बाब दूओम
यहूदी अक़ाइद व रसूम का क़ुरआन में इंदिराज
अगरचे क़ुरआन के मुताअला से ये बात निहायत सफ़ाई और सराहत के साथ ज़ाहिर हो जाती है कि हज़रत मुहम्मद ने अपने वक़्त के बुतपरस्त अरबों की बहुत सी रसूम को क़ुरआन में दर्ज कर लिया और मसीही दीन की बहुत सी बातों को ले कर उन पर क़ुरैशी अरबी में जिब्राइली पैग़ाम का हाशिया चढ़ा लिया ताहम क़ुरआन की असलीयत व माहीयत पर ग़ौर-व-फ़िक्र करने से मालूम हो जाएगा कि इस्लाम बहैसीयत मजमूई तालमुदी यहूदियत और रिसालत हज़रत मुहम्मद का मजमूआ है। चुनांचे इस बाब में हम इसी अम्र की सदाक़त के दलायल व सबूत बहम पहुंचाएंगे।
इस बात के बयान की तो ज़रूरत नहीं कि आँहज़रत को यहूदीयों से इस क़दर काफ़ी मेल-जोल का मौक़ा हासिल था कि आप उन से उन की मुरव्वजा हिकायात व रिवायत को बख़ूबी व बाआसानी सीख सकते थे। अगर क़ुरआनी हिकायात का बाइबल की मुहर्रिफ़ तालमुदी तवारीख़ से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ अयाँ हो जाएगा कि मक्का व मदीना के यहूदीयों ने अपनी रिवायत ज़रूर हज़रत मुहम्मद को सुनाई थीं जो आप ने अव्वल बदल करके बुतपरस्त, जाहिल अरबों के सामने वही आस्मानी के नाम से पेश कीं। ये भी ख़ूब याद रखना चाहिए कि आँहज़रत से एक सौ साल पेशतर तालमुद की तकमील हो चुकी थी और जो यहूदी अरब में बूद-ओ-बाश करते थे उन के दीन पर इस से बहुत कुछ तासीर हुई होगी। क़ुरआन में हज़रत मुहम्मद ने एक यहूदी को अपनी रिसालत पर गवाह के तौर पर बयान किया है। बहुत से मुक़ामात में आँहज़रत के यहूदीयों के साथ मुबाहिसों और मुनाज़रों का ज़िक्र पाया जाता है और इस में कलाम नहीं कि किसी वक़्त आप उन से बहुत गहरा और दोस्ताना ताल्लुक़ रखते थे। पस अब ये बात बाआसानी समझ में आ सकती है कि हज़रत मुहम्मद ने बार-बार यहूदी रिवायत को सूना और फिर उन को ऐसी सूरत में बयान किया जो अरबों को पसंदीदा दिलचस्प मालूम हुई। इस में शक नहीं कि आप यहूदीयों से उन के दीन के बारे में अक्सर सवाल किया करते थे चुनांचे मुस्लिम की एक हदीस में यूं लिखा है:—
قال ابن عباس فلما سالھا النبی صلعمہ عن شئی من اھل کتب فلتموہ ایاہ واخبروہ بغیر ہ فخر جواقداروہ ان قدخبروہ بما سالھمہ عنہ
इब्न अब्बास कहता है जब नबी अहले-किताब से कुछ पूछते तो वो उसे पोशीदा रखते और कुछ और ही बता देते थे। और आँहज़रत को सिर्फ इस ख़्याल में छोड़ जाते थे कि जो कुछ पूछा था वही बताया गया है।
इलावा-बरीं ये एक निहायत ही बय्यन हक़ीक़त है कि जब आँहज़रत पर ये इल्ज़ाम लगा कि आप यहूद वग़ैरा से कहानियां सीख कर उनका नाम वही आस्मानी रखते हैं तो आप ने ये उज़्र पेश किया कि मुझे ख़ुदा का हुक्म है कि शक की हालत में अहले-ए-किताब से पूछूँ और अपने शकूक रफ़ा करूँ। चुनांचे सूरह यूनुस की 94 वीं आयत में यूं लिखा है :—
فَاسْأَلِ الَّذِينَ يَقْرَؤُونَ الْكِتَابَ مِن قَبْلِكَ
तू पूछ ले उन लोगों से जो तुझ से पहले किताब पढ़ते हैं I
मुसलमान मुअर्रिख़ तिबरी लिखता है :—
ख़दीजा( आँहज़रत की पहली ज़ौजा ) ने पुराने पाक नविश्तों को पढ़ा था और क़ससुल-अम्बिया से ख़ूब वाक़िफ़ थी I
अब मुक़ाम-ए-ग़ौर है कि आँहज़रत दावा-ए-नुबूव्वत से पहले क़रीबन पंद्रह साल बीबी ख़दीजा के साथ बसर कर चुके थे और ख़दीजा के उम्म-ज़ाद भाई वर्क़ा से भी काफ़ी मेल-जोल रहा जो यहूदी और मसीही दोनों रह चुका था और जिस ने मसीही नविश्तों का अरबी ज़बान में तर्जुमा भी लिखा थाI इन हक़ीक़तों से साफ़ अयाँ हो जाता है कि आँहज़रत यहूदी रब्बियों की मुरव्वजा हिकायात व रिवायत से बख़ूबी वाक़िफ़ थे।
अब इस अम्र की चंद मिसालें पेश की जाएंगी कि आँहज़रत ने अपने हम-असर यहूदीयों की मुरव्वजा तवारीख़ी हिकायात को किस तरह अपने हसब दलख़वाह सूरत में पेश किया। लेकिन ऐसा करने से पेशतर ये बताना भी मुनासिब मालूम होता है कि इस मौक़ा पर अरब में यहूदीयों के ख़्यालात की क्या हालत थी। मदीना के गर्द-नवाह के यहूदी बेशुमार और साहिब इक़तिदार थे लेकिन बजाय अह्देअतीक़ के ज़्यादा तालमुद का मुताअला किया करते थे। तालमुद यहूदी रब्बियों की रायों कि तफ़ासीर और रिवायत वग़ैरा का निहायत बे-तरतीब मजमूआ है।
इस मख़ज़न-उल-उलूम में क़ौम यहूद की हज़ारों साल की अहादीस व रिवायत और उन के शराए व ख़यालात बड़ी शरह व बसत के साथ मुंदर्ज हैं। लेकिन फिर भी तालमुद एक इल्मी बयान है।
इस के बयानात निहायत बे-तरतीब व बे-रब्त हैं। बहुत से क़िस्से ग़लत और महिज़ बच्चों के अफ़्साने हैं। और आँहज़रत के ज़माना के यहूदीयों की ज़हनी और अक़्ली ग़िज़ा बेशतर इन अफ़्सानों ही से बहम पहुंची थी। इन ही ग़ैर-मोअतबर तालमुदी कहानीयों को सुन कर यहूदी सामईन ख़ुश होते थे। और उन के मकतबों और मदरसों में उन्ही की तालीम व तदरीस का रिवाज था।
पस हज़रत मुहम्मद ने जो कुछ यहूदीयों से सीखा वो बजाय बाइबल के तालमुदी क़िस्से व अफ़्साने थे। चुनांचे जिन क़िस्सों और बुज़ुर्गों के हालात से क़ुरआन लबरेज़ हो रहा है वो बाइबल के तालमुदी व गमदाह की बे-बुनियाद रिवायत से मुताबिक़त रखते हैं।
मसलन सूरह माइदा में 30 वें आयत में से 35 आयत तक हाबील व काबील की अजीब हिकायात मुंदर्ज है । 34 वीं आयत से मालूम होता है कि जब क़ाबील अपने भाई को क़त्ल कर चुका तो ख़ुदा ने एक कूए को भेजा कि क़ाबील को दफ़न करना सिखाए । चुनांचे यूं मर्क़ूम है :—
فَبَعَثَ اللّهُ غُرَابًا يَبْحَثُ فِي الأَرْضِ لِيُرِيَهُ كَيْفَ يُوَارِي سَوْءةَ أَخِيهِ
ख़ुदा ने एक कव्वे को भेजा जिसने ज़मीन को खोदा ताकि वो (क़ाबील) देख ले कि अपने भाई की लाश को क्योंकर दफ़न करे ।
जिन्होंने तौरेत शरीफ़ को पढ़ा है वो जानते हैं कि ये क़िस्सा इल्हाम मूसा में इस तरह नहीं है लेकिन हम जानते यं कि हज़रत मुहम्मद ने इस को रिवायत से सीखा क्योंकि रबियाना किताब मौसूमा-बह-तागमथन पर के रब्बी अलीअज़र बाब 21 में यूं मुंदर्ज है:—
आदम और हवा बैठ कर हाबील पर मातम करने लगे और नहीं जानते थे कि इस की लाश से किया करें। क्योंकि वो दफ़न करना नहीं जानते थे। तब एक कव्वा जिसका साथी मर गया था आया और उन के सामने ज़मीन खोद कर उस को दफ़न कर दिया। तब आदम ने कहा में भी ऐसा ही करूंगा जैसा कि इस कव्वे ने किया है चुनांचे आदम ने उठ कर फ़ौरन एक क़ब्र खोदी और हाबील की लाश इस में दफ़न कर दिया।
इस से साफ़ ज़ाहिर होता है कि हज़रत मुहम्मद ने ये कहानी रब्बियों की तसानीफ़ से सुनी थी और यह जान कर कि ये बाइबल का बयान है थोड़े से रद्दो-बदल से काम लेकर उसे वही आस्मानी के नाम से पेश कर दिया।
हज़रत इब्राहिम के क़िस्सों से क़ुरआन भरा पड़ा है। ये क़िस्से बाअज़ उमूर में बाइबल के बयानात के बिल्कुल बरअक्स व मुतनाक़ज़ हैं लेकिन रब्बियों की रिवायत से उनका मुक़ाबला करें तो बिल्कुल अयाँ हो जाता है कि आँहज़रत ने ये क़िस्से उन्ही लोगों से सीखे थे। फिर क़ुरआन में बार-बार लिखा है कि एक बादशाह ने (जिसे मुफ़स्सिरीन नमरूद लिखते हैं) हज़रत इब्राहिम को आग में डाल दिया था और वजह ये थी कि आपने बुत-परस्ती से किया था। चुनांचे सूरह अम्बिया की 69 वीं और 71 वीं आयत में मर्क़ूम है कि जब हज़रत इब्राहिम आग में डाले गए तो ख़ुदाए ताअला ने फ़र्मा दिया :—
يَا نَارُ كُونِي بَرْدًا وَسَلامًا عَلَى إِبْرَاهِيمَ وَأَرَادُوا بِهِ كَيْدًا فَجَعَلْنَاهُمُ الأَخْسَرِينَ وَنَجَّيْنَاهُ
तर्जुमा: ए आग इब्राहिम पर सर्द और सलामती हो जा...और हम ने उसको बचा लिया।
अब ये एक अजीब हक़ीक़त है कि इस अफ़्साने का बाइबल में तो नाम व निशान तक नहीं मिलता और इस की कोई बुनियाद पाई नहीं जाती लेकिन यहूदीयों की एक किताब मुसम्मा बह मिदराश रुबा में मुफ़स्सिल दर्ज है। तौरेत से मालूम होता है कि हज़रत इब्राहिम कनआन की ज़मीन में दाख़िल होने से पहले कस्दीयों के मुल्क में शहर ऊर में रहते थे। लेकिन ख़ुदा ने इन को वहां से निकाल कर मुल्क मौऊद में पहुंचाया। चुनांचे मर्क़ूम है :—
मैं ख़ुदावंद हूँ जो तुझे कस्दीयों को ऊर से निकाल लाया I (पैदाईश 15:4)
मिदराश का मुसन्निफ़ इस शहर से बिल्कुल नावाकिफ था और लफ्ज़ ऊर के लफ्ज़ी माअने आग के भी है इसलिए मुन्दर्जा-बाला आयत को यूँ समझा “मैं खुदावंद तुझको कस्दियों कि आग से निकाल लाया”
चुनांचे इस ग़लती के सबब से इस ने इस आयत की तफ़्सीर में इब्राहिम के आग में डाले जाने और फिर मोजज़ाना तौर पर बचाए जाने का क़िस्सा घड़ा। इब्राहिम का ये तमाम क़िस्सा मिदराश मज़कूर में मुंदर्ज है और हज़रत मुहम्मद के हम-असर यहूदी जो अरब में रहते थे इस क़िस्सा से ख़ूब वाक़िफ़ थे। मिदराश में लिखा है कि :—
जब बुतपरस्ती से इन्कार करने के बाइस से नमरूद ने इब्राहिम को आग में डाल दिया तो आग को इजाज़त ना मिली कि उसे कुछ नुक़्सान पहुंचाए।
अब हम बख़ूबी समझ सकते हैं कि हज़रत इब्राहिम के आग में डाले और निकाले जाने की क़ुरआनी हिकायत कहाँ से ली गई है।
मुसन्निफ़-ए-क़ुरआन भी मिदराश के मुसन्निफ़ की तरह लफ़्ज़ ऊर के हक़ीक़ी मतलब से नावाक़िफ़ व ला-इल्म मालूम होता है। इस क़िस्सा की तवारीख़ी बतालत के सबूत में इतना कहना काफ़ी होगा कि नमरूद हज़रत इब्राहिम का हम-असर नहीं था बल्कि इस से बहुत अरसा पेशतर हो गुज़रा था।
फिर सूरह ताहा में एक और हिकायत मुंदर्ज है जिसमें बयान किया गया है कि कोह-ए-सेना पर बनी-इस्राइल ने एक बिछड़े की परसतिश की। ये हिकायत भी यहूदी असल की है क्योंकि इस में मर्क़ूम है कि लोगों ने अपने सोने चांदी के जे़वरात जमा करके आग में डाले और फिर 90 वीं आयत यूं बयान करती है :—
فَكَذَلِكَ أَلْقَى السَّامِرِيُّ فَأَخْرَجَ لَهُمْ عِجْلا جَسَدًا لَهُ خُوَارٌ
फिर यह नक़्शा डाला सामरी ने पस बना निकाला उन के वास्ते एक बछड़ा। एक जिस्म गाय की आवाज़ के साथ I
तौरेत में इस बात का मुतलक़ ज़िक्र तक नहीं मिलता कि वो बिछड़ा बाआवाज़ था। लेकिन हज़रत मुहम्मद की हिकायत का माख़ज़ रब्बी अलीअज़र का लिखना है कि वो बछड़ा ज़ोर की आवाज़ करके निकला और बनी-इस्राइल ने उसे देखा I रब्बी यहुदाह एक और ही बयान पेश करता है। वो कहता है:—
एक शख़्स सामुएल नामी ने बछड़े के बुत में छिप कर बछड़े की आवाज़ निकाली ताकि बनी-इस्राइल को गुमराह करे।
हज़रत मुहम्मद के वक़्त यहूदीयों में जो अरब में सुकूनत पज़ीर थे ये कहानी मशहूर थी । अगर इस कहानी का क़ुरआनी क़िस्सा से मुक़ाबला किया जाये तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने अपने हम-असर यहूदीयों की ज़बानी जो कुछ सुना उसे कुतुब आस्मानी का जुज़ ख़्याल करके अपने हसब-ए-मंशा लिख रखा और बाद में जाहिलों के सामने वही आस्मानी के नाम से पेश कर दिया।
बेचारे हज़रत मुहम्मद ठीक तौर से समुएल की बाबत कुछ ना समझ सके बल्कि उस की जगह सामरी लोगों के ख़्याल में जा उलझे। ग़ालिबन इसका सबब यही था कि आँहज़रत सामरियों को यहूदीयों के दुश्मन जानते थे । आपने सामरी को उस बुरे काम में हिस्सा लेने वाला बयान किया लेकिन हक़ तो यही है कि इस बयान में आपने बड़ी ग़लती की क्योंकि सामरी लोगों का तो उस वक़्त कहीं नामोनिशान भी ना था बल्कि सामरियों का वजूद इस वाक़िया के सदहा साल बाद से है। इस क़ुरआनी क़िस्सा को वही आस्मानी तस्लीम करने के लिए आला दर्जा की सादगी और सरीअ-उल-एतक़ादी की ज़रूरत है।
सूरह नमल में सुलेमान और सबा की मलिका की एक तवील हिकायत मुंदर्ज है। लिखा है कि सुलेमान ने मलिका मज़कूर को एक परिंदे के वसीले से एक ख़त भेजा और इस का नतीजा ये हुआ कि मलिका ने सुलेमान की मुलाक़ात का निहायत मुसम्मम इरादा कर लिया। आख़िर-ए-कार जब सुलेमान के महल के दरवाज़ा पर पहुंची तो 44 वीं आयत के अल्फ़ाज़ यूं हैं :—
قِيلَ لَهَا ادْخُلِي الصَّرْحَ فَلَمَّا رَأَتْهُ حَسِبَتْهُ لُجَّةً وَكَشَفَتْ عَن سَاقَيْهَا قَالَ إِنَّهُ صَرْحٌ مُّمَرَّدٌ مِّن قَوَارِيرَ
किसी ने मलिका से कहा महल में दाख़िल हो पस इस ने महल के फ़र्श को देखकर ख़्याल किया कि वो गहिरा पानी है और अपना पाएजामा पिंडुलीयों से ऊंचा खींच लिया। इस ने कहा ये पानी नहीं महल का फ़र्श है। जिसमें शीशे लगे हैं, ये सुनकर मलिका ने एक पक्के मुसलमान की तरह जवाब दिया :—
ربِّ إِنِّي ظَلَمْتُ نَفْسِي وَأَسْلَمْتُ مَعَ سُلَيْمَانَ لِلَّهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ
मैंने अपनी जान पर ज़ुल्म किया है और ए मेरे रब, और सुलेमान के साथ में अल्लाह रब-उल-आलमीन की फ़रमांबर्दार हूँ।
किताब मुक़द्दस के पढ़ने वाले सब जानते हैं कि ये महिज़ अफ़साना है और कलाम-उल्लाह में इस का वजूद मादूम है। लिहाज़ा ये सवाल पेश आता है कि इस हिकायत का माख़ज़ किया है?
रब्बियों की एक किताब क़िस्सों कहानीयों से पुर है और ये अफ़साना जो हज़रत मुहम्मद ने सुनाया यह लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ इस में मौजूद है। चुनांचे इस किताब में लिखा है कि :—
जब सुलेमान को मालूम हुआ कि मलिका आई है तो उठा और आकर शीश-महल में बैठा। जब सबह की मलिका ने देखा तो शीशे के फ़र्श को पानी समझी और उस के उबूर करने के लिए कपड़े ऊपर खींच लिए"।
हम इस किताब से और बहुत कुछ नक़ल करके दिखा सकते हैं। जिसमें परिंदे को ख़त देकर भेजने वग़ैरा का मुफ़स्सिल ज़िक्र है लेकिन जो कुछ हम लिख चुके हैं इसी से बख़ूबी साबित होता है कि ये हिकायत जैसी कि क़ुरआन में पाई जाती है बिल्कुल हज़रत मुहम्मद ने यहूदीयों से सीखी थी इस मलिका और सुलेमान का सच्चा तवारीख़ी हाल बाइबल में मिलेगा। देखो 1 सलातीन 10 बाब और इस से अज़हर-मिन-अश्शम्स हो जाएगा कि हक़ीक़त और तसनाअ में कैसा ज़मीन व आस्मान का फ़र्क़ है।
एक और ऐसी ही कहानी वहमी व ख़याली जो आँहज़रत ने यहूदीयों से सीखी और क़ुरआन में दर्ज कर ली है कि ख़ुदा ने बनी-इस्राइल को डराने के लिए एक पहाड़ उन के सिर पर लाक़ाइम किया गोया कि उन पर गिरने ही को था। चुनांचे सूरह आराफ़ की 170 वीं आयत में यूं मर्क़ूम है :—
وَإِذ نَتَقْنَا الْجَبَلَ فَوْقَهُمْ كَأَنَّهُ ظُلَّةٌ وَظَنُّواْ أَنَّهُ وَاقِعٌ بِهِمْ
और जिस वक़्त उठाया हमने पहाड़ उन के सिर पर जैसे सायाबान और डरे कि वो
गिरेगा उन पर I
ये हिकायत फ़िल-हक़ीक़त बिल्कुल बे-बुनियाद है लेकिन यहूदीयों के एक किताबचा अब्बू दाह साराह में पाई जाती है। तौरेत में इस किस्म का बयान कहीं नहीं मिलता। फ़क़त यही लिखा है कि जब ख़ुदा कोह-ए-सीना पर मूसा को शरीयत दे रहा था उस वक़्त तमाम बनी-इस्राइल दामन-ए-कोह में खड़े थे। थोड़े ही अरसा बाद यहूदी मुफ़स्सिरीन ने वही कहानी वज़ाअ कर ली कि ख़ुदा ने पहाड़ को बनी-इस्राइल पर उठाया अब्बू दाह सारा की मुंदरजा हिकायत में ख़ुदा बनी-इस्राइल से कहता है :—
मैंने पहाड़ को तुम पर सर-पोश की मानिंद रखा है।
एक और किताब में यूं मुंदर्ज है :—
ख़ुदा ने पहाड़ को उन पर हंडिया की मानिंद रखा और फ़रमाया कि अगर तुम शरीयत को क़बूल कर लो तो बेहतर वर्ना यही तुम्हारी क़ब्र है।
ये अफ़साना भी आँहज़रत के हम-असर यहूदीयों में जो अरब में आबाद थे राइज थे। आपने उन से सुनकर क़ुरआन में दर्ज कर लिया और फिर तमाम मुसलमानों को ये हुक्म दिया कि हमेशा उसको कलाम-उल्लाह तस्लीम करें जो अज़ल से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था और जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त आँहज़रत पर नाज़िल हुआ।
मुंदरजा-बाला लगू अफ़्साने की मिसाल क़ुरआन से बाहर कहीं नहीं मिलती। चुनांचे ऐसा लगू अफ़साना फ़रिश्तों के गिरने के बारे में सूरह अल-हिज्र की 16 वीं आयत से 18 वीं आयत तक निहायत संजीदगी से मुंदर्ज है कि जो कुछ आस्मान पर कहा जाता है शयातिन उसे सुनने की कोशिश करते हैं और फ़रिश्ते उन पर शहाब फेंक कर उन्हें भगा देते हैं। मसलन यूं मर्क़ूम है :—
وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاء بُرُوجًا وَزَيَّنَّاهَا لِلنَّاظِرِينَ وَحَفِظْنَاهَا مِن كُلِّ شَيْطَانٍ رَّجِيمٍ إِلاَّ مَنِ اسْتَرَقَ السَّمْعَ فَأَتْبَعَهُ شِهَابٌ مُّبِينٌ
तर्जुमा: और हम ने आस्मान में बुरुज बनाए हैं और देखने वालों के लिए उसे ज़ीनत दी है और हर शैतान मर्दूद से उसे महफ़ूज़ रखा है लेकिन जो चोरी से सुन जाता है रोशन शहाब उस का तआक़ुब करता है।
और फिर सूरह अल-मुल्क में यूं मुंदर्ज है :—
وَجَعَلْنٰهَا رُجُوْمًا لِّلشَّـيٰطِيْنِ
तर्जुमा: और हम ने सितारों को शयातीन के लिए मार बनाया I
आँहज़रत ने शहाब-ए-साक़िब का ख़ूब बयान किया और कुल भेद बता दिया आँहज़रत ने ये भी ख़्याल किया कि शयातीन आस्मान पर जाकर ईलाही दरबार में फ़रिश्तों की मश्वरत और दीगर राज़ व रमोज़ की बातें सुन आते थे। ये आपकी जिद्दत पसंद तबीयत का नतीजा नहीं था बल्कि यहूदीयों की एक किताब में मर्क़ूम है कि :—
शयातीन पर्दे के पीछे से आइन्दा के मुताल्लिक़ बातें सुनते हैं।
इन अफ़्सानों पर कुछ और कहने की ज़रूरत मालूम नहीं होती। हमें पुख़्ता यक़ीन है कि कोई बाहोश मुसलमान उनको कलाम-उल्लाह तस्लीम नहीं करेगा। इन अफ़्सानों का क़ुरआन में पाया जाना ही बड़ा भारी सबूत है और इस अम्र की आला दलील है कि क़ुरआन इख़तिरा इन्सानी है।
इस मज़मून पर और बहुत कुछ लिखा जा सकता है और बख़ूबी तशरीहन साबित हो सकता है कि आँहज़रत के ख़्यालात किस क़दर यहूदीयों से लिए हुए थे जिनको बाद में अपने क़ुरआन में दर्ज करके वही आस्मानी के नाम से नामज़द किया लेकिन इस किताबचा में ऐसे तवील बयानात की गुंजाइश नहीं लिहाज़ा हम दो तीन और मिसालें पेश करके इस बात को ख़त्म करेंगे।
चूँकि यहूदी और साइबीन दोनों हर साल एक महीना रोज़ा रखते थे लिहाज़ा ये दर्याफ़्त करना आसान नहीं कि आँहज़रत ने क़ुरआनी रोज़े यहूदीयों से लिए या साइबीन से लेकिन रोज़ों के बारे में एक क़ायदा ऐसा मौजूद है जो बिल्कुल यहूदी असल का है। चुनांचे सूरह अलबक़रा की 186 वीं आयत में मुंदर्ज है :—
وَكُلُواْ وَاشْرَبُواْ حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّواْ الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ
तर्जुमा: और खाओ पियो जब तक तुम फ़ज्र की सफ़ैद धारी से स्याह धारी साफ़ जद नज़र ना आए। फिर पूरा करो रोज़ा रात तक।
ये क़ायदा आँहज़रत को इल्हाम से हासिल नहीं था बल्कि मुद्दतों पेशतर से यहूदीयों में रोज़ा के मुताल्लिक़ ऐसे क़वाइद मौजूद थे और आप ने ये क़ायदा उन्ही से सीखा। चुनांचे यहूदीयों की एक किताब मुसम्मा-बह-मिसना-बैरा-खोथा में लिखा है कि :—
रोज़ा उस वक़्त से शुरू होता था जब नीले और सफ़ैद तार में तमीज़ हो सकती थी।
हर एक मुसलमान को इस बात पर ईमान लाना फ़र्ज़ है कि तस्नीफ़-ए-क़ुरआन में आँहज़रत को मुताल्लिक़ दख़ल नहीं बल्कि तमाम क़ुरआन लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था और वहां से वही की मार्फ़त आप पर नाज़िल हुआ। लेकिन ब-खिलाफ उस के अब हम ये साबित करेंगे कि लौह-ए-महफ़ूज़ का ख़्याल तक भी आपने यहूदीयों ही से उड़ा लिया था। सूरह अल-बुरुज की 21 वीं आयत में मर्क़ूम है :—
بَلْ هُوَ قُرْآنٌ مَّجِيدٌفِي لَوْحٍ مَّحْفُوظٍ
तर्जुमा: बल्कि ये क़ुरआन-ए-मजीद लौह-ए-महफ़ूज़ पर मर्क़ूम था I
इस अजीब अफ़्साने का मुहम्मदी अहादीस में बहुत तवील बयान पाया जाता है। नमूना के तौर पर हम अहादीसी वहमी हिकायात की तशरीह की ग़रज़ से क़ससुल-अम्बिया से एक हिकायत जे़ल में दर्ज करते हैं । चुनांचे यूं मर्क़ूम है कि :—
इब्तिदा में ख़ुदा ने अपने तख़्त के नीचे एक मोती पैदा किया और इस मोती से इस ने लौह-ए-महफ़ूज़ पैदा की। इस की बुलंदी सात सौ बरस की राह थी और इस की चौड़ाई तीन सौ साल का सफ़र था।
फिर क़लम की पैदाइश का बयान करके मुसन्निफ़ लिखता है :—
चुनांचे क़लम ने ख़ुदाए ताअला की तमाम मख़लूक़ का इल्म लिखा I
यानी ख़ुदा का इल्म इस तमाम मख़लूक़ के बारे में जो वो पैदा करना चाहता था, हर एक चीज़ का इल्म जो रोज़ क़ियामत तक ख़ुदा के इरादे में थी। यहां तक कि हर एक दरख़्त के हर एक पत्ते का हिलना और गिरना भी ख़ुदाए ताअला की क़ुदरत से लिखा।
लौह पर कलाम-ए-ख़ुदा के लिखे जाने का ख़्याल तौरेत के इल्हामी बयान से लिया गया है। जहां ख़ुदा मूसा से फ़रमाता है :—
अपने लिए पत्थर की दो तख़्तियाँ पहलियों की मानिंद तराश के बिना और पहाड़ पर मुझ पास चढ़ आ और एक चोबी संदूक़ बना और मैं उन तख़्तीयों पर वही बातें लिखूंगा जो पहली तख़्तीयों पर जिन्हें तूने तोड़ डाला लिखी थीं। बाद उस के तमाम उनको संदूक़ में रखियो I (इस्तस्ना 10: 1से 2)
यही बात अज़हद काबिल-ए-ग़ौर है कि वही इब्रानी लफ़्ज़ "लोख़" जो तौरेत में इन तख़्तीयों के लिए इस्तिमाल हुआ है हज़रत मुहम्मद ने अपनी ख़्याली "लौह-ए-महफ़ूज़" के लिए अरबी सूरत "लौह" में इस्तिमाल किया है। आँहज़रत ने बसा-औक़ात यहूदीयों से उन तख़्तीयों का ज़िक्र सुना था जो संदूक़ में रखी गई थीं। फिर उस ख़्याल से कि क़ुरआन की असलीयत कुछ कम दर्जा की ना समझी जाये आपने ये क़िस्सा घड़ लिया कि क़ुरआन लिख कर आस्मान पर रखा गया और ता-वक़्त नुज़ूल लौह-ए-महफ़ूज़ पर महफ़ूज़ रहा। फिर आँहज़रत ने कोताहअंदेशी से ख़ुदा को यूं कहते हुए पेश किया कि :—
وَلَقَدْ كَتَبْنَا فِي الزَّبُوْرِ مِنْۢ بَعْدِ الذِّكْرِ اَنَّ الْاَرْضَ يَرِثُهَا عِبَادِيَ الصّٰلِحُوْنَ
और हम ने लिख दिया है ज़बूर में नसहीत के बाद कि आख़िर ज़मीन के वारिस होंगे मेरे नेक बंदे"।
इससे हमेशा इस्लाम के पांव उखड़ते चले आए हैं। क़ुरआन शरीफ़ का दावा तो ये है कि इस की तमाम इबारत अज़ल ही से लौह-ए-महफ़ूज़ पर लिखी थी और फिर ज़बूर से इक़तिबास करता है जिसका वजूद अभी दो हज़ार बरस का भी ना था । बहुत से ज़ी-होश अस्हाब के लिए यही इस बात का काफ़ी सबूत होगा कि क़ुरआन ज़रूर ज़बूर के बाद की तस्नीफ़ है।
अगर इस अम्र के मज़ीद सबूत की ज़रूरत हो कि क़ुरआन तालमुदी यहूदियत पर मबनी है तो जो बहुत से इब्रानी असल अल्फ़ाज़ क़ुरआन में मौजूद हैं इन में मिलेगा मसलन जे़ल के अल्फ़ाज़ सब के सब इब्रानी असल के हैं :—
ताबूत (تابوت) , तौराह (توراہ) , अदन (عدن) , जहन्नुम (جھنم) , अहबार (احبار) , सब्त (سبت) , सकीना (سکینہ) , ताग़ूत (طاغوت) , फुर्क़ान (فرقان) , माउन (ماعون) , मसानी (مثانی) , और मलकूत (ملکوت) ,
अगर किसी को ऐसी तहक़ीक़ का और शौक़ हो तो डाक्टर इमाद-उद्दीन की किताब हिदायत-अलमुस्लिमीन में एक सौ चौदह ग़ैर अरबी अल्फ़ाज़ की फ़हरिस्त देख ले जो कि क़ुरआन में पाए जाते हैं। डाक्टर इमाद-उद्दीन ने इन अल्फ़ाज़ के पहले असली मआनी भी लिखे हैं।