना था वो जिस्मानी शहवत से पैदा नहीं हुआ वो आस्मानी रूह है.....ईसा आस्मान के बुलंद तख़्त से आया और ख़ुदा के अहकाम दुनिया में लाकर इस ने नजात की राह दिखाई "।

ख़ुदा की "रूह" ज़रूर ख़ुदा की तरह अज़ली है और जब हम क़ुरआन में पढ़ते हैं कि वो ये "रूह मर्यम में फूंकी गई" (सूरह अम्बिया 91 आयत) और बैज़ावी के बयान के मुवाफ़िक़ “ख़ुदा से निकली” तो ज़रूर ये नतीजा निकालना पड़ता है कि ये बुज़ुर्ग हस्ती उलूहियत से ख़ाली नहीं और मर्यम में दाख़िल होने से पेशतर मौजूद थी। क़ुरआन में ईसा ख़ुदा का "अज़ली कलिमा" है और यह सब बातें बाहम पूरी मुताबिक़त रखती हैं। किसी महिज़ इन्सान नबी के हक़ में ऐसे अल्फ़ाज़ और ऐसे बड़े बड़े अल्क़ाब इस्तिमाल नहीं किए जा सकते इनसे निहायत साफ़ तौर से बाइबल शरीफ़ की इस की पूरी तालीम की तरफ़ इशारा मिलता है। जिसमें ईसा ख़ुद इस जलाल का ज़िक्र करते हैं जो वो इब्तिदाए आलम से पेशतर परवरदिगार के साथ रखते थे। चुनांचे ईसा ने दुआ की और फ़रमाया :—

"ए बाप तू मुझे अपने साथ इस जलाल से जो मैं दुनिया की पैदाइश से पेशतर तेरे साथ रखता था जलाली बना दे" (युहन्ना 17:5)

लेकिन ईसा मसीह के अज़ली वजूद पर फ़क़त इंजील ही गवाह नहीं है बल्कि सहफ़-ए-अम्बिया से भी यही शहादत मिलती है । चुनांचे मीकाह नबी आने वाले मसीह का ज़िक्र करते वक़्त यूं कहता है :—

"ए बैतल-लहम अफराताह अगरचे तू यहुदाह के हज़ारों में छोटी है तो भी वोह शख़्स जो मेरे लिए बनी-इस्राइल पर सल्तनत करेगा और जिस का निकलना अय्याम अज़ल से है तुझसे निकलेगा" (मीकाह 5: 3)

पस साफ़ ज़ाहिर है कि मसीह की अज़लियत पर कुतुब मुक़द्दस यहूद भी शाहिद हैं अगरचे यहूदीयों ने बहैसियत-ए-क़ौम महिज़ ज़िद और हिट धर्मी से ईसा को एक नबी नहीं माना।

"रूहुल्लाह" से जो मसीह की उलूहियत का नतीजा निकलता है इस से इन्कार करने की गर्ज़ से बाअज़ मुसलमान मुसन्निफ़ीन बहुत ही अजीब और हिच-पोच दलायल पेश करते हैं मसलन एक हाल का बंगाली मुसलमान लिखता है मसीह इस लिए रूहुल्लाह कहलाता है कि वो ख़ुदा से पैदा किया गया" इस किस्म के दलायल की किसी ज़ी-होश के सामने कुछ हक़ीक़त नहीं है क्या हम सबको ख़ुदा ने पैदा नहीं किया? हम में से कौन अपने आपको "रूहुल्लाह" कहने की ज़ुर्रात कर सकता है ?

अगर "रूहुल्लाह" का मफ़हूम ख़ुदा की मख़्लूक़ रूह हो तो इन्सानी रूह इन्सान की मख़्लूक़ ठहरेगी जो कि लगू महिज़ है। जब मुसलमान सिर्फ ईसा ही को "रूहुल्लाह" के लक़ब से मुलक़्क़ब करते हैं तो साफ़ मालूम होता है कि इस का कुछ ख़ास मतलब है और वो ख़ास माअनों में "रूहुल्लाह" है और इस से इंजील शरीफ़ की पूरी तालीम तक सिर्फ एक क़दम बाक़ी है यानी ये कि वो ख़ुदा का अज़ली बेटा है।

फ़िर यह कहा जाता है कि अगर "रूहुल्लाह" ईसा मसीह की उलूहियत पर दलालत करता है तो क़ुरआन करीम की तालीम के मुवाफ़िक़ आदम और दीगर अम्बिया को साहिबे उलूहियत मानना पड़ेगा क्योंकि क़ुरआन में मर्क़ूम है कि ख़ुदा ने फ़रिश्तों से आदम के हक़ में फ़रमाया कि :—

"जब में इस को पूरे तौर से बना चुकू और इस में अपनी रूह फूंक दूं तो तुम उस के सामने गिर कर उसे सज्दा करो"

हम नहीं समझ सकते हैं कि क़ुरआन की इस आयत से किस तरह आदम की उलूहियत का इक़रार हम पर लाज़िम ठहरता है क्योंकि आदम को इस जगह "रूहुल्लाह" नहीं कहा गया। बल्कि महिज़ इन्सान जिसमें ख़ुदा ने अपनी रूह फूंकी जो कि मुआमला ही दीगर है। क़ुरआन में ईसा की निस्बत कहीं भी ऐसा नहीं लिखा इस किस्म की ज़बान ईसा की माँ मर्यम के हक़ में बेशक इस्तिमाल की गई है। चुनांचे सुरह अम्बिया 91 वीं आयत में मर्कुम है :—

और याद कर उस खातून को जिसने दोशिज़गी को महफूज़ रखा और जिसमे हमने अपनी रूह में से फूंक दिया

अगर इस आयत के बिना पर मसीही लोग मर्यम कि उलुहियत के कायल होते तो मुसलमान कह सकते थे कि आदम के लिए भी ऐसी ज़बान इस्तेमाल कि गई है लिहाज़ा मसीहीयों पर फ़र्ज़ है कि आदम को साहिबे उलूहियत तस्लीम करें। लेकिन ना तो मसीही लोग मर्यम को साहिबे उलूहियत मानते हैं और ना ही क़ुरआन में सिर्फ ये लिखा है कि ख़ुदा ने मसीह में अपनी रूह फूंकी। बल्कि बख़िलाफ़ इस के मुसलमान ख़ुद मसीह को ही रूहुल्लाह कहते हैं इसी तरह से बाइबल शरीफ़ में भी लिखा है कि ख़ुदा ने बाअज़ आदमियों को अपनी रूह इनायत की लेकिन इस से उन को उलूहियत नहीं मिल गई और ना वो रूहुल्लाह बन गए । अगर हम कहें कि जै़द ने एक फ़क़ीर को पाँच रुपय दीए तो क्या कोई इस्तिदलाल करके ये कह सकता है कि “वो फ़क़ीर पाँच रुपये है ?”

पस हम फिर कहते हैं कि लक़ब “रूहुल्लाह” जो मुसलमान मसीह के हक़ में इस्तिमाल करते हैं इस को तमाम अम्बिया से बुज़ुर्ग व बरतर ठहराता है और इसकी उलुहियत फिर भी जिसकी तालीम इंजील शरीफ में बिल्कुल साफ़ है दलालत करता है I