नस्ल इंसानी का हबूत
(1) क्या इंसान गुनेहगार पैदा होता है या बेगुनाह इस्लाम
और दीगर मज़ाहिब
( अज़क़लम हज़रत अमीर मौलाना मौलवी मुहम्मद अली साहिब एम - ए )
فِطْرَةَ اللَّهِ الَّتِي فَطَرَ النَّاسَ عَلَيْهَا لَا تَبْدِيلَ لِخَلْقِ اللَّهِ ذَلِكَ الدِّينُ الْقَيِّمُ وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ
तर्जुमा : अल्लाह की बनाई हुई फ़ित्रत पर क़ायम रहो जिस पर इस ने लोगों को असल हालत में पैदा किया है । अल्लाह की पैदा की हुई हालत को कोई बदल नहीं सकता ये मज़बूत दीन है लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते ।
इस्लाम के अज़ीमुश्शान पैग़ामों में से एक पैग़ाम इन्सान की पैदाइशी मासूमियत को क़ायम करना था । मगर जब वो पैग़ाम सुनाया जो आयत मुंदरजा उन्वान में सफ़ाई से मौजूद है । कि ख़ुदा ने तमाम इन्सान को एक सहीह हालत पर पैदा किया है । और इस पर मज़बूती से क़ायम रहना चाहिए तो उसके आख़िर पर ये लफ़्ज़ भी बढ़ाए । कि अक्सर लोग इस उसूल को नहीं जानते जिस क़दर अज़ीमुश्शान हक़ीक़त का इज़्हार पहले हिस्सा आयत में किया है । जिसकी तफ़्सीर में हज़रत नबी करीम ने फ़रमाया कि फ़ित्रत इस्लाम है । फिर फ़रमाया कि हर एक इन्सान का बच्चा इसी फ़ित्रत की हालत पर यानी इस्लाम पर पैदा होता है । उसके माँ बाप उसे यहूदी या ईसाई या मजूसी बनाते हैं इसी क़दर बड़ी हक़ीक़त का इज़्हार आख़िरी अल्फ़ाज़ में फ़रमाया कि दुनिया के अक्सर लोग इस बात से बे-ख़बर हैं यानी वो इन्सान की पैदाइशी मासूमियत को नहीं जानते ।
उसूल मज़ाहिब आलम पर आज हम ग़ौर करते हैं तो अल्फ़ाज़-ए-क़ुरआनी की अज़मत के सामने सर झुक जाता है । अरब के उम्मी को कौन बता सकता था कि दुनिया के बड़े बड़े मज़ाहिब इस बारे में ग़लती पर हैं । हाँ ये उस ख़ुदा के लफ़्ज़ थे । जो ज़ाहिर व ग़ायब को जानता है । इस्लाम को छोड़कर तनासुख़ और कफ़्फ़ारा को मानने वाले मज़ाहिब आलम में अक्सरीयत का हुक्म रखते हैं । और यह दोनों मानते हैं कि इन्सान गुनाहगार पैदा होता है । बुध मज़्हब और हिंदू मज़्हब के नज़्दीक पैदा होना ही गुनहगारी की वजह से है । ईसाई मज़्हब ने आदम को गुनाहगार ठहरा कर इस गुनाह को बतौर विरसा सारी इन्सानी नस्ल में दाख़िल कर दिया । और यूं तीनों मज़्हब जो दुनिया की दो तिहाई आबादी के मज़्हब में इन्सान को पैदाइश से गुनाहगार ठहराते हैं । इसके ख़िलाफ़ इस्लाम का पैग़ाम ये है कि हर इन्सान का बच्चा सहीह इस्लामी हालत पर जो बेगुनाही की हालत है पैदा होता है । وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ ईसाईयत ने इस उसूल को कि इन्सान का हर बच्चा गुनाहगार वारिस-ए-जहन्नम पैदा होता है अपने उसूल में दाख़िल कर लिया । हज़रत ईसा को इब्न-अल्लाह ठहराया । इसकी सलीब की मौत और मलऊन होने को असास दीन ठहराया । ताकि वो इस फ़र्ज़ी पैदाइशी गुनाह का कफ़्फ़ारा हो जाए । हाँ और दूसरे गुनाहों का भी जवाब इस का नतीजा हैं । और अपने अक़ाइद की किताबों को ऐसे अल्फ़ाज़ से मुज़य्यन किया है कि हम पैदाइश से ग़ज़ब के फ़र्ज़ंद शैतान के ग़ुलाम और हर क़िस्म के दुनियावी व उख़रवी अज़ाब के मुस्तहिक़ हैं । ऐसे अल्फ़ाज़ पर एक इन्सान काँप उठता है । कि वो ख़ुदा जो रहम और मुहब्बत है । वो इन्सान को पैदाइशी ही में शैतान का ग़ुलाम और अज़ाब का मुस्तहिक़ और ग़ज़ब का फ़र्ज़ंद ठहराता है । कहाँ क़ुरआन की पाक तालीम कि सब इन्सानों को रहम के लिए पैदा किया । और कहाँ ईसाईयत का ये ख़तरनाक घिनौना अक़ीदा कि सब इन्सानों को ग़ज़ब के लिए पैदा किया । कहाँ इन्सान का वो मर्तबा जो क़ुरआन ने बताया कि फ़रिश्ते भी इसके फ़रमांबर्दार हैं । और कहाँ ये ख़तरनाक ज़िल्लील हालत कि वो शैतान का ग़ुलाम है ।
क्या इस्लाम के मुक़ाबले में ईसाईयत कभी ग़ालिब आ सकती है? इन्सान की फ़ितरत-ए-मौजूदा के होते हुए कभी नहीं । हाँ इन्सान की फ़ित्रत मस्ख़ हो जाएगी तो शायद उसका दिल और दिमाग़ कभी इस ख़्याल को भी क़बूल करले कि जो इन्सान का बच्चा पैदा होता है । वो ख़ुदा के ग़ज़ब के नीचे पैदा होता है । और शैतान का ग़ुलाम बन कर पैदा होता है । और जो बच्चा बग़ैर बपतिस्मा पाने के मरता है वो सीधा जहन्नम में जाता है । मगर क़ुरआन हमें तसल्ली देता है कि ये फ़ित्रत कभी मस्ख़ नहीं हो सकती । لَا تَبْدِيلَ لِخَلْقِ اللَّهِ इसलिए ज़ाहिर है कि इस मुक़ाबला में जो इस वक़्त मज़्हब के लिए दुनिया में हो रहा है । आख़िरी कामयाबी उस उसूल के लिए हो सकती है । जिसे फ़ित्रत क़बूल कर सकती है । जिसे अक़्ल-ए-इंसानी धक्का नहीं देती कि इन्सान अज़रूए पैदाइश मासूम है ।
जब ईसाई साहिबान से सवाल किया जाता है कि इन्सान को विरसा में गुनाह मिलने की तालीम उसकी फ़ित्रत के गुनाहगार होने की तालीम किस किताब में है? किस नबी ने दी है? तो हमें कोई हवाला ना तौरात का या पुराने अह्दनामा का दिया जाता है । ना इंजील का । हाँ पौलुस के ख़ुतूत का एक हवाला दिया जाता है । हालाँकि बात तो साफ़ है । कि अगर आदम का गुनाह नस्ल इन्सानी में सरायत कर गया था । और सब इन्सान गुनाहगार पैदा हुए थे । तो जहां बाइबल में आदम का ज़िक्र है । यानी किताब पैदाइश के शुरू में । वहीं ये ज़िक्र होना चाहिए था कि आदम गुनाहगार हुआ और उसके साथ ही हर इन्सान का बच्चा जो पैदा होता है । वो भी गुनाहगार होगा । अगर वहां चूक हो गई थी तो हज़रत मूसा बनी-इस्राईल के अज़ीमुश्शान शारेअ इस उसूल को ज़िंदा करते और बता देते कि हर एक इन्सान का बच्चा गुनाहगार पैदा होता है । और कफ़्फ़ारा पर ईमान लाने से पहले मर जाये तो सीधा जहन्नम में जाता है । मगर वहां भी इस तालीम का नामोनिशान तक नहीं बिल-आख़िर हमारी नज़रें हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की तरफ़ उठती हैं कि अगर उनके ज़माने तक ये उसूल बाइबल क़ायम ना कर सकती थी तो अब जो "इब्नुल्लाह” ख़ुद उसी मौरूसी गुनाह का ईलाज करने के लिए आए थे तो उन्होंने ज़रूर इस बात को साफ़ क्या होगा लेकिन चारों इंजीलों में हज़रत मसीह की ज़बान से एक हर्फ़ तक नहीं निकलता कि मौरूसी गुनाह भी दुनिया में कोई बला है । और आदम के गुनाह से सारी नस्ल इन्सानी गुनाहगार हो चुकी ।
अक़्ली रंग में देखा जाये तो ये बात ऐसी बेहूदा नज़र आती है । कि एक लम्हे के लिए किसी सहीह अक़्ल-ए-इंसानी में नहीं आ सकती । क्या आदम बेगुनाह पैदा हुआ था या गुनाहगार? अगर बेगुनाह पैदा हुआ था तो जो क़ानून इस पर हावी है । वही उसकी नस्ल पर हावी होना चाहिए । यानी हर एक इब्न-ए-आदम भी आदम की तरह बेगुनाह पैदा हो । बाद में शैतान के बहकाने से वो गुनाह करे या ना करे ये अम्र दीगर है । और अगर आदम को ख़ुदा ने गुनाहगार पैदा किया था । तो फिर ये शैतान के बहकाने का क़िस्सा फ़ुज़ूल है । जब ख़ुदा ने शुरू ही से इन्सान को गुनाहगार पैदा किया था । तो फिर आज़माईश कैसी? फिर इस से तवक़्क़ो रखना ही ग़लत था । कि वो शैतान के बहकाने में ना आए । वो अपनी फ़ित्रत के तक़ाज़े के मुताबिक़ गुनाह करेगा । और अगर आज भी नस्ल इन्सानी सब गुनाहगार पैदा होती है । तो इससे बेगुनाह रहने का मुतालिबा ग़लत है । देखने का मुतालिबा इससे किया जा सकता है जो माँ के पेट से आँखें ले कर आता है जो अंधा पैदा होता है इस से देखने का मुतालिबा कोई अहमक़ ही करेगा । पस जो पैदाइश से गुनाहगार है..............ये ख़ाली जगह मुताबिक़ असल है इस से बेगुनाह रहने का मुतालिबा खिलाफ-ए-क़ानून-ए-क़ुदरत है ।
ईसाई साहिबान को जब लोगों के बनाए हुए उसूल की कोई शहादत अपनी मुक़द्दस किताब में नहीं मिलती तो क़ुरआन शरीफ़ की तरफ़ दौड़ते हैं । और चूँकि मज़हबी उमूर में ग़ौरो-फ़िक्र की आदत नहीं । इसलिए एक बात को ले दौड़ते हैं । कि देखो क़ुरआन शरीफ़ इस बात को मानता है । हालाँकि सवाल तो ये था कि तुम अपने अम्बिया की तालीम में दिखाओ कि किसी नबी ने ये तालीम दी हो कि इन्सान मौरूसी गुनाहगार है और आदम का गुनाह सारी नस्ल इन्सानी में सरायत कर गया । मगर असल मुतालिबा से आजिज़ आकर तिनकों का सहारा तलाश करते हैं कहीं क़ुरआन शरीफ़ में हबूत नस्ल इन्सानी का ज़िक्र देख लिया । बस फ़ौरन ले भागे कि देखो क़ुरआन शरीफ़ ने बाइबल मुक़द्दस की भी इस्लाह की है । और आदम का गुनाह माना । चह जायकि इस गुनाह के नस्ल इन्सानी में सरायत कर जाने को मानता ।
(2) हालत हबूत और बेगुनाह पैदा होना
يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ لَا يَفْتِنَنَّكُمُ الشَّيْطٰنُ كَـمَآ اَخْرَجَ اَبَوَيْكُمْ مِّنَ الْجَنَّۃِ
ऐ आदम के फ़र्ज़ंद तुम्हें शैतान दुख में ना डाले जिस तरह तुम्हारे माँ बाप को जन्नत से निकलवा दिया ।
बरुए क़ुरआन-ए-करीम हज़रत आदम बेगुनाह पैदा हुए । जिस तरह हर इन्सान का बच्चा बेगुनाह पैदा होता है । शैतान ने उन्हें वरग़लाया और उनसे अल्लाह तआला के हुक्म की ना-फ़रमानी सरज़द हुई गो उन्होंने गुनाह नहीं किया । क्योंकि गुनाह के लिए इरादा ज़रूरी है । और क़ुरआन-ए-करीम हज़रत आदम के मुताल्लिक़ साफ़ अल्फ़ाज़ में शहादत देता है । फ-नसिया (فَنَسِيَ) वो भूल गए وَلَمْ نَجِدْ لَهُ عَزْمًا (ताहा 115) हमने इस में इरादा नहीं पाया । फिर एक जगह उनकी ना-फ़रमानी को ज़िल्लत से ताबीर किया है । और ज़िल्लत वो है जो बग़ैर क़सद और इरादे के सरज़द हो जाए فَأَزَلَّهُمَا الشَّيْطَانُ (सुरह बक़रा आयत 36)
हाँ निस्यान (نسیان ) से भी ना-फ़रमानी हो जाए तो बाअज़ हालात में इस की सज़ा भुगतनी पड़ती है । हज़रत आदम के लिए वो सज़ा क्या थी । فَأَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِ जिस जन्नत में आदम व हव्वा थे । इससे उनको निकलवा दिया (अल-बक़रा 25-36) बल्कि पहले से अल्लाह तआला ने आदम को तंबीह कर दिया था । إِنَّ هَذَا عَدُوٌّ لَّكَ وَلِزَوْجِكَ فَلَا يُخْرِجَنَّكُمَا مِنَ الْجَنَّةِ (ताहा 20:117) ये तेरा और तेरे साथी का दुश्मन है । सो तुम दोनों को जन्नत से ना निकलवा दे फिर सारे इन्सानों को ख़िताब करके बताया । لاَ يَفْتِنَنَّكُمُ الشَّيْطَانُ كَمَا أَخْرَجَ أَبَوَيْكُم مِّنَ الْجَنَّةِ (अल-आराफ़ 7:27) तुम्हें शैतान दुख में ना डाल दे । जिस तरह तुम्हारे माँ बाप को जन्नत से निकलवा दिया । पस हज़रत आदम की लग़्ज़िश की सज़ा सिर्फ एक ही थी यानी जन्नत से निकाला जाना । अलबत्ता उसको सवालात का ज़ाहिर होना भी कह दिया है । यानी उन के ऐब उन पर ज़ाहिर हो गए (अल-आरफ 22) और एक जगह ग़वायत (غوایت) यानी नाकामी से भी ताबीर किया है وَعَصَى آدَمُ رَبَّهُ فَغَوَى (ताहा 20:121)
अब दोही सूरतें हो सकती थीं । एक ये कि आदम गुनाहगार पैदा होता तो उसकी नस्ल भी गुनाहगार पैदा होती मगर यह नहीं हुआ । आदम और उसके फ़र्ज़ंद सब बेगुनाह पैदा होते हैं । दूसरी सूरत ये हो सकती थी कि आदम से गुनाह सरज़द होता और उसके किसी नतीजे में नस्ल इन्सानी को भी शरीक होना पड़ता । गो उसका ये नतीजा क़तअन ग़लत है कि इस सूरत में नस्ल इन्सानी को भी गुनाहगार समझ लिया जाये । लेकिन क़ुरआन शरीफ़ ने अव़्वल तो आदम से गुनाह का सरज़द होना तस्लीम नहीं किया । उसे लग़्ज़िश या ज़िल्लत कहा है । निस्यान (نسیان) का नतीजा बताया है । फिर जो कुछ इस लग़्ज़िश का नतीजा था इसमें नस्ल इन्सानी को क़तअन शरीक नहीं किया । और यह वो हक़ीक़त क़ुरआनी है जिससे ईसाई साहिबान ने बेख़बर होने की वजह से ये ख़्याल कर लिया है कि क़ुरआन आदम की ज़िल्लत के नताइज में नस्ल इन्सानी को शरीक ठहराता है ।
आदम के इस्यान (عصيان) का नतीजा जैसा कि मैं अभी क़ुरआन शरीफ़ से बता चुका हूँ सिर्फ एक ही है यानी जन्नत से निकल जाना । इस में नस्ल की शिरकत का ज़िक्र क़ुरआन शरीफ़ में कहीं नहीं । अलबत्ता सारी नस्ल इन्सानी के लिए क़ुरआन शरीफ़ ने हालत हबूत (هبوط) को ज़रूर बयान किया है मगर इन दोनों में बहुत फ़र्क है और क़ुरान शरीफ ने खुद हबूत (هبوط) इख़राज-अज़्जनत को अलग अलग उमूर के तौर पर बयान किया है चुनांचे पहले सुरह अल-बक़रा में فَأَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيهِ के बाद बढ़ाया है । وَقُلْنَا اھْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ अगर ये दोनों एक ही होते तो इख़राज-अज़्जनत को बयान करने के बाद हबूत (هبوط) का ज़िक्र तहसील हासिल था । मगर इससे आगे चल कर और भी साफ़ कर दिया है । فَتَلَـقّٰٓي اٰدَمُ مِنْ رَّبِّہٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْہِۭ आदम ने अपने रब से कलिमात सीखे और अल्लाह ने इस पर रुजू बरहमत किया । और इसके बाद फिर फ़रमाया قُلْنَا اھْبِطُوْا مِنْہَا جَمِيْعًا यानी हबूत का हुक्म फिर भी सब पर वारिद किया है । आदम पर रुजू बरहमत के बाद नस्ल इन्सानी के हबूत का ज़िक्र साफ़ बताता है । कि हबूत क़तअन सज़ा के रंग में नहीं ना ये आदम के इस्यान का नतीजा है । बल्कि ये कोई और कैफ़ीयत है । ऐसा ही सुरह आराफ़ में हज़रत आदम की तौबा के बाद हबूत का ज़िक्र है । और सुरह ताहा में इसको निहायत ही साफ़ किया है آدَمُ رَبَّهُ فَغَوَىثُمَّ اجْتَبَاهُ رَبُّهُ فَتَابَ عَلَيْهِ وَهَدَى फ़रमा कर उसके बाद हबूत (هبوط) का ज़िक्र किया है । यानी पहले इस्यान (عصيان) है फिर उसकी सज़ा फिर सज़ा के बाद आदम की बर्गुज़ीदगी और उस रुजू बरहमत फ़रमाना और उसे सीधे रास्ते पर चलाना और सब के बाद फिर नस्ल इन्सानी के हबूत (هبوط) का हुक्म है । قَالَ اہْبِطَا مِنْہَا جَمِيْعًۢا पस ये यक़ीनी और क़तई अम्र है । कि हालत-ए-हबूत आदम के इस्यान (عصيان) की सज़ा नहीं । इस्यान की हालत एक आरिज़ी हालत थी । इस पर सज़ा वारिद हुई और इस के बाद माफ़ी भी दे दी गई । रुजू बरहमत भी हो गया । तब नस्ल इन्सानी के हबूत (هبوط) का हुक्म सुनाया जाता है ।
हज़रत आदम की सज़ा तो सिर्फ इख़राज अज-जन्नत है । और ना सिर्फ क़ुरआन-ए-करीम नस्ल-ए-इन्सानी की शिरकत का इसमें ज़िक्र नहीं करता । बल्कि उसकी नस सरीह से साबित है कि नस्ल इन्सानी इस जन्नत से जिसमें उसे पैदाइश के वक़्त रखा जाता है नहीं निकली । जैसा कि आयत मुंदरजा उन्वान से साबित है । ऐ आदम के फ़र्ज़ंद तुम्हें शैतान दुख में ना डाले । जिस तरह तुम्हारे माँ बाप को जन्नत से निकलवा दिया । यानी तुम्हारे माँ बाप जन्नत से निकल कर दुख में पड़े । ऐसा ना हो कि तुम भी शैतान के बहकाने से जन्नत से निकल कर दुख में पड़ो । अब अगर नस्ल इन्सानी जन्नत से निकल चुकी हुई थी । तो ये इर्शाद बेमाअनी ठहरता है । ये आयत फ़ैसला कुन है । कि नस्ल इन्सानी जन्नत से नहीं निकली । गो नस्ल इन्सानी पर हुक्म हबूत (هبوط) वारिद है ।
इन खुले नताइज के बाद इस अम्र के समझने में कुछ दुशवारी बाक़ी नहीं रहती कि हालत-ए-हबूत (هبوط) को गुनहगारी से कोई ताल्लुक़ नहीं क़ुरआन-ए-करीम की नस सरीह पहले हिस्से मज़्मून में नक़्ल हो चुकी है । कि हर इन्सान का बच्चा बेगुनाह पैदा होता है । बल्कि आदम के इस्यान (عصيان) के नतीजे से भी उसे कोई ताल्लुक़ नहीं । ये दोनों बातें बय्यन तौर पर साबित हो चुकी हैं । फिर ये हालत हबूत (هبوط) क्या है । इसके लिए आदम के सारे क़िस्से पर ग़ौर करना चाहिए । आदम बेगुनाह पैदा होता है । इसलिए फ़ित्रतन वो बेगुनाह है । लेकिन इस के बाद शैतान से इसको मुक़ाबला पेश आता है । ये शैतान से मुआमला इन्सान की तरक़्क़ी के लिए ज़रूरी है । अगर ज़रूरी ना होता तो आदम के क़िस्सा में इस ज़िक्र को ना लाया जाता । और वैसे भी ये अम्र ज़ाहिर है । इसलिए कि शैतान सिफली ख़्वाहिशात का मज़हर है । और इन्सान की इस ज़मीन पर ज़िंदगी के लिए अदना ख़्वाहिशात का जो उसके जिस्म से ताल्लुक़ रखती हैं । इस के अंदर होना ज़रूरी है । हाँ तरक़्क़ी के ज़ीना पर उसका क़दम इस हद तक पड़ता है जिस हद तक वो इन सिफ्ली ख़्वाहिशात पर ग़ालिब आ जाता है । बालअल्फ़ाज़-ए-दीगर शैतान के साथ उसका मुक़ाबला इस ज़मीनी ज़िंदगी में ज़रूरी है । अगर वह इस मुक़ाबले में गिर जाता है या फिसल जाता है तो ये उसकी नाकामी है । अगर वह मुक़ाबले में ग़ालिब आ जाता है तो ये इसका कदम तरक़्क़ी की तरफ़ है । अब दो सूरतों थीं एक ये कि इस मुक़ाबला में शैतान कभी भी ग़ालिब ना आता । और दूसरी ये कि कभी वो ग़ालिब भी आ जाता । तीसरी सूरत कि वो हमेशा ग़ालिब आता । क़तअन नामुमकिन है । आदम के क़िस्से में ये बताया गया है कि इस मुक़ाबला में शैतान कभी ग़ालिब भी आ जाता है । गोया दूसरी सूरत क़ायम हुई । फ़ित्रतन इन्सान बेगुनाह तो पैदा हुआ । मगर फ़ित्रतन इसमें ये कमज़ोरी ज़रूर है कि वो शैतान के मुक़ाबले में कभी मग़्लूब भी हो जाए । और यह उसकी तरक़्क़ी का सारा राज़ है अगर फ़ित्रतन वो ऐसा बनाया जाता कि ख़ुदा के क़ानून को कभी तोड़ ही ना सकता तो उसकी हालत वही होती जो सूरज चांद सितारों वग़ैरा की है कि वो अपने मुक़र्रर कर्दा क़ानून से एक बाल के बराबर इधर उधर नहीं हो सकते मगर फिर इन्सान को इन चीज़ों पर कोई फ़ौक़ियत भी ना होती और वह भी इन चीज़ों की मिसल होता इन्सान की तरक़्क़ी के लिए ये ज़रूरी हुआ कि उसे एक मुक़ाबले की हालत में रखा जाये । और चूँकि मुक़ाबले में ख़तरा लामुहाला मौजूद है । इसलिए उसे हालत हबूत (هبوط) क़रार दिया है । और यही वजह है कि नस्ल इन्सानी के हबूत का ज़िक्र-ए-आदम के फिसल जाने के बाद आता है । गोया उस ख़तरे से उसे वाक़ई तौर पर मुतनब्बा कर दिया है मगर ख़तरा होने के ये मअनी नहीं कि वाक़ई इन्सान फिसल भी गया । हर इन्सान जो पैदा होगा इस ख़तरे में होगा कि शैतान के मुक़ाबला में फिसल जाये मगर इसके ये मअनी नहीं कि हर इन्सान जो पैदा होगा वो फिसल भी चुका है या ज़रूर फिसल जाएगा । नस्ल इन्सानी के लिए हिदायत के लाने वाले और इस हिदायत की पैरवी करने वाले इस ख़तरे से निकल जाते हैं । मगर मुक़ाबले के बाद فَمَنْ تَبِــعَ ھُدَاىَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْہِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ ये आदम के क़िस्से के आख़िर पर है । यानी जो शख़्स मेरी हिदायत की पैरवी करेगा । उन पर कोई ख़ौफ़ नहीं । और ना वो ग़मगीन होंगे । ख़ौफ़ तो ये नहीं कि अब शैतान उन को फुसला सके । और इज़्न इसलिए नहीं कि उन्होंने अपने वक़्त को ज़ाए नहीं किया । बल्कि शैतान पर फ़त्ह पा लेने के बाद उसे अच्छे कामों पर लगाया ।
पस शैतान से मुक़ाबले की हालत हालत-ए-हबूत (هبوط) है और इस हालत से सारी नस्ल इन्सानी गुज़रती है । इसी पर इसकी सारी तरक़्क़ियों का दार-ओ-मदार है । बअल्फ़ाज़े दीगर यूं कहना चाहिए कि अल्लाह तआला ने नस्ल इन्सानी को बता दिया कि तुम सबको शैतान का मुक़ाबला करना होगा । और मुक़ाबला करके उसे अपना फ़रमांबर्दार बनाना होगा । इस मुक़ाबला के बाद जिस जन्नत में दाख़िल होना है वही असली जन्नत है जो इन्सान की ज़िंदगी की ग़रज़ व ग़ायत है । इसकी पहली जन्नत हालत-ए-बेगुनाही पर पैदा होना है । मगर इस बेगुनाही पर क़ायम रहने के लिए मुक़ाबला ज़रूरी है तब इस बेगुनाही की जन्नत में इन्सान तरक़्क़ी कर सकता है । अगर इन्सान पैदाइश से गुनाहगार होता । तो बेगुनाही पर इसका क़ायम होना नामुमकिन था । क्योंकि जो फ़ित्रतन गुनाहगार है । वो अपनी फ़ित्रत के ख़िलाफ़ किस तरह चले । और अगर इन्सान पैदाइश में तो बेगुनाह होता । लेकिन इसके लिए कोई मुक़ाबला और कोई ख़तरात ना होते तो जिस तरह दुनिया की और चीज़ें फ़ित्रतन क़ानून की फ़रमांबर्दार हैं वो भी फ़रमांबर्दार तो रहता । यानी इस फ़ित्री बेगुनाही पर क़ायम रहता लेकिन उसे इन इश्याय पर कोई फ़ौक़ियत हासिल ना होती ना उसके लिए तरक़्क़ी का मैदान होता । इसलिए इन्सान के लिए हालत-ए-हबूत ज़रूरी हुई कि वो बाद मुक़ाबला फ़ित्री बेगुनाही की हालत पर क़ायम हो कर तरक़्क़ी कर सके ।
ये वो साफ़ और अमली उसूल है । जिसे क़ुरआन शरीफ़ ने बयान किया है । अगर ईसाई साहिबान ज़रा ग़ौर से काम लें तो वो इससे फ़ायदा उठा सकते हैं । लेकिन मज़्हब के दायरे में अक़्ल को बेदख़ल कर देने वाली क़ौम इस से फ़ायदा नहीं उठा सकती ।
इस जगह ये भी याद रखना चाहिए कि ये एक आम ग़लतफ़हमी है जो बाअज़ लोगों के दिलों में है । कि आदम पहले कहीं आस्मान पर थे और वहां से गिरकर ज़मीन पर आए और साथ ही नस्ल इन्सानी भी ज़मीन पर आ गई और यूं गोया आदम के इस्यान (عصيان) के नतीजे में इन की औलाद भी शरीक हो गई । क़ुरआन शरीफ़ में जहां आदम के ख़ल्क़ का ज़िक्र है । वहां साफ़ लफ़्ज़ हैं । اِنِّىْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَۃً मैं ज़मीन पर ख़लीफ़ा बनाने वाला हूँ लामुहाला वो जन्नत भी इसी ज़मीन पर है । और गो यह मज़्मून अलैहदह तफ़्सील चाहता है । लेकिन इस क़दर यहां बता देना ज़रूरी है कि हालत बेगुनाही पर पैदा होना ही वो जन्नत है । और यह जन्नत ऐसी है कि इससे निकलने का ख़तरा भी लगा हुआ है लेकिन इस जन्नत से तरक़्क़ी करके इन्सान दूसरी जन्नत को हासिल करता है तो इस से फिर कभी नहीं निकलता ।
(पैग़ाम सुलह मत्बूआ 7/30/24 8/3/24)