यनाबि-उल-क़ुरआन

बाब-ए-अव़्वल

बदवी अक़ाइद व रसूम का क़ुरआन में इंदिराज

तमाम दुनिया में इस्लाम मन माना मज़हब कहला सकता है हज़रत मुहम्मद बानी-ए-इस्लाम ने इन तमाम मुख़्तलिफ़ और मतलब की बातों को जिन तक आपकी रसाई हुई इस्लाम में दाख़िल कर लिया है।

उमूमन यही ख़्याल किया जाता है कि इब्तिदा में हज़रत मुहम्मद ने अपने अह्ले वतन के सामने ये बड़ी हक़ीक़त पेश की कि वो ख़ुदा वाहिद है। आपका ये दावा था कि तौहीद ईलाही वही के वसीले से आप को सिखाई गई। चुनांचे सूरह अनआम की एक सौ छठी आयत में यूं मर्कुम है:—

اتَّبِعْ مَا أُوحِيَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ لا إِلَـهَ إِلاَّ هُوَ

तू चल उसी पर जो हुक्म आवे तुझको तेरे रब से कोई माबूद नहीं सिवाए उस के

अरब में यहूदी और मसीही मौजूद थे जिनसे हज़रत मुहम्मद ख़ुदा की तौहीद की तालीम पा सकते थे इलावा इस के तवारीख़-ए-अरब की थोड़ी से वाक़्फ़ीयत बतला देगी कि हज़रत मुहम्मद के ज़माने से मुद्दतों पेशतर अहले-अरब ख़ुदाए ताअला को जानते और उस की इबादत करते थे। इस्लाम से पेशतर के अरबी इल्म-ए-अदब में "इलाह" आम तौर पर माबूद के माअनों में इस्तिमाल होता था लेकिन “अल-इलाह” जिसका मुख़फ़्फ़फ़ "अल्लाह" है हमेशा ख़ुदा-ए-अज़्ज़ओ-जल वह्दहू लाशरीक ला के लिए इस्तिमाल किया जाता था चुनांचे नाबिग़ा और लबीद बुत-परस्त शायर लफ़्ज़ "अल्लाह" इन्ही माअनों में बार-बार इस्तिमाल करते हैं। और मशहूर मोअल्लक़ात में भी यही लफ़्ज़ इन्ही माअनों में इस्तिमाल किया गया है। फिर इब्न हिशाम लिखता है कि "क़बीला क़ुरैश के लोग "अहलाल" की रस्म अदा करते वक़्त कहा करते थे :—

"ऐ ख़ुदा हम तेरी ख़िदमत में हाज़िर हैं । तेरे ख़ौफ़ के सिवाए तेरा कोई शरीक नहीं है। वो तेरा है और जो कुछ उस का है वो भी तेरा है"

इलावा-बरीं यही अम्र भी काबिल-ए-याद है कि काअबा हज़रत मुहम्मद से सदहा साल पेशतर ही से बैतुल्लाह यानी ख़ाना ख़ुदा के नाम से मशहूर था और फिर हज़रत मुहम्मद के बाप के नाम अब्दुल्लाह से भी ज़ाहिर होता है कि अल्लाह का बहुत इस्तिमाल होता था।

सर सय्यद अहमद ने अपनी किताब में जो क़ब्ल अज़-इस्लाम के अरबों के बयान में है इस बात को साफ़ माना है कि हज़रत मुहम्मद से पेशतर अरब में ख़ुदा-परस्त फ़िरक़े मौजूद थे। चुनांचे वो लिखते हैं कि :—

"ज़माना-ए-जाहिलीयत में ख़ुदा-परस्त अरबों की दो गिरोहें थीं। दूसरी गिरोह के लोग सच्चे ख़ुदा की इबादत करते थे और, रोज़ इन्साफ़ व क़यामत पर ईमान रखते थे। वो यह भी मानते थे कि रूह ग़ैर-फ़ानी है और इस ज़मीनी ज़िंदगी के नेक व बद आमाल के लिए जज़ा व सज़ा मिलेगी। लेकिन वो ना नबी को मानते थे और ना वही व इल्हाम के मोअतक़िद थे। इस्लाम से पेशतर अरब में चार ऐसे ख़ुदा-परस्त फ़िरक़े पाए जाते थे जो वही इल्हाम के मोतक़िद थे और जिन्हों ने वक़तन-फ़-वक़तन ख़ूब रिवाज पाया वो साइबीन,  हनीफ़, यहूदी और मसीही कहलाते थे"।

पस साफ़ ज़ाहिर है कि आँहज़रत के हमअसर अल्लाह अज़्ज़-ओ-जल से बे-ख़बर ना थे और आँहज़रत का ख़ुद भी क़बल अज़ दावा-ए-नुबूव्वत यही हाल था कि आपने ये दावा किया कि आपने वही आस्मानी से तौहीद की तालीम पाई। ऐसी हालत में कुछ ताज्जुब नहीं अगर अरबों ने कहा أَسَاطِيرُ الْأَوَّلِينَ 3 पहले लोगों के क़िस्से सुनाते हो। और जब आपने उन को इस्लाम की दावत दी और कहा कि मेरे वही आस्मानी पर ईमान लाओ तो उन्हों ने कहा "‏‏شَاعِرٌ‏‎‎" 4 यानी आप शायर हैं और यह वही आस्मानी नहीं बल्कि आपकी अपनी बनाई हुई बातें हैं।

आँहज़रत की विलादत से थोड़ा ही अरसा पेशतर फ़िर्क़ा हनीफ़ ने रिवाज पाया। इस फ़िर्क़ा के लोगों ने बड़ी सरगर्मी से इस्लाह शुरू की और बुत-परस्ती को बिल्कुल तर्क करके वाहिद सच्चे ख़ुदा की इबादत करने लगे। इन हक़ जो इस्लाह कननद-गान के पेशवा विस्र गिरोह वर्क़ा बिन नौफ़ल, उबैदुल्लाह इब्न हब्श, उस्मान इब्न अलहवीरस और जै़द बिन उमरू थे एक हदीस में मर्क़ूम है कि "जै़द ने लक़ब-ए-हनीफ़ यूं इख़्तियार किया कि एक मर्तबा एक मसीही और एक यहूदी उस को हनीफ़ होने की तरग़ीब दे रहे थे। जै़द उस वक़्त बुतपरस्ती को छोड़ चुका था और मसीही या यहूदी भी नहीं हो सकता था। इस ने पूछा कि हनीफ़ किस को कहते हैं ? इन दोनों ने कहा कि हनीफ़ इब्राहिम का मज़हब है जो सिवाए ख़ुदा के किसी और की परश्तिस नहीं करता था। इस पर जै़द ने कहा ऐ ख़ुदा मैं इक़रार करता हूँ कि मैं इब्राहिमी मज़हब की पैरवी करूंगा"।

इब्न हिशाम जो आँहज़रत के क़दीम तरीन और काबिल एतिमाद सवानिह निगारों में से है अपनी किताब सीरत अल-रसूल में यूं लिखता है:—

" فاما ورقہ بن نوفل فاستحکمہ فی النصرانیہ واتبع الکتاب من اھلما حتی علم علما من اھل الکتاب"

वर्क़ा बिन नौफ़ल ने नसरानी हो कर इस दीन की किताबों को ख़ूब पढ़ा यहां तक कि अहले-किताब के बड़े बड़े आलिमों में से हो गया।

मुस्लिम लिखता है कि यही वर्क़ा बीबी ख़दीजा का उम-ज़ाद भाई था और उस ने इंजील को अरबी ज़बान में तर्जुमा किया। इन दिलचस्प हक़ीक़तों से बाआसानी जे़ल के एक दौर नतीजे निकल सकते हैं। अव्वल ये कि हज़रत मुहम्मद को ज़रूर अक्सर औक़ात वर्क़ा से मुलाक़ात और गुफ़्तगु का मौक़ा मिला। दोम फ़िर्क़ा हनीफ़ के लोगों से सोहबत रखने से आप बाआसानी तमाम तौहीद ईलाही की तालीम पा सकते थे। लेकिन इस में ज़रा शक नहीं कि आपके जिस क़दर ख़्यालात ख़ुदा के मुताल्लिक़ थे वो ज़्यादातर इन्ही लोगों की सोहबत से हासिल हुए थे। यहां तक कि जब आप इस्लाम के मुनाद बने तो आप की तक़रीरों का मज़मून ज़्यादा-तर यही था कि मैं इब्राहिमी मज़हब हनीफ़ का मुनाद हो कर आया हूँ। क़ुरआन में इस का बार-बार ज़िक्र किया गया है लेकिन हम सिर्फ चंद मुक़ाम नक़ल करते हैं। सूरह अनआम की एक सौ बासठवीं आयत में मर्क़ूम है:—

قُلْ إِنَّنِي هَدَانِي رَبِّي إِلَى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ دِينًا قِيَمًا مِّلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا

तू कह मुझे तो मेरे रब ने मिल्लत इब्राहिम हनीफ़ सच्चे दीन की राह-ए-रास्त की हिदायत फ़रमाई है।

फिर सूरह आल-ए-इमरान की 95 वीं आयत में लिखा है :—

فَاتَّبِعُواْ مِلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا

अब इब्राहीम के दीन के ताबे हो जाओ।

ना सिर्फ वाहिद सच्चे ख़ुदा का ख़्याल ही आँहज़रत के हम-असरों में मौजूद था बल्कि इस में भी कलाम नहीं और किसी तरह के शक व शुबहा को जगह नहीं कि बहुत सी रसूम-ए-हज भी मुद्दतों से पेशतर बुतपरस्त अरबों में राइज थीं अगरचे आपने दावा कर दिया कि ये रसूम भी आपने वही आस्मानी से सीखीं।

मशहूर मुसलमान मुअर्रिख़ अबूल-फ़िदा इन हक़ीक़तों का निहायत सफ़ाई से मोअतरिफ़ है इस की मशहूर तवारीख़ में लिखा है :—

वो (इस्लाम से पेशतर के अरब) काअबा का हज किया करते थे और उमरा व एहराम की रसूम को बजा लाते थे और तवाफ़ भी करते थे। सफ़ा-ओ-मर्वा पर दौड़ते और पत्थर फेंकते थे और हर तीसरे साल के आख़िर में एक महीना उज़लत-ओ-ज़ावीया नशीनी में बसर करते थे....वो खतना करते और चोर का दायाँ हाथ काट डालते थे I

अबुल-फ़िदा की ये शहादत किसी तरह से शक की गुंजाइश नहीं छोड़ती कि आँहज़रत के ज़माना से पेशतर ही से ये तमाम रसूम और तहारत वूज़ू वग़ैरा के तरीक़े और दस्तूर जारी थे। आपने उन को लिया और हसबे मौक़ा बयान किया और फ़रमाया कि ये सब कुछ वही आस्मानी की मार्फ़त पहुंचा है। आपके सहाबा को भी आपके मुवह्हिदाना दीन और बुतपरस्ती की पुरानी रसूम को ततबीक़ देने में बड़ी मुश्किल पेश आई। चुनांचे मुस्लिम से रिवायत है :—

قبل عمر بن الخطاب رضی اللہ تعالیٰ عنہ الحجر ثمہ قال امہ واللہ لقد علمت انک حجر ولولہ انی رایت رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلیم یقبلک ماقبلتک

उमर इब्न खत्ताब ने संग-ए-असवद को चूमा और फ़रमाया। बख़ुदा मैं जानता हूँ कि तू महिज़ पारा संग है। अगर मेरे सामने रसूलअल्लाह ने तुझे ना चूमा होता तो मैं हरगिज़ हरगिज़ तुझको ना चूमता।

लेकिन हज़रत मुहम्मद का सरक़ा रसूम व रिवायात अहले-अरब तक ही महदूद नहीं था बल्कि आपको सीरिया और दीगर मुक़ामात के सफ़र का इत्तिफ़ाक़ हुआ और वहां अहले फ़ारस और दीगर अक़्वाम व मज़ाहीब के लोगों से आपको साबिक़ा पड़ा। इस से आप को जन्नत व जहनम और रोज़ इन्साफ़ और सज़ा व जज़ा के मुताल्लिक़ बहुत से ख़्यालात मिल गए जो आप ने बाद में कुछ रद्दो-बदल करके ख़ास क़ुरैशी अरबी में पेश किए और फ़रमाया कि ये सब कुछ जिब्राईल आस्मान से लाया है। चुनांचे आँहज़रत का सवानिह निगार इब्न हिशाम एक शख़्स सलमान नामी का ज़िक्र करता है जो आख़िर-कार आपके सहाबा किराम में शुमार किया गया। आपको अहले फ़ारस की हिकायात व रिवायात के सीखने का अरब ही में काफ़ी मौक़ा था क्योंकि अरब में अहले फ़ारस के अफ़्साने मुद्दत से जारी थे और उनके मोअतक़िदात बहुत अर्से से तासीर कर रहे थे । हज़रत मुहम्मद के ज़माना से थोड़ा ही अरसा पेशतर फ़ारसी हाकिम मुतवातिर-हिरा, इराक़ ,और यमन पर हुकूमत कर चुके थे। इस में शक नहीं कि इन मुहज़्ज़ब फ़ातिह, शाहज़ादों के अत्वार व अख़लाक़ और दीगर उमूर ने अहले-अरब पर बड़ी तासीर की होगी चुनांचे उस का सबूत इस बात में साफ़ नज़र आता है कि अहले-अरब पर मैं फ़ारसी रिवायात व हिकायात ख़ूब मुरव्वज थीं और फ़ारसी अशआर बहुत कसरत से जारी थे। इब्न हिशाम की तस्नीफ़ में इस एक निहायत साफ़ मिसाल मौजूद है। ये मुसन्निफ़ ये लिखता है कि इब्तदाए इस्लाम में ना सिर्फ फ़ारसी हिकायात मदीना में राइज ही थीं बल्कि अहले क़ुरैश क़ुरआनी क़िस्सों से उनका मुक़ाबला किया करते थे । एक दिन नाज़िर इब्न हारिस ने अहले क़ुरैश के सामने शाहान-ए-फ़ारस की चंद हिकायात पढ़ी और बाद में यूं कहा:—

واللہ مامحمد باحسن حدیثا منی وماحدیثہ الاساطریر الاولین اکتبہ کما اکتتبہ

बख़ुदा मुहम्मद की हिकायात मेरी हिकायात से कुछ बेहतर नहीं हैं। वो महिज़ गुज़शता लोगों की कहानियां हैं जिन को इस ने लिखा लिया है जैसे कि मैंने अपनी कहानियां लिख रखी हैं।

रोज़तुल-अहबाब के मुसन्निफ़ का बयान इस से भी ज़्यादा साफ़ है। चुनांचे वो लिखता है कि :—

नबी की ये आदत थी कि जो कोई मुलाक़ात को आता था इस से उसी की ज़बान में गुफ़्तगु करते थे। लिहाज़ा नतीजा अरबी ज़बान में बहुत से फ़ारसी  अल्फ़ाज़ पाए जाते हैं जो इस तरह से दाख़िल हो गए ।

इस तबाही ख़ेज़ एतराफ़ से क़ुरआन के बहुत से हिस्सों के लिए किलीद उल-क़ुरआन मिल जाती है। जिन हिस्सों को समझना बहुत मुश्किल था वो इस एतराफ़ से आसान हो जाते हैं क्योंकि बहुत से फ़ारसी  अल्फ़ाज़ व अक़ाइद जो क़ुरआन में पाए जाते हैं इन को समझने में बहुत सहूलत हो जाती है । क़ुरआन में जो बहिश्त दोज़ख़ और मौत व क़यामत और रोज़ इन्साफ़ वग़ैरा के बयान पाए जाते हैं अगर उन का ज़रतशती पैदाइश आलम से मुक़ाबला किया जाये तो अज़हर मिन अश्शम्स हो जाएगा कि हज़रत मुहम्मद ने ये सब कुछ उन फ़ारसियों से सीखा जिन से आप को रबत ज़बत नसीब हुआ और बाद में इन बयानात को क़ुरैशी अरबी में रंगा और वही आस्मानी के नाम से अपने जाहिल हम वतनों को सुनाया। इन ज़रतशती अक़ाइद व ख़यालात का सुराग़ उन फ़ारसी  अल्फ़ाज़ से मिल सकता है जो क़ुरआन में इस्तिमाल किए गए हैं। क्योंकि अगर कोई नया अक़ीदा ग़ैर ज़बान के  अल्फ़ाज़ में बयान किया है तो ज़रूर वो अक़ीदा इस ग़ैर ज़बान के बोलने वालों का है। अब ये बात निहायत ही ताज्जुबख़ेज़ है कि हज़रत मुहम्मद की तो क़ुरआन “अरबी" पुकारते हुए ज़बान-ए-ख़ुश्क हो जाती है लेकिन इस में बहुत से ग़ैर-अरबी अल्फ़ाज़ मौजूद हैं और जिन ज़बानों से वो  अल्फ़ाज़ लिए गए हैं उन्ही के बोलने वालों के अक़ाइद क़ुरआन में इन अल्फ़ाज़ के वसीला से मुंदर्ज कर लिए गए हैं। चुनांचे अब हम इस अम्र के सबूत में दो तीन मिसालें पेश करेंगे।

हर एक मुसलमान हज़रत मुहम्मद के मेराज के क़िस्सा से आगाह है। लेकिन ये अजीब बात है कि क़ुरआन में इस माजराए शगरफ़ की तरफ़ एक ही निहायत मुख़्तसर इशारा पाया जाता है । चुनांचे सूरह बनी-इस्राइल की पहली आयत में यूं मुंदर्ज है:—

سُبْحَانَ الَّذِي أَسْرَى بِعَبْدِهِ لَيْلاً مِّنَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ إِلَى الْمَسْجِدِ الأَقْصَى الَّذِي بَارَكْنَا حَوْلَهُ لِنُرِيَهُ مِنْ آيَاتِنَا

पाक है वो ज़ात जो अपने बंदे को रात के वक़्त मस्जिद उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक ले गया। जिसमें हमने खूबियां रखी हैं कि अपनी क़ुदरत के नमूने दिखावें I

फिर इसी सूरह की 62 वीं आयत में इसी वाक़िया की तरफ़ और मुख़्तसर सा इशारा मुंदर्ज है जैसा कि लिखा है :—

وَمَا جَعَلْنَا الرُّؤْيَا الَّتِي أَرَيْنَاكَ إِلاَّ فِتْنَةً لِّلنَّاسِ

और वह रोया जो हम ने तुझ को दिखाई। लोगों को आज़माने के लिए बहुत है।

इस आयत की तफ़्सीर में मुसलमान मुफ़स्सिरीन व मुहद्दीसीन ने इस क़दर तूल तवील बयानात लिखे हैं कि सिर्फ यही नहीं माना कि आँहज़रत रात के वक़्त मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक गए बल्कि एक ख़्याली घोड़े बुराक़ पर सवार हो कर फ़लकुल-अफ़्लाक पर पहुंचे और तरक़्क़ी के ज़ीना पर चढ़ते चढ़ते और मदिराज मेराज तैय करते करते ख़ुदा की ख़ास हुज़ूरी में जा पहुंचे और आस्मानी राज़ व रामोज़ में दख़ल पाया ।

ये हिकायत हज़रत मुहम्मद ने ज़रूर फ़ारसियों से सीखी थी क्योंकि उन की एक किताब बनाम "रूसावीर अफ़नामक" में जो आँहज़रत से चार सौ बरस पेशतर की तस्नीफ़ शूदा है एक हिकायत मुंदर्ज है जो आप के मेराज के क़िस्सा से बिल्कुल मुताबिक़त रखती है। चुनांचे लिखा है कि :—

एक मजूसी मुअल्लिम जो कि निहायत ही आला दर्जा का आबिद व ज़ाहीद था एक फ़रिश्ते की रहबरी से आस्मान पर चढ़ गया और ख़ुदाए ताअला के हुज़ूर में पहुंच कर बेपर्दा मुलाक़ात की और फिर ज़मीन पर वापिस आ कर जो कुछ आस्मान पर देखा था ज़रतशतियों से बयान किया।

फिर हुरान-ए-बहिश्त का क़ुरआनी बयान भी फ़ारसी असल का है। जो लोग क़ुरआन को पढ़ते और समझते हैं वो जानते हैं कि क़ुरआन में जिस्मानी व नफ़सानी बहिश्त की बड़ी खुश-रंग तसावीर पेश की गई हैं । लिखा है कि बड़ी बड़ी स्याह आँखों वाली हूरें जन्नत में तकिये लगाए तख़्तों पर बैठी मोमिनीन का इंतिज़ार कर रही हैं। उनका बयान क़ुरआन में बार-बार लिखा है । लेकिन हम सिर्फ सूरह अल-रहमान से एक मुक़ाम पेश करेंगे। चुनांचे इस सूरह की 46 वीं आयत से 76 वीं तक यूं मर्क़ूम है:—

और जो कोई अपने रब के आगे खड़ा होने से डरा उस के वास्ते दो जन्नत हैं। जिनमें बहुत सी शाख़ें हैं। इन में दो चश्मे हैं। उनमें किस्म किस्म के सब मेवे हैं। इस्तबरक़ के आस्तर वाले बिछौनों पर तकिया लगाए बैठे होंगे। और उन बाग़ों का मेवा झुका हुआ। इन में औरतें हैं नीची निगाह वालियाँ । मोमिनों से पहले ना किसी आदमी ने और ना किसी जिन्न ने उन को अपने साथ सुलाया है। गोया कि वो याक़ूत व मरजान हैं। नेकी का बदला सिवाए नेकी के और कुछ नहीं है। और उन दो बाग़ों के इलावा दो बाग़ और हैं। गहरे सब्ज़ हैं सियाही माइल । उन में उबलते हुए दो चश्मे हैं। इन में मेवे और खजूरें और अनार हैं। इन में ख़ूबसूरत नेक औरतें हैं। ख़ेमों में रोकी हुई हूरें हैं जिन को किसी जिन्न व इन्स ने मोमिनों से पहले अपने साथ नहीं सुलाया। ख़ुशवज़ाअ व क़ीमती बिछौनों और चांदनियों पर तकिया लगाए बैठे होंगे।

बहुत से मुसन्निफ़ीन साबित कर चुके हैं कि हुरान-ए-बहिश्त के ये क़िस्से अहले फ़ारस की इन पुरानी रिवायात से लिए गए हैं जो उन में बहिश्त की ख़ूबसूरत और आदमीयों को लुभाने वाली औरतों की निसबत जारी थीं। हज़रत मुहम्मद ने बसा-औक़ात नज़म अफ़साना में उनका ज़िक्र सुना होगा। इलावा-बरीं लफ़्ज़ "हूर" फ़ारसी लफ़्ज़ है जोकि पहलवी "हूर" से मुश्तक़ है। इस से भी हुरान-ए-बहिश्त के बयान की असलीयत मालूम हो जाती है।

क़ुरआन में जिन्नों या बदरूहों के जो क़िस्से मुंदर्ज हैं उन की निसबत भी कहा जा सकता है कि वो फ़ारसी असल के हैं क्योंकि लफ़्ज़ जिन्न फ़ारसी जीना से मुश्तक़ है और फ़ारसी लोगों की ऐसी बहुत सी कहानियां भी राइज थीं लिहाज़ा ये ख़्याल भी इन ही से लिया गया है।

इलावा-बरीं ज़रतशती रिवायत और क़ुरआनी क़िस्सों में बाहम मुशाबहत की और बहुत सी बातें हैं। लेकिन इस बात के सबूत में बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि क़ुरआन में बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनका मंबा व चशमा फ़ारसी रिवायत हैं जो हज़रत मुहम्मद ने वक़तन-फ़-वक़तन उन फ़ारसियों से जिनसे आपका रब्त-ज़ब्त हुआ सुनी I

लफ़्ज़ "फ़िर्दोस" भी जो क़ुरआन में बार-बार इस्तिमाल किया गया है फ़ारसी है। क़ुरआन में "साइबीन" का अक्सर ज़िक्र आया है और मुअर्रिख़ अबुल-फ़िदा ने उन लोगों का बहुत ही दिलचस्प बयान लिखा है। जो बातें इस ने बयान की हैं इन में से एक ये भी है कि वो लोग दिन में सात मर्तबा नमाज़ पढ़ते थे और उन की सात नमाज़ों के औक़ात में से पाँच के औक़ात ऐन वही थे जो इस्लामी नमाज़ों के हैं। हज़रत मुहम्मद ने ख़ुद बार-बार साइबीन का ज़िक्र किया है। इस से साबित होता है कि आँहज़रत उन लोगों से बहुत मेल-जोल रखते थे और ग़ालिबन आपने ये नमाज़ें जो आज कल तमाम इस्लामी दुनिया में राइज हैं इन ही लोगों से सीखी थीं।

मज़कूरा बाला वाक़ियात ऐसे मुदल्लिल व मुबरहीन हैं कि बड़े बड़े उलमाए इस्लाम ने साफ़ तौर पर उनकी सदाक़त को तस्लीम कर लिया है और तरकीब व तकमील-ए-क़ुरआन के बारे में अहले-ज़माना के ख़्याल की तर्दीद की गुंजाइश नहीं पाई। चुनांचे सय्यद अमीर अली कहता है कि :—

इस में कलाम नहीं कि आँहज़रत की नबुव्वत के वसती ज़माना में जबकि अभी आपका ज़हन दीनी एहसास के कमाल को नहीं पहुंचा था और नीज़ इस अम्र की ज़रूरत थी कि बदवी गिरोहों के लिए उनकी समझ के मुताबिक़ बहिश्त व दोज़ख़ का बयान जिस्मानी और माद्दी सूरत में किया जाये ज़रतशती, साइबीनी ,तालमुदी और यहूदी मुरव्वजा ख़्यालात को ले कर पेश कर दिया गया और फ़िरोतनी व महब्बत के साथ ख़ुदा की इबादत की हक़ीक़ी और असली तालीम बाद में दी गई । चुनांचे हुरान-ए-बहिश्त और बहिश्त की बुनियाद ज़रतशती अक़ाइद व रिवायत पर है और जहन्नुम का माख़ज़ तालमुद है।

लेकिन अगर ये बातें जैसी कि बयान की गई हैं वैसी ही हक़ तस्लीम कर ली जाएं तो फिर ये क्योंकर तस्लीम करें कि क़ुरआन ख़ुदा का कलाम है और लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ जिब्राईल फ़रिश्ता की मार्फ़त हज़रत मुहम्मद पर नाज़िल हुआ। बख़िलाफ़ उस के ये साबित-शूदा हक़ीक़त है कि आँहज़रत ने अपनी तालीमात व ख़यालात को फ़िर्क़ा हनीफ़, फ़िर्क़ा साइबीन और ज़रतशतियों से अख़ज़ किया। हमारा यही दावा है कि बाक़ी क़ुरआन भी इसी तरह इधर-उधर से लिया गया है। चुनांचे इस किताबचा के बाक़ी अबवाब में हम इस अम्र को पाया सबूत तक पहुंचा देंगे I


3. सुरह फुरकान आयत 4

4. सुरह तुर आयत 33