मुहम्मद अज़रूए इस्लाम
इस्लामी माख़ज़ात से मुहम्मद साहब की ज़िंदगी का ख़ाका
अज़
शेख़-उल-इस्लाम हज़रत अल्लामा डब्लयू गोल्ड सेक साहब
BY THE
REV. WILLIAM GOLDSACK
Australian Baptist Missionary and Apologist
1871–1957
Author of: The Qu’ran In Islam, Christ In Islam,
The Traditions In Islam, God In Islam, Muhammad In Islam. . .
THE CHRISTIAN LITERATURE SOCIETY FOR INDIA
MADRAS - ALLAHABAD - CALCUTTA - RANGOON - COLOMBO
1916
PRINTED AT THE
S.P.C.K. PRESS, VEPERY, MADRAS
1916
Kaaba in Mecca |
फ़हरिस्त मशमूलात | ||
सफ़ा | अबवाब | |
दीबाचा | मुहम्मद साहब का अहवाल | |
हिस्सा अव्वल मुहम्मद साहब मक्का में | ||
पहला बाब | मुहम्मद साहब के ज़माने के अहले अरब | |
दूसरा बाब | मुहम्मद साहब की विलादत और अवाइल ज़िंदगी | |
तीसरा बाब | पैग़ाम का ऐलान | |
चौथा बाब | क़ुरैश से तकरार | |
पांचवां बाब | मक्का से हिज्रत | |
हिस्सा दोयम मुहम्मद साहब मदीना में | ||
पहला बाब | तमद्दुनी और दीनी शराअ | |
दूसरा बाब | जिहाद का ऐलान | |
तीसरा बाब | मुहम्मद साहब का रिश्ता यहूदीयों से | |
चौथा बाब | औरतों के साथ मुहम्मद साहब का सुलूक | |
पांचवां बाब | मुहम्मद साहब की वफ़ात |
मुहम्मद साहब का अहवाल
दीबाचा
इस छोटे से रिसाले में मुहम्मद साहब की मुकम्मल सवानिह उम्री तो मुंदरज नहीं, सिर्फ इस बड़े मुसलेह की ज़िंदगी के बाअज़ बयानात क़लम-बंद किए जाते हैं और वो भी मुसलमानों की मोअतबर किताबों से अख़ज़ किए गए हैं। इस रिसाले की ग़रज़ ये दिखाना है कि इस्लाम में मुहम्मद साहब का दर्जा क्या है और ख़ुद मुसलमानों ने इस की निस्बत क्या कुछ तहरीर किया है। जहां तक मुम्किन हुआ ग़ैर-मुस्लिम उलमा के क़ियास को हमने यहां दख़ल नहीं दिया। हिन्दुस्तान में हाल के मुसलमानों ने मुहम्मद साहब की कई तारीखें लिखी हैं, लेकिन उन की तारीख़ी सेहत कालअदम है। इन मुसन्निफ़ों ने अपने ख़यालात का एक ऐसा पुतला खड़ा कर दिया है, जो ना तो तारीख़ से लगा खाता है और ना ख़ुद मुहम्मद साहब के अपने बयानात से जो उनके हम-अस्रों ने क़लम-बंद किए थे।
जो ज़रूरी बयानात इस रिसाले में मुंदरज हैं वो मुसलमान मुसन्निफ़ों की किताबों पर मबनी हैं और जब किसी ख़ास दिलचस्प अम्र का बयान आया तो हमने अक्सर इसको लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ नक़्ल कर दिया और जहां-जहां से कोई मज़्मून अख़ज़ क्या उसका सिर्फ हवाला दे दिया। मुहम्मद साहब के बारे में जो इल्म हमको हासिल हुआ वो इन सवानिह उम्रियों के ज़रीये हुआ जो अवाईल मुसलमानों ने लिखी थीं। लेकिन ये सख़्त अफ़्सोस है कि सबसे क़दीम सवानिह उम्री अब मौजूद नहीं। चुनान्चे क़दीम मोअर्रिखों ने मुहम्मद साहब की चंद एक सवानिह उम्रियों का ज़िक्र किया है, जिनका अब कुछ पता नहीं मिलता। गुमान ग़ालिब है कि ज़ोहरी 1 जिसने 124 हिज्री. में वफ़ात पाई पहला शख़्स था जिसने मुहम्मद साहब की सवानिह उम्री लिखी। कम-अज़-कम इतना तो तहक़ीक़ से मालूम है कि उसने ऐसी हदीसों को जमा किया जो मुहम्मद साहब की ज़िंदगी और सीरत से इलाक़ा रखती थीं और हमें यक़ीन है कि माबाद मोअर्रिखों ने इस किताब से बहुत मदद ली होगी। इस्लामी तारीख़ी किताबों में दो दीगर मोअर्रिखों का भी ज़िक्र आया है जिन्होंने मुहम्मद साहब का अहवाल लिखा। ये दोनों दूसरी सदी हिज्री में गुज़रे। इनमें से एक का नाम ''मूसा बिन उक़्बा'' 2 था और दूसरे का नाम “अबू मिश्र” 3 । इन दोनों मोअर्रिखों की कोई तस्नीफ़ हमारे ज़माने तक नहीं पहुंची और ''मदायनी' 4 की वसीअ तस्नीफ़ात का भी यही हाल है जो दूसरी सदी हिज्री के आख़िरी निस्फ़ में ज़िंदा था।
एक दूसरा मुसन्निफ़ जिसने अपने हम-अस्रों की निगाह में बहुत इज़्ज़त हासिल की, वो “मुहम्मद बिन इस्हाक़” था जिसने 151 हिज्री में वफ़ात पाई। मुहम्मद साहब के बारे में हदीसें उसने एक किताब में जमा कीं, लेकिन अब वो किताब भी मौजूद नहीं। लेकिन इस के दोस्त और शागिर्द “इब्ने हिशाम” ने “इब्ने इस्हाक़” के जमा करदा मसाले को अपनी किताब “सिरतल-रसूल” 5 में मुंदरज किया। “इब्ने हिशाम” की ये किताब अब तक मौजूद है और मुहम्मद साहब की तारीख़ लिखने के लिए इस “सिरतल-रसूल” का मुतालआ लाज़िमी है। इस्लामी तारीख़ में ये शख़्स बहुत मशहूर है। उसने 213 हिज्री में वफ़ात पाई और माबाद सवानिह नवीसों ने हमेशा इस से मदद ली। इस मुख़्तसर रिसाले में भी इस मुसन्निफ़ से चंद इक़तिबासात लिए गए हैं।
दूसरा मशहूर मुसन्निफ़ जिसकी तस्नीफ़ात हम तक पहुंची हैं, वो “मुहम्मद बिन सअद” 6 है जो आलिम अल-वक़िदी का मुंशी था। उसने 230 ही. में वफ़ात पाई। उसने पंद्रह रिसाले लिखे। उनमें से एक “सीरत अल-मुहम्मद साहब” है। इस किताब में मज़्मून के लिहाज़ से, ना तारीख़ी सिलसिले के लिहाज़ से हदीसें जमा की गईं हैं। लेकिन जो शख़्स इस मज़्मून का मुतालआ करना चाहते हैं इन को इस से गिराँ-बहा मदद मिल सकती है।
मुहम्मद साहब की ज़िंदगी के बारे में वाक़फ़ीयत हासिल करने का दूसरा चशमा अहादीस हैं। इन हदीसों के कई मजमुए मौजूद हैं। उनमें मुहम्मद साहब के अक़्वाल-ओ-अफ़्आल का बयान मुंदरज है और उन की रोज़ाना ज़िंदगी का ख़ूबसूरत ख़ाका दिया गया है। ये हदीसें मुहम्मद साहब के अस्हाब पहले-पहल तो ज़बानी बयान करते गए, बादअज़ां उनको जमा कर के मुख़्तलिफ़ किताबों में क़लम-बंद कर लिया। इन मुख़्तलिफ़ किताबों में से दो बहुत मशहूर हैं यानी “सहीह मुस्लिम” और “सहीह बुख़ारी”। इन दोनों किताबों के मुसन्निफ़ तीसरी सदी हिज्री के वस्त में रहलत कर गए। इस रिसाले में इन दोनों किताबों और “जामेअ अल-तिर्मिज़ी” के हवाले भी दिए गए हैं।
मुहम्मद साहब के बारे में इल्म हासिल करने का तीसरा चशमा क़ुरआन-ए-मजीद और इस की मुस्तनद तफ़ासीर हैं। शायद माबाद अहादीस की कोई बेवक़री (बेइज़्ज़ती) करे, लेकिन क़ुरआन-ए-मजीद में तो बानी इस्लाम की ज़िंदगी के बारे में हमअसर शहादत मौजूद है और इस जंगी नबी की तस्वीर को क़ुरआन मजीद की शहादत के बग़ैर तक्मील तक नहीं पहुंचा सकते। इस में भी मुफ़स्सिरों की तशरीहात से मदद ली गई है, जिन्होंने मुहम्मद साहब की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ बेशुमार वाक़ियात का ज़िक्र क़ुरआन मजीद की बाअज़ मुश्किल आयात की तौज़ीह के लिए किया है। चुनान्चे इस रिसाले को लिखने में हमने अब्बास, बैज़ावी और जलालेन से और कुछ कम मोअतबर मुफ़स्सिर मसलन कादरी, अब्दुल क़ादिर, रूखी और ख़ुलासा तफ़ासीर से मदद ली।
एक और बात का ज़िक्र करना बाक़ी रहा। क़दीम सानिहा नवीसों की तरह हमने भी मज़्मून के मुताबिक़ इस किताब के अबवाब की तक़्सीम की है और तारीख़ या ज़माने की चंदाँ पाबंदी नहीं की। इसलिए गो दो बड़े हिस्से यानी “मुहम्मद साहब की ज़िंदगी मक्के में” और “मुहम्मद साहब की ज़िंदगी मदीने में” 'हमने क़ायम रखे, तो भी बाज़-औक़ात चंद वाक़ियात जो एक ज़माने से ताल्लुक़ रखते थे, वो दीगर वैसे ही वाक़ियात के साथ जिनका ताल्लुक़ दूसरे ज़माने से था इकट्ठे कर दिए गए। हमने ये कोशिश भी की कि ये किताब इस्म बा मुसम्मा (जैसा नाम वैसे गुण यानी अपने नाम के ऐन मुताबिक़) हो और मुहम्मद साहब की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ सिर्फ उन्ही वाक़ियात का बयान करें जिनको मुसलमान मोअर्रिखों ने क़लम-बंद किया था।
डब्लयू-जी (दिसम्बर 1916 ई.)
हिस्सा अव़्वल
मुहम्मद साहब मक्का में
पहला बाब
मुहम्मद साहब के ज़माने के अहले अरब
Kaaba |
इस शख़्स और इसके पैग़ाम के समझने के लिए ये जानना ज़रूर है कि इस के ज़माने में अरब की हालत क्या थी। ख़ुश-क़िस्मती से ऐसे इल्म के ज़राए शाज़ो नादिर नहीं। अरबी मुअर्रिख़ अबूलफ़िदा ने बिलख़सूस ज़माना इस्लाम के माक़बल अरबों के बारे में बहुत कुछ मुफ़स्सिल बयान लिखा है, मसलन इस ने ये लिखा कि :—
وكانوا يحجّون البيت ويعتمرون ويحرمون ويطوفون ويسعون ويقفون المواقف كلها يرمون الجمار وكانوا يكبسون في كل ثلاث أعوام شهراً وحلق الختان وكانوا يقطعون يد السارق اليمنى.
तर्जुमा: “वो काअबा का हज किया करते थे और वहां वो उमरा और एहराम बाँधा करते और तवाफ़ करते और (कोह-ए-सफ़ा-ओ-मर्वा पर) दौड़ते और कंकर फेंकते और हर तीन साल के बाद एक माह एतिकाफ़ में बैठते......वो खतना करते और चोर का दाहिना हाथ काटा करते थे''
इब्ने हिशाम ने ''सीरतुल-रसूल'' में दीगर उमूर के साथ एक सारा बाब अरब के बुतों के बयान में मख़्सूस कर दिया और उन लोगों की बुत-परस्ती के मुताल्लिक़ कई दिलचस्प क़िस्से बयान किए। ये तो सच्च है कि बुत-परस्ती अरबों का आम मज़्हब था, लेकिन ये कहना ठीक ना होगा कि बुत-परस्ती के सिवा और कोई मज़्हब अरब में पाया जाता ही ना था। कई मवह्हिद ईमानदार थे जो “हनीफ़” कहलाते थे। वो मुरव्वजा बुत-परस्ती से किनारा-कश थे और सिर्फ वाहिद ख़ुदा की परस्तिश करते थे। इब्ने हिशाम ने अपनी किताब ''सीरतुल-रसूल'' में सफ़ा 215 पर इन तालिबान हक़ का बहुत उम्दा बयान किया और ये वाज़ेह कर दिया कि वाहिद हक़ीक़ी ख़ुदा का इल्म अरबों से बिल्कुल पोशीदा ना था। जो इल्मी किताबें हमारे ज़माने तक पहुंची हैं इन से ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब की पैदाइश से बहुत पेशतर ख़ुदा तआला का इल्म अरबों को हासिल था और उस की परस्तिश होती थी। इस्लाम से माक़बल तस्नीफ़ात में अहले अरब के अदना देवता “लात” (لات) कहलाते थे। लेकिन जब उस के साथ हर्फ़ तारीफ़ “अल” (آل) लगाया जाता तो “अल-लात” जिसका मुख़फ़्फ़फ़ “अल्लाह” है वो ख़ुदा तआला का नाम हो जाता। बुत-परस्त शायर नबीका और लबीद दोनों ने लफ़्ज़ अल्लाह को बार-बार ख़ुदा तआला के मअनी में इस्तिमाल किया और सुबह मुअल्लक़ा में भी ये लफ़्ज़ इसी मअनी में मुस्तअमल है। मुहम्मद साहब से बहुत ज़माना पेशतर मक्का के काअबा को बैतुल्लाह (بیت اللہ) कहा करते थे।
इसका काफ़ी सबूत है कि मुहम्मद साहब को अहले हनीफ़ के साथ राह-ओ-रब्त था। चुनान्चे मुस्लिम मुहद्दिस ने ये तहरीर किया कि मसलहान क्लान में से एक शख़्स वर्क़ा बिन नवाफिल था। ये शख़्स ख़दीजा (रज़ी.) का रिश्ते का भाई था। इसलिए मुहम्मद साहब के लिए कुछ मुश्किल ना था कि तौहीद ख़ुदा का मसअला इस से सीख ले। इस क़दर तो तहक़ीक़ है कि जब मुहम्मद साहब ने वाअज़ करना शुरू किया तो उस ने अपने वाअज़ का तकया कलाम इसी लफ़्ज़ “हनीफ़” (حنیف) को ठहराया और बार-बार उन्होंने इस अम्र पर-ज़ोर दिया कि मैं तो सिर्फ इब्राहिम हनीफ़ के मज़्हब की तल्क़ीन करने के लिए भेजा गया हूँ। चुनान्चे ये लिखा है :—
قُلْ إِنَّنِي هَدَانِي رَبِّي إِلَىٰ صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ دِينًا قِيَمًا مِّلَّةَ إِبْرَاهِيمَ حَنِيفًا
तर्जुमा: “मेरे ख़ुदा ने मुझे सिरात मुस्तक़ीम की हिदायत की। हक़ीक़ी दीन इब्राहिम हनीफ़ के मिल्लत की (सूरह अल-अन्आम 6:161)”
अहले हनीफ़ के इलावा मुहम्मद साहब के ज़माने में अरब में दो दीगर मवह्हिद फ़िर्क़े थे यानी यहूदी और मसीही। मक्का में उनका शुमार तो बहुत ना था लेकिन मदीने और इस के क़ुरब-ओ-जवार में बहुत बार सूख और दौलतमंद यहूदी क़बीले पाए जाते थे। फ़िल-हक़ीक़त मुहम्मद साहब की विलादत से पेशतर जुनूबी अरब में एक यहूदी सल्तनत थी जो बाद में मसीहीयों के हाथ में आ गई। इस मसीही सल्तनत का दार-उल-हकूमत शहर “सफ़ा” था जो मक्का से मशरिक़ की तरफ़ कुछ फ़ासिले पर वाक़े था। ये यहूदी और मसीही अहले-किताब बमुक़ाबला मुशरिकीन ज़्यादा आलिम और बारसूख लोग थे और उन्होंने अहले अरब के मज़्हब पर बहुत तासीर की होगी। इस से ये तो वाज़ेह है कि इन जमाअतों की तालीम तौहीद ने मुहम्मद साहब पर ज़रूर असर किया होगा। इस अम्र की काफ़ी शहादत है कि उनके साथ मुहम्मद साहब का गहिरा राह व रब्त था, मसलन क़ुरआन-ए-मजीद में पैत्रियारको के जो क़िस्से मुंदरज हैं अगर उनका मुक़ाबला तल्मूद के बयानात से किया जाये जिसमें बाइबल मुक़द्दस की तारीख़ को कुछ तोड़ा मरोड़ा गया है और जो मुहम्मद साहब के ज़माने में यहूदीयों के दर्मियान मुरव्वज थे तो मालूम हो जाएगा कि इन ख़यालात के लिए मुहम्मद साहब कहाँ तक यहूदीयों के ज़ेर एहसान थे। ख़ुद क़ुरआन मजीद में बार-बार मुहम्मद साहब और यहूदीयों के दर्मियान गुफ़्तगु का ज़िक्र आया है और ये भी शक नहीं कि एक वक़्त उन का यह ताल्लुक़ बहुत ही दोस्ताना था। इन किताबों से ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब की ये आदत थी कि दीन के बारे में वो यहूदीयों से सवाल पूछा करते थे और सहीह मुस्लिम में इस मक़्सद की एक हदीस आई है जिससे सारा शुब्हा जाता रहता है, वो ये है :—
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द दोम - क़ुरआन की तफ़्सीर का बयान – हदीस 952
रावी : हसन बिन मुहम्मद ज़ाफ़रानी हुज्जाज बिन मुहम्मद इब्ने जरीज बिन अबी मलिका हमीद बिन अब्दुर्रहमान बिन औफ़
قَالَ ابْنُ عَبَّاسٍ سَأَلَهُمْ النَّبِيُّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ عَنْ شَيْئٍ فَکَتَمُوهُ وَأَخْبَرُوهُ بِغَيْرِهِ فَخَرَجُوا وَقَدْ أَرَوْهُ أَنْ قَدْ أَخْبَرُوهُ بِمَا قَدْ سَأَلَهُمْ عَنْهُ
तर्जुमा :— ''इब्ने अब्बास ने कहा कि जब नबी सलअम कोई सवाल अहले-किताब से पूछते तो वो इस मज़्मून को छुपा देते और इस की जगह कुछ और ही बता देते और इस ख़्याल में चले जाते कि ये समझेगा कि जो इसने पूछा था उसी का जवाब हमने दिया।''
सय्यद अमीर अली ने अपनी किताब Life & Teaching of Muhammad 7 में सफ़ा 57 पर इस अम्र को मान लिया कि इस्लाम की इशाअत में यहूदी और मसीही ख़्याल ने किस क़दर दख़ल पाया। चंद मसीही बिद्दती फ़िर्क़ों Docetes 8 , Marcionites 9 , Valentinians 10 वग़ैरा के अक़ीदों का ज़िक्र करते वक़्त जो अरब में आबाद थे, वो कहता है :—
’’मुहम्मद साहब की आमद से पेशतर ये सारी हदीसें जो अम्र वाक़ेअ पर मबनी थीं गो ख़यालात की जोलानी ने अपना रंग उन पर चढ़ा दिया, लोगों के अक़ाइद में नक़्श हो गई थीं और इसलिए उन लोगों के मुरव्वजा दीन का जुज़्व-ए-आज़म बन गईं। पस जब मुहम्मद साहब ने अपने अक़ीदे और शराएअ (शराअ की जमा) की इशाअत शुरू की तो उन हदीसों को लोगों में मुरव्वज पाया, इसलिए उन्हों ने उनको लेकर अरबों और गिर्द-ओ-नवाह की क़ौमों को उठाने का वसीला बना लिया क्योंकि वो लोग तमद्दुनी और अख़्लाक़ी तौर पर बहुत ही गिरे हुए थेI”
एक दूसरे मुसलमान ख़ुदाबख़्श ने अपने एक रिसाले (Indian + Islamic) में सफ़ा 9,10 पर यह लिखा :—
’’मुहम्मद साहब ने ना सिर्फ यहूदीयों की तालीम व अक़ाईद को क़बूल कर लिया था और तल्मूद की रसूम को, बल्कि बाअज़ यहूदी दस्तूरात को भी और उन सबसे बढ़कर तौहीद को जो कि इस्लाम की ऐन बुनियाद है।”
पस ये ज़ाहिर हो गया कि गो अक्सर अहले अरब बुतपरस्त थे, लेकिन सब के सब बुत-परस्ती में मुब्तला ना थे। बरअक्स इस के यहूदीयों और मसीहीयों के बहुत क़बीले थे जिनसे मुहम्मद साहब ने हक़ीक़ी ख़ुदा के बारे में बहुत कुछ सीख लिया और तौहीद की इस तल्क़ीन के लिए राह तैयार कर दी जिसने वहां के लोगों की ज़िंदगी में ऐसा इन्क़िलाब पैदा कर दिया।
दूसरा बाब
मुहम्मद साहब की विलादत और अवाइल ज़िंदगी
Mecca |
मुहम्मद साहब 570 ई. में बमुक़ाम मक्का पैदा हुए। उन के वालिद का नाम अब्दुल्लाह और उन की वालिदा का नाम आमना था। मौरूसी तौर पर अहले क़ुरैश काअबा के मुहाफ़िज़ थे और इसी वजह से अहले अरब उस को इज़्ज़त की निगाह से देखते थे। कहते हैं कि अब्दुल्लाह और आमना के निकाह के चंद रोज़ बाद अब्दुल्लाह को तिजारत के लिए शाम का सफ़र करना पड़ा। इस सफ़र से वापिस आते वक़्त राह में वो बीमार पड़ गया और अपनी अरूस को देखने से पेशतर ही रहलत कर गया। उसकी वफ़ात के चंद माह बाद आमना के बतन से मुहम्मद साहब पैदा हुए और चंद हफ़्तों के बाद शहरी अरबों के आम दस्तूर के मुताबिक़ आमना ने इस बच्चे को एक बद्दू औरत हलीमा नाम के सपुर्द किया। हलीमा ने इस यतीम बच्चे की परवरिश शुरू की और पाँच साल तक वो उस की परवरिश अपने घर पर करती रही। इस अर्से के गुज़रने के बाद बच्चा उस की वालिदा के हवाले किया गया। क़िसस-अल-अम्बिया और दीगर हदीस की किताबों में एक अजीब क़िस्सा बयान हुआ है कि जिन अय्याम में मुहम्मद साहब हलीमा के पास थे तो एक हादिसा उन पर वाक़ेअ हुआ। वो क़िस्सा ये है कि जब ये बच्चा हलीमा के दीगर बच्चों के साथ खेल रहा था (या बरिवायत दीगर बकरीयां चरा रहा था) तो नागहां दो फ़रिश्ते दिखाई दिए। उन्होंने आकर बच्चे को फ़ौरन पकड़ लिया और उसे ज़मीन पर चित्त लिटा के इस के सीने को खोला और ख़ालिस पानी से धो कर इस में से एक स्याह चीज़ निकाल डाली और उन्हों ने कहा :—
هذا حظ الشيطان منك يا حبيب الله तर्जुमा :— “ऐ ख़ुदा के प्यारे ये तेरे अंदर शैतान का हिस्सा था।“ जब वो ये कर चुके तो उन्हों ने उन के सीने को फिर बंद कर दिया और ग़ायब हो गए। इस अजीब क़िस्से का ज़िक्र मिश्कात अल-मसाबिह में भी हुआ है और दीगर इस्लामी किताबों में भी और बहुत से मुसलमान मुसन्निफ़ों ने इस पर बहुत लंबे चौड़े हाशीए चढ़ाए ताकि ये ज़ाहिर करें कि ख़ुदा ने बचपन ही से मुहम्मद साहब को नबुव्वत-ओ-रिसालत के लिए तैयार किया था। बाज़ों ने तो ये कहा कि मुहम्मद साहब को साफ़ किया गया और इसमें से गुनाह का दाग़-ओ-धब्बा हमेशा के लिए निकाल दिया गया। लेकिन ऐसा मालूम होता है कि या तो फ़रिश्ते इस ग़ैर मामूली काम के सरअंजाम देने में क़ासिर रहे या मुहम्मद साहब की शख़्सियत कुछ ऐसी मज़बूत थी कि वो ख़ुदा के इरादों को भी पीछे छोड़ गई, क्योंकि क़िसस अल-अम्बिया में मज़्कूर है कि चंद साल बाद एक दूसरे मौके़ पर जब मुहम्मद साहब मेअराज पर जाने को थे तो दो फ़रिश्ते ज़ाहिर हुए और मुहम्मद साहब का सीना-चाक कर के आब-ए-ज़मज़म के पानी से इस को ख़ूब धोया। ख़्वाह कुछ ही हो हलीमा ने जब ये क़िस्सा मुहम्मद साहब और इस के रफ़ीक़ों से सुना तो बहुत घबराई और साथ ही मिर्गी के आसारों को देख कर इस ने इरादा कर लिया कि इस बच्चे को उसी की माँ के हवाले कर दे और इस की ज़िम्मेदारी से सुबुक-दोश हो जाये। सिरतल-रसूल में ये बयान है कि हलीमा के ख़ावंद को भी फ़िक्र पैदा हो गई और यूं हुआ :—
’’ऐ हलीमा मुझे अंदेशा है कि इस बच्चे में शैतान घुसा हुआ है, इसलिए जल्द जा कर इस बच्चे को इस की माँ के सपुर्द कर दे।”
आमना ने दिल लगा कर इस क़िस्से को सुना और हलीमा के अंदेशों को सुनकर यूं चिल्लाई : أفتخوفت عليه الشيطان तर्जुमा : “क्या तुम्हें अंदेशा है कि इस पर शैतान चढ़ा है।” लेकिन चूँकि वो बच्चा अभी बहुत छोटा था उस ने हलीमा को फुसला कर एक और साल के लिए बच्चा उस के सपुर्द कर दिया।
इस अर्से के ख़त्म होने के बाद जब मुहम्मद साहब छः साल का हो गया तो उस ने बच्चे को इस की माँ के सपुर्द कर दिया। जब मुहम्मद साहब मक्का में अपनी वालिदा के पास आ गया तो इस से थोड़ी देर बाद आमना अपने किसी रिश्तेदार को मदीना में मिलने गई और मुहम्मद साहब को भी साथ लेती गई। चंद दिन वहां हंसी ख़ुशी गुज़ार कर अपने घर को रवाना हुई। लेकिन आमना बीमार पड़ गई और चंद दिनों बाद मर गई और ये बच्चा बिल्कुल ही यतीम रह गया और माँ बाप का साया सर पर से उठ गया। अब मुहम्मद साहब के दादा अब्दुल मुत्तलिब ने उस की परवरिश का ज़िम्मा लिया और उस की बड़ी ख़बरदारी करता रहा। लेकिन अब्दुल मुत्तलिब अस्सी (80) साल का बूढ़ा था और दो साल बाद वो भी चल बसा और मुहम्मद साहब को अपने बेटे अबू तालिब के सपुर्द कर गया। अबू तालिब बहुत नेक तैनत और कुशादादिल शख़्स था। उसने बड़ी वफ़ादारी और ख़ुश-उस्लूबी से इस ज़िम्मेदारी के काम को सरअंजाम दिया जो उस के वालिद ने इस के कंधों पर रख दिया था।
दस साल की उम्र में मुहम्मद साहब को अपने चचा अबू तालिब के हमराह तिजारती क़ाफ़िले के साथ जाना पड़ा और इस मुल्क में मसीहीयों की कसरत थी, इसलिए वहां उसे बहुत से मसीहीयों से मिलने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। इस तारीख़ से लेकर दावा-ए-नुबूव्वत तक तीस साल का अरसा गुज़रा। इस अर्से में मुहम्मद साहब की ज़िंदगी के मुताल्लिक़ कोई काबिल-ए-ज़िक्र वाक़िया नहीं गुज़रा। अपनी सदाक़त-ओ-दियानत के बाइस मुहम्मद साहब सब का अज़ीज़ बन गया और कहते हैं कि इसी सदाक़त की वजह से लोग उसे “अल-अमीन” कहने लगे।
अबू तालिब दौलते दुनिया से बहुत बहरावर ना था। इसलिए उस की मश्वरत से मुहम्मद साहब को अपनी मआश हासिल करने की फ़िक्र हुई और इसके लिए जल्द ही एक मौक़ा मिल गया। ख़दीजा नामी एक दौलतमंद बेवा ने क़ाफ़िले के साथ मुहम्मद साहब को शाम जाने के लिए मुलाज़िम रख लिया। चंद दिनों के बाद एक क़ाफ़िले के हमराह वो रवाना हुए और जो काम उस के सपुर्द था उसे ऐसी होशयारी और तनदिही से सरअंजाम दिया कि उस के वापिस आने पर ख़दीजा ने उस से शादी कर ली। इस वक़्त मुहम्मद साहब की अम्र तक़रीबन पच्चीस साल की थी और ख़दीजा (रज़ी.) कम-अज़-कम चालीस साल की। अम्र के इस क़दर तफ़ावुत के बावजूद भी ये शादी मसऊद ठहरी। उस के बतन से छः बच्चे पैदा हुए, लेकिन वो सब अय्याम तफ़ूलियत ही में मर गए। ख़दीजा के बच्चे पहले ख़ावंद से भी थे, लेकिन अगर सब नहीं तो अक्सर उनमें से भी पहले ही मर चुके थे। उनके बारे में मिश्कात में एक दिलचस्प हदीस आई है। मुहम्मद साहब के दावा-ए-नुबूव्वत के बाद एक रोज़ :—
मुस्नद अहमद - जिल्द अव्वल – हदीस 1076
हज़रत अली (रज़ी) की रिवायत
سَأَلَتْ خَدِيجَةُ النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ عَنْ وَلَدَيْنِ مَاتَا لَهَا فِي الْجَاهِلِيَّةِ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ هُمَا فِي النَّارِ
तर्जुमा : “ख़दीजा ने नबी से अपने दो बेटों के बारे में जो अय्याम-ए-जाहलीयत में मर गए थे सवाल किया। रसूल अल्लाह ने जवाब दिया कि वो दोनों (दोज़ख़ की) आग में हैं”
इस में तो कुछ शक नहीं कि एक वक़्त ख़दीजा और मुहम्मद साहब दोनों बुत-परस्त थे। क़दीम मुसलमानों की तारीख़ में इस का सरीह सबूत मिलता है, मसलन किताब मुस्नद (जिल्द चहारुम, सफ़ा 222) में ये मुंदरज है कि रात के वक़्त सोने से पेशतर ये दोनों बुतों के आगे सज्दा किया करते थे। इब्ने हम्बल ने इस दस्तूर का ये ज़िक्र किया :—
حدثني جار لخديجة بنت خويلد أنه سمع النبي صلعم ويقول لخديجة أي خديجة والله لا أعبد اللات والعزى والله لا أعبد أبداً قال فتقول خديجة خل اللات خل العزى قال كانت صنمهم التي كانوا يعبدون ثم يضطجعون
तर्जुमा : “अब्दुल्लाह ने कहा : ख़दीजा बिंत ख़ुवलीद के ख़ादिम ने मुझसे बयान किया कि उस ने नबी को ख़दीजा से ये कहते सुना। ख़ुदा की क़सम अब मैं लात और उज्ज़ा की परस्तिश नहीं करता और ख़ुदा की क़सम मैं आइन्दा को भी ऐसा ना करूँगा। उस ने कहा कि ख़दीजा ने ये जवाब दिया कि लात और उज्ज़ा को छोड़ दो (अब्दुल्लाह ने) कहा, बिस्तर ख्व़ाब पर जाने से पेशतर जिन बुतों की वो परस्तिश करते थे ये थे”
इस मज़्मून के बारे में क़ुरआन-ए-मजीद भी बिल्कुल ख़ामोश नहीं। सूरत अल-ज़ुहा (93:6-7) में ये लिखा है :—
أَلَمْ يَجِدْكَ يَتِيمًا فَآوَىٰوَوَجَدَكَ ضَالًّا فَهَدَىٰ
तर्जुमा : “क्या तुझे (ऐ मुहम्मद साहब) यतीम नहीं पाया और तुझे घर दिया और तुझे गुमराह पाया और तेरी हिदायत की”
जलाल उद्दीन ने इस आयत की तफ़्सीर में ये लिखा :—
ووجدك ضالاً عما أنت عليه من الشريعة فهدى أي هداك إليها
तर्जुमा : “क्या उसने तुझे अपनी शरीयत से जिस पर अब क़ायम है गुमराह ना पाया और इस की तरफ़ तेरी हिदायत की”
शाह अब्दुल अज़ीज़ देहलवी ने क़ुरआन की फ़ारसी तफ़्सीर में इस की मज़ीद वज़ाहत कर दी। बक़ौल उन के :—
इस आयत में रसूल साहब की रुहानी तारीख़ के इस ज़माने की तरफ़ इशारा है जब उस ने बालिग़ हो कर ख़िरद हासिल कर के ये मालूम कर लिया कि बुतों की परस्तिश और अय्याम जहालत की रसूम हीच थीं....पस उन्हों ने इन बुतों को तर्क किया और उन बद रसूम से किनारा-कशी की और इब्राहिम के ख़ुदा का इर्फ़ान हासिल किया।
फिर सूरत अल-फतह (48:1-2) में यूं मर्क़ूम है :—
إِنَّا فَتَحْنَا لَكَ فَتْحًا مُّبِينًالِّيَغْفِرَ لَكَ اللَّهُ مَا تَقَدَّمَ مِن ذَنبِكَ وَمَا تَأَخَّرَ
तर्जुमा : “हमने तुम्हारे लिए एक सरीह फ़त्ह हासिल की जिसका ये निशान है कि उस ने तेरे पहले और तेरे पिछले गुनाह माफ़ कर दिए”
इस मशहूर आयत की तफ़्सीर में “पहले गुनाह” की निस्बत मुफ़स्सिर अब्बास ने ये रक़म किया :—
ما تقدم من ذنبك قبل الوحي
तर्जुमा : “यानी तेरे वो गुनाह जो वह्यी नाज़िल होने से पेशतर के थे”
अब्बास के बयान से ये साफ़ ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब के जिन गुनाहों का इस आयत में ज़िक्र है, वो इस आलम-ए-शबाब और अवाइल उम्र के गुनाह थे। यानी ऐसे गुनाहों का जो दावा-ए-नुबूव्वत से पेशतर उन से सरज़द हुए और ख़ुद मुहम्मद साहब ने माबाद अय्याम में अपनी जवानी के गुनाहों की तरफ़ इशारा किया और सहीह मुस्लिम और बुख़ारी में उन के इस्तिग़फ़ार की दुआओं का ज़िक्र आया है। चुनान्चे मिसाल के तौर पर एक दुआ मिश्कात अल-मसाबिह (किताब अल-सलात) में से यहां नक़्ल की है :—
सहीह मुस्लिम - जिल्द अव्वल – हदीस 1806
اللَّهُمَّ اغْفِرْ لِي مَا قَدَّمْتُ وَمَا أَخَّرْتُ وَمَا أَسْرَرْتُ وَمَا أَعْلَنْتُ وَمَا أَسْرَفْتُ وَمَا أَنْتَ أَعْلَمُ بِهِ مِنِّي
तर्जुमा : “ऐ ख़ुदा मेरे पहले और पिछले (वह्यी नाज़िल होने से) गुनाहों को माफ़ कर जिनको मैंने छुपाया, जिनको मैंने ज़ाहिर किया, जिनको मैंने शिद्दत से किया और जिनको मेरी निस्बत तू ही जानता है”
ये तस्लीम कर लेना आसान है कि मुहम्मद साहब ने अपने वालदैन और मुतवल्लियों की तरह बुत-परस्ती में हिस्सा लिया। ये तो तहक़ीक़ है कि इस के वालदैन बुतों की परस्तिश करते थे और क़ुरआन-ए-मजीद में लिखा है कि इसी वजह से मुहम्मद साहब को मुमानअत हुई कि उन की वफ़ात के बाद उन के लिए दुआ करें।
सूरत अल-तौबा (9:113) में ये लिखा है :—
مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَن يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ وَلَوْ كَانُوا أُولِي قُرْبَىٰ مِن بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمْ أَنَّهُمْ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ
तर्जुमा : “ना नबी को चाहिए और ना ईमानदारों को कि उन लोगों की माफ़ी के लिए दुआ करें, ख़्वाह वो रिश्तेदार ही क्यों ना हों जो ख़ुदा के साथ दूसरों को शरीक करते हैं बाद उस के कि ये वाज़ेह हो गया कि वो दोज़ख़ी हैं।”
गो मुहम्मद साहब आलम-ए-शबाब और अवाइल उम्र में बुतपरस्त थे, लेकिन मुतवस्सित उम्र के हो कर उन्होंने बुत-परस्ती की सारी रसूम को तर्क कर दिया। उसके हनीफ़ रिश्तेदारों और मसीही मतबन्ना (متبنّٰی) बेटे जै़द की तासीर से बिला-लिहाज़ मसीहीयों और यहूदीयों की आम तासीर के वो बतदरीज वाहिद ख़ुदा के परस्तार बन गए और उस बड़े पैग़ाम के लिए तैयार हो गए जिसकी निस्बत उन्होंने यक़ीन कर लिया कि ख़ुदा ने उसको लोगों को सुनाने के लिए भेजा था।
तीसरा बाब
पैग़ाम का ऐलान
ख़दीजा दौलतमंद बेवा थी। इस के साथ शादी करने से मुहम्मद साहब को फ़ारिग अलबाली के साथ दीनी उमूर पर ग़ौर करने का मौक़ा मिल गया। सय्यद अमीर अली अपनी किताब (Life of Muhammad) में ये मर्क़ूम किया :—
’’या तो अपने ख़ानदान की गोद में या सहरा के वस्त में उसने अपना वक़्त ग़ौर-ओ-फ़िक्र में सर्फ़ किया। गोशा-नशीनी तो इस की ज़िंदगी का एक जुज़्व बन गया था। हर साल रमज़ान के महीने वो अपने ख़ानदान समेत कोह हिरा पर चला जाता और अपना वक़्त दुआ-ओ-नमाज़ में गुज़ारता और जो ग़रीब ग़ुरबा और मुसाफ़िर उसके पास आते उन की मदद करता था।”
मिश्कात अल-मसाबिह की किताब फ़ज़ाइल सय्यद-उल-मुर्सलीन में इसका मुफ़स्सिल बयान पाया जाता है, लेकिन उस बयान की यहां गुंजाइश नहीं। इस के मुताल्लिक़ कि इस अर्से में इस नबी का तर्ज़-ए-ज़िदंगी किया था? यहां इतना कहना काफ़ी है कि जब वो इस ग़ैर मुरई पर सोच रहा था तो पहाड़ की ग़ार में फ़रिश्तों की ख़्याली तस्वीरें और रोयतें उस को नज़र आने लगीं और उसको ये यक़ीन होता गया कि आस्मानी वह्यी और फ़रिश्तों से वो बातचीत कर रहा था। इन इब्तिदाई ख़्याली रोय्यतों का ज़िक्र जाबिर ने किया :—
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द दोम - क़ुरआन की तफ़्सीर का बयान – हदीस 1276
रावी अब्द बिन हमीद अबदूर्रज़्ज़ाक़ मुअम्मर, ज़ोहरी, अबू सलमा, जाबिर बिन अब्दुल्लाह
بَيْنَمَا أَنَا أَمْشِي سَمِعْتُ صَوْتًا مِنْ السَّمَائِ فَرَفَعْتُ رَأْسِي فَإِذَا الْمَلَکُ الَّذِي جَائَنِي بِحِرَائَ جَالِسٌ عَلَی کُرْسِيٍّ بَيْنَ السَّمَائِ وَالْأَرْضِ فَجُثِثْتُ مِنْهُ رُعْبًا فَرَجَعْتُ فَقُلْتُ زَمِّلُونِي زَمِّلُونِي
तर्जुमा : “जब मैं चला जा रहा था तो मैंने आस्मान से एक आवाज़ सुनी और मैंने आँखें उठा कर देखा ! एक फ़रिश्ता आस्मान व ज़मीन के माबैन तख़्त पर बैठा हुआ मेरे पास कोह हिरा में आया। इस को देखकर मैं बहुत डर गया, तब मैंने अपने घर वालों के पास आकर ये कहा, मुझे ढाँप दो उन्होंने मुझे ढाँप दिया।” (मिश्कात अल-मसाबिह बाब अलबअसत बअद अल-वही)।
आईशा हज़रत की चहेती बीवी ने ये ख़बर ख़ुद मुहम्मद साहब से सुनी होगी। चुनान्चे उसने इस वही के उतरने का बयान यूं किया है :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द पंजुम - आँहज़रत की बअसत और नुज़ूल वही का बयान – हदीस 423
आग़ाज़ वही की तफ़्सील :—
وعن عائشة رضي الله عنها قالت : أول ما بدئ به رسول الله صلى الله عليه و سلم من الوحي الرؤيا الصادقة في النوم فكان لا يرى رؤيا إلا جاءت مثل فلق الصبح ثم حبب إليه الخلاء وكان يخلو بغار حراء فيتحنث فيه – وهو التعبد الليالي ذوات العدد – قبل أن ينزع إلى أهله ويتزود لذلك ثم يرجع إلى خديجة فيتزود لمثلها حتى جاءه الحق وهو في غار حراء فجاءه الملك فقال : اقرأ . فقال : " ما أنا بقارئ " . قال : " فأخذني فغطني حتى بلغ مني الجهد ثم أرسلني فقال : اقرأ . فقلت : ما أنا بقارئ فأخذني فغطني الثانية حتى بلغ مني الجهد ثم أرسلني فقال : اقرأ . فقلت : ما أنا بقارئ . فأخذني فغطني الثالثة حتى بلغ مني الجهد ثم أرسلني فقال : [ اقرا باسم ربك الذي خلق . خلق الإنسان من علق . اقرأ وربك الأكرم . الذي علم بالقلم . علم الإنسان ما لم يعلم
तर्जुमा : “नबी को जो मकाशफ़े इब्तिदा में मिले वो सच्चे ख़्वाबों की सूरत में थे.... इस के बाद ख़लवत नशीनी के दिल-दादा हो गए और कोह हिरा की एक ग़ार में जा कर तन्हा बैठा करते थे और रात-दिन इबादत में लगे रहते थे......हत्ता कि एक रोज़ फ़रिश्ते ने इस के पास आकर ये कहा “पढ़” नबी ने कहा मैं पढ़ा हुआ नहीं। मुहम्मद साहब ने कहा कि इस के बाद फ़रिश्ते ने मुझे पकड़ कर ऐसे ज़ोर से दबाया कि मैं मुश्किल से बर्दाश्त कर सकता था और छोड़कर फिर मुझे ये कहा ''पढ़' मैंने कहा कि मैं पढ़ा हुआ नहीं और फिर पकड़ कर मुझे ऐसे ज़ोर से दबाया कि मैं मुश्किल से बर्दाश्त कर सका और फिर मुझे छोड़ कर कहा कि “पढ़” मैंने कहा कि मैं पढ़ा हुआ नहीं और फिर इसने तीसरी दफ़ा पकड़ कर ज़ोर से दबाया कि मैं मुश्किल से बर्दाश्त कर सका और मुझे कहा “अपने परवरदिगार का नाम लेकर पढ़ जिसने पैदा किया आदमी को, गोश्त के लोथड़े से बनाया और पढ़ तेरा परवरदिगार बड़ा करीम है जिसने क़लम के ज़रीये से इल्म सिखाया”
एक ख़ास वक़्फ़े के सिवा उस वक़्त से लेकर तक़रीबन 23 साल तक हसब-ए-मौक़ा कई मकाशफ़े मुहम्मद साहब सुनाता रहा जो दीनी भी थे और तमद्दुनी और मुल्की भी। उनकी निस्बत उसने ये ऐलान किया कि वो जिब्राईल फ़रिश्ते के वसीले उसको मिले थे। इस नबी की ज़िंदगी का ग़ौर से मुतालआ करने से ये मालूम हो जाएगा कि पहले-पहल तो उसने सच्चे दिल से ये यक़ीन कर लिया कि ख़ुदा ने उसको चुन कर अपना रसूल मुक़र्रर किया है ताकि वो अपने हम वतनों को उनकी बुत-परस्ती से छुड़ाए। लेकिन जूँ-जूँ ज़माना गुज़रता गया और ज़ोर-ओ-ताक़त हासिल करने की इशतिहा बढ़ती गई, तब बे-शक उन्होंने बाअज़ मुकाशफ़ात को अपने मक़्सद की ताईद के लिए मिंजानिब अल्लाह ठहराकर पेश किया होगा।
हदीस नवीसों ने एक ख़ास अर्से का ज़िक्र किया है जिसमें कि इल्हाम नाज़िल होना मौक़ूफ़ रहा। बाअज़ के नज़्दीक ये अरसा तीन साल का था और बाअज़ के नज़्दीक सिर्फ़ छः माह का। ख़्वाह कुछ ही हो, मुस्लिम और बुख़ारी दोनों ने बयान किया है कि कुछ अर्से तक फ़रिश्तों का दिखाई देना मुअत्तल रहा। इस से मुहम्मद साहब के दिल पर ऐसी चोट लगी कि एक वक़्त ख़ुदकुशी पर आमादा हो गए।
मुस्नद अहमद - जिल्द नह्म – हदीस 5882
उम्मुल मोमनीन हज़रत आईशा की रिवायत :—
وَرَقَةُ أَنْ تُوُفِّيَ وَفَتَرَ الْوَحْيُ فَتْرَةً حَتَّى حَزِنَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فِيمَا بَلَغَنَا حُزْنًا غَدَا مِنْهُ مِرَارًا كَيْ يَتَرَدَّى مِنْ رُءُوسِ شَوَاهِقِ الْجِبَالِ فَكُلَّمَا أَوْفَى بِذِرْوَةِ جَبَلٍ لِكَيْ يُلْقِيَ نَفْسَهُ مِنْهُ تَبَدَّى لَهُ جِبْرِيلُ عَلَيْهِ السَّلَام فَقَالَ لَهُ يَا مُحَمَّدُ إِنَّكَ رَسُولُ اللَّهِ حَقًّا فَيُسْكِنُ ذَلِكَ جَأْشَهُ وَتَقَرُّ نَفْسُهُ عَلَيْهِ الصَّلَاة وَالسَّلَامُ فَيَرْجِعُ فَإِذَا طَالَتْ عَلَيْهِ وَفَتَرَ الْوَحْيُ غَدَا لِمِثْلِ ذَلِكَ فَإِذَا أَوْفَى بِذِرْوَةِ جَبَلٍ تَبَدَّى لَهُ جِبْرِيلُ عَلَيْهِ السَّلَام فَقَالَ لَهُ مِثْلَ ذَلِكَ
तर्जुमा : कुछ ही दिनों बाद वर्क़ा का इंतिक़ाल हो गया और सिलसिला वही बंद हो गया, फतरत-ए-वही की वजह से नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम इतने दिल-ए-गिरफ़्ता हुए कि कई मर्तबा पहाड़ की चोटियों से अपने आपको नीचे गिराने का इरादा किया, लेकिन जब भी वो इस इरादे से किसी पहाड़ी की चोटी पर पहुंचते तो हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम सामने आ जाते और अर्ज़ करते ऐ मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम आप अल्लाह के बरहक़ रसूल हैं, इससे नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम का जोश ठंडा और दिल पर सुकून हो जाता था, और वो वापिस आ जाते, फिर जब ज़्यादा अरसा गुज़र जाता तो नबी सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम फिर इसी तरह करते और हज़रत जिब्राईल अलैहिस्सलाम उन्हें तसल्ली देते थे।
मोअर्रिखों ने इस अम्र को बख़ूबी वाज़ेह कर दिया कि मुहम्मद साहब को कुछ मिर्गी जैसी बीमारी थी और उन पर ग़शी तारी हो जाती थी और इस हालत में हाथ पांव मारा करते थे। मुसलमानों की किताबों में इनकी इस बीमारी का कई बार ज़िक्र आया है और जब ऐसी ग़शी की हालत तारी होती तो उनके पैरुं उन पर पानी के छींटे मारा करते थे। चुनान्चे बुख़ारी में मुहम्मद साहब से रिवायत है :—
सहीह बुख़ारी - जिल्द दोम - तफ़ासीर का बयान – हदीस 2137
रावी याह्या वकीअ अली इब्ने मुबारक याह्या बिन अबी कसीर
يْتُ خَدِيجَةَ فَقُلْتُ دَثِّرُونِي وَصُبُّوا عَلَيَّ مَائً بَارِدًا قَالَ فَدَثَّرُونِي وَصَبُّوا عَلَيَّ مَائً بَارِدًا
तर्जुमा : “मैंने ख़दीजा के पास जा कर कहा मुझे ढाँप दे, इसलिए उन्होंने मुझे ढाँप दिया और मुझ पर ठंडा पानी डाला”
मिश्कात अल-मसाबिह की किताब फ़ज़ाइल अल-मुरसलिन में उबादा बिन सामित से रिवायत है :—
إِذَا أُنْزِلَ عَلَيْهِ الْوَحْيُ كُرِبَ لِذَلِكَ وَتَرَبَّدَ وَجْهُهُ
तर्जुमा : “जब उस पर वही नाज़िल हुई तो इस की वजह से उन को तशवीश हुई और उनका चेहरा घबरा गया”
जो हालात हम तक पहुंचे उन से ज़ाहिर है कि इन ग़शियों की वजह से उस के पैरौओं को बहुत फ़िक्र पैदा हो गई। बाज़ों को तो ये अंदेशा हो गया कि उसे देव का आसीब है। बाज़ों ने ख़्याल किया कि किसी जादू का असर उन पर हो गया। ख़ुद मुहम्मद साहब उसे जादू की तासीर समझते थे। अगरचे उन्होंने इस मर्ज़ से भी अपनी ग़रज़ निकाली और उन ग़शियों को जिब्राईल फ़रिश्ता की तासीर से मंसूब किया। अजीब बात तो ये है कि अहादीस में बार-बार ज़िक्र हुआ है कि मुहम्मद साहब पर जादू किया गया था और मुसलमान उलमा को इस में कुछ नुक़्स मालूम नहीं होता कि पैग़म्बर ख़ुदा जादू से मूसिर हो। मिश्कात अल-मसाबिह में बाब मोजज़ात में इस अजीब अम्र का मुफ़स्सिल बयान आया है। चुनान्चे मुफ़स्सला-ए-ज़ैल हदीस मुस्लिम और बुख़ारी दोनों में पाई है :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द पंजुम - मोजज़ों का बयान – हदीस 481
وعن عائشة قالت سحر رسول الله صلى الله عليه و سلم حتى إنه ليخيل إليه أنه فعل الشيء وما فعله حتى إذا كان ذات يوم وهو عندي دعا الله ودعاه ثم قال أشعرت يا عائشة أن الله قد أفتاني فيما استفتيته جاءني رجلان فجلس أحدهما عند رأسي والآخر عند رجلي ثم قال أحدهما لصاحبه ما وجع الرجل قال مطبوب قال ومن طبه قال لبيد بن الأعصم اليهودي قال في ماذا قال في مشط ومشاطة وجف طلعة ذكر قال فأين هو قال في بئر ذروان فذهب النبي صلى الله عليه و سلم في أناس من أصحابه إلى البئر فقال هذه البئر التي أريتها وكأن ماءها نقاعة الحناء ولكأن نخلها رءوس الشياطين فاستخرجه متفق عليه
तर्जुमा : “आईशा से रिवायत है कि उसने कहा कि रसूल-ए-ख़ूदा पर किसी ने जादू कर दिया जिसका असर यहां तक हुआ कि वो ख़्याल करने लगे कि मैंने फ़ुलां काम किया, हालाँकि उन्होंने नहीं किया था।” फिर आईशा ने कहा कि मुहम्मद साहब ने फ़रमाया कि दो आदमी मेरे पास आए। एक तो मेरे सिरहाने बैठ गया और एक मेरे पाए ताने। इसके बाद एक ने अपने रफ़ीक़ से कहा कि इस आदमी (मुहम्मद साहब) की बीमारी क्या है? दूसरे ने जवाब दिया कि इस पर जादू किया गया है। पहले ने पूछा कि इस पर जादू किसने किया? उसने जवाब दिया कि लबीद अल-आसिम यहूदी ने। उस ने फिर पूछा कि कैसे किया? उसने जवाब दिया कि कंघी और उन बालों के ज़रीये जो इसमें से गिरते हैं और एक माद्दा खजूर के फूल के साथ। पहले ने पूछा कि वो कहाँ है ? उसने जवाब दिया कि ज़ारवान कुवें में। ये सुनकर मुहम्मद साहब अपने चंद अस्हाब को साथ लेकर इस कुवें पर गए और कहा कि ये कुँआं मुझे बताया गया है। कुवें का पानी हीना में जज़्ब हो गया था और खजूर के दरख़्तों का अक्स इस में शयातीन के सुरों की तरह नज़र आता था। फिर मुहम्मद साहब ने वो चीज़ें कुवें में से निकालीं, कहते हैं कि इस कुवें में मुहम्मद साहब की एक मूर्त मोम की बनी रखी थी जिसमें सुईयां पिरोई हुई थीं और एक धागा जिसमें ग्यारह गिरहें थीं उस के इर्द-गिर्द लिपटा हुआ था। तब जिब्राईल एक सूरह लाए जिसमें हिफ़ाज़त की दरख़्वास्त थी और इस सूरह की हर आयत के पढ़ने पर एक एक गृह खुलती जाती थी और जो जो सूई निकाली जाती थी, उसी क़दर मुहम्मद साहब को आराम होता जाता था। हत्ता कि उन को उस जादू से बिल्कुल आराम हो गया। बुख़ारी (जिल्द चहारुम, सफ़ा 18,17) में इस मज़्मून का मुफ़स्सिल ज़िक्र है जिससे बख़ूबी वाज़ेह है कि मुहम्मद साहब भी अपने हम-असर लोगों की तरह जादू को मानते थे। अल-ग़र्ज़ अगर जादू, बदनज़री और शुगून वग़ैरा के मुताल्लिक़ इस्लामी किताबों से मुहम्मद साहब के अक़ीदे का बयान लिखा जाये तो वर्क़ों के वर्के लिखे जा सकते हैं। सबूत के तौर एक दो मिसालें देना बेमौक़ा ना होगा। मिश्कात अल-मसाबिह के किताब अलतिब्ब व अलरका में मुस्लिम ने अनस से एक रिवायत क़लम-बंद की है :—
رَخَّصَ رسول الله صلى الله عليه وسلم فِي الرُّقْيَةِ مِنَ الْعَيْنِ وَالْحُمَّةِ وَالنَّمْلَةِ
तर्जुमा : “नज़र बद, बिच्छू के काटे और फोड़ों के लिए मुहम्मद साहब ने जादू की इजाज़त दी”
मुस्लिम ने एक और हदीस का भी इसी बाब में ज़िक्र किया कि उम्मे सलमा ने कहा:-
رَخَّصَ رسول الله صلى الله عليه وسلم فِي الرُّقْيَةِ مِنَ الْعَيْنِ وَالْحُمَّةِ وَالنَّمْلَةِ
तर्जुमा : “तहक़ीक़ मुहम्मद साहब ने एक लौंडी को अपने घर में देखा। उस के मुँह पर एक ज़र्द रंग का निशान था। उस की निस्बत मुहम्मद साहब ने कहा ये तो नज़र बद का असर है, इसके तावीज़ इस्तिमाल करो।”
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द अव्वल - तिब्ब का बयान – हदीस 2154
أَنَّ أَسْمَائَ بِنْتَ عُمَيْسٍ قَالَتْ يَا رَسُولَ اللَّهِ إِنَّ وَلَدَ جَعْفَرٍ تُسْرِعُ إِلَيْهِمْ الْعَيْنُ أَفَأَسْتَرْقِي لَهُمْ فَقَالَ نَعَمْ فَإِنَّهُ لَوْ کَانَ شَيْئٌ سَابَقَ الْقَدَرَ لَسَبَقَتْهُ الْعَيْنُ
तर्जुमा : “अस्मा बिंत अमीस ने कहा ऐ रसूल-ए-ख़ूदा औलाद जाफ़र पर नज़र का असर बहुत जल्द हो जाता है तो क्या मैं (इस को दूर करने के लिए) तावीज़ इस्तिमाल करूँ? उन्होंने कहा हाँ क्योंकि अगर कोई शए तक़्दीर की हरीफ़ है तो ये नज़र बद है।”
इस तरह के तुहमात का मुहम्मद साहब की ज़िंदगी पर बहुत असर था। चलते फिरते, खाते पीते, जिन्नात और आदमीयों की नज़र बद से महफ़ूज़ रहने के लिए इस किस्म के बहुत से टोटके इस्तिमाल किया करते थे। चुनान्चे मुस्लिम और बुख़ारी दोनों ने इस मतलब की हदीस बयान की कि मुहम्मद साहब ने एक मौक़े पर अपने पैरौओं से यूं ख़िताब किया :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द दोम - मुख़्तलिफ़ औक़ात की दुआओं का बयान – हदीस 951
وعن أبي هريرة قال : قال رسول الله صلى الله عليه و سلم إذا سمعتم صياح الديكة فسلوا الله من فضله فإنها رأت ملكا وإذا سمعتم نهيق الحمار فتعوذوا بالله من الشيطان الرجيم فإنه رأى شيطانا"
तर्जुमा : “जब तुम मुर्ग़ को बाँग देते सुनो तो ख़ुदा से रहमत की दुआ करो क्योंकि फ़िल-हक़ीक़त उसने फ़रिश्ते को देखा, लेकिन जब तुम गधे को रैंकते सुनो तो शैतान अलरजीम से ख़ुदा के पास पनाह माँगो फ़िल-हक़ीक़त उसने शैतान को देखा है।”
एक दूसरे मौके़ पर मुहम्मद साहब ने आदमीयों के इस बड़े दुश्मन के हियलों से बचने का ये ईलाज बताया कि बाएं कंधे पर तीन दफ़ा थूक लो, चूँकि मुहम्मद साहब को जिन्नात की हस्ती का यक़ीन था, इसलिए उनकी सारी ज़िंदगी ख़ौफ़ और दहश्त में गुज़री और यही हाला आज तक उस के पैरौओं का है। अहले क़ुरैश में से बाअज़ लोग मुहम्मद साहब पर ये तअन किया करते थे कि उस पर कोई जिन्न चढ़ा था। ये शहादत भी कुलअदम नहीं कि एक वक़्त उनकी ज़िंदगी में उनको ख़ुद ये यक़ीन हो गया था।
पहले-पहल मुहम्मद साहब चुप-चाप पोशीदा तौर से अपनी तालीम की तल्क़ीन करते रहे और सबसे पहले ख़दीजा ने मुसलमान होने का इक़रार किया। इस के बाद दूसरों ने अपने ईमान का इज़्हार किया और चंद माह के अर्से में अली, अबू-बकर, जै़द और चंद दीगर अश्ख़ास भी ईमान लाए। यूं दो तीन साल के अर्से में चालीस या पच्चास अहालियाँ (अहले की जमा-साहिबान) मक्का मर्द-ओ-ज़न मिला कर इस नए दीन में शरीक हो गए। जब ये फ़रीक़ कुछ ज़ोर पकड़ गया तो मुहम्मद साहब ने ख़ुदा की वहदत और अपनी रिसालत का ऐलान बरमला करना शुरू किया। पहले-पहल तो अहले क़ुरैश ने उनको हंसी में उड़ा दिया। लेकिन जब इस नए वाइज़ ने उनके क़ौमी देवताओं को बुरा भला कहना शुरू किया और उनके पुराने अक़ाइद की मज़म्मत शुरू की तो उनकी तरफ़ से लापरवाई ज़ाहिर करने की बजाय उनकी मुख़ालिफ़त शुरू कर दी और इस छोटे गिरोह को दुख देने लगे। इन मुख़ालिफ़ों से मुहम्मद साहब की उनके चचा अबू तालिब ने हिफ़ाज़त की, लेकिन उसके पैरौओं की हिफ़ाज़त मुश्किल थी। इसलिए क़ुरैश का सारा नज़ला उन पर गिरा। जब मुहम्मद साहब ने देखा कि ना तो वो अपने पैरौओं की हिफ़ाज़त कर सकता था और ना उनको खोना चाहता था, इसलिए क़ुरैश के ग़ज़ब से बचाने की इसको ये राह सूझी। तफ़्सीर अलबेज़ावी (सफ़ा 367) में मज़्कूर है कि :—
’’ एक नौ मुस्लिम अम्र बिन यसार को क़ुरैश ने ऐसा अज़ाब दिया कि वो आख़िर-ए-कार मुर्तद हो गया और अपनी बर्गशतगी की सदाक़त ज़ाहिर करने की ख़ातिर उसने मुहम्मद साहब को बुरा-भला कहना शुरू किया। लेकिन बादअज़ां जब वो फिर मुहम्मद साहब के सामने आया तो उसने बयान किया कि उस का इर्तिदाद तो मह्ज़ दिखावे की ख़ातिर था ताकि वो दुश्मनों के अज़ाब से बच जाये और मुहम्मद साहब को इसने यक़ीन दिलाया कि मेरा दिल तो ठीक है”
इस पर मुहम्मद साहब ने कहा कि ऐसी हालतों में तक़िया (डर की वजह से हक़ पोशी करना जायज़ था और अपने इस शागिर्द को ख़ुश कर के वापिस किया और ये कहा :—
إن عادوا لك فعد لهم بما قلت
तर्जुमा : “अगर वो तुझे फिर ईज़ा दें तो फिर उनकी तरफ़ ऊद कर जा और जो तू ने पहले कहा था वही फिर कह दे।”
मुहम्मद साहब की तरफ़ से ऐसा बयान सदाक़त के मेयार से ऐसा बईद था कि इसका यक़ीन दिलाने की ख़ातिर ख़ास वह्यी की ज़रूरत पड़ी। पस हमेशा के लिए क़ुरआन के औराक़ में इस रिया की इजाज़त का धब्बा रहेगा। सूरह (16:108) में ये बयान पाया जाता है :—
مَن كَفَرَ بِاللَّهِ مِن بَعْدِ إِيمَانِهِ إِلَّا مَنْ أُكْرِهَ وَقَلْبُهُ مُطْمَئِنٌّ بِالْإِيمَانِ وَلَٰكِن مَّن شَرَحَ بِالْكُفْرِ صَدْرًا فَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ مِّنَ اللَّهِ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيمٌ
तर्जुमा : “जो शख़्स ख़ुदा पर ईमान लाने के बाद उस का इन्कार करे। अगर वो इस पर मज्बूर किया गया और इस का दिल ईमान में मुत्मइन रहा (वो बेक़सूर है) लेकिन जिसने अपना सीना कुफ़्र के लिए खोल दिया उन पर ख़ुदा का ग़ज़ब और सख़्त अज़ाब नाज़िल होगा।”
सिर्फ इसी मौक़े पर मुहम्मद साहब ने अपने पैरौओं को झूट बोलने की इजाज़त नहीं दी। मिश्कात अल-मसाबिह की किताब अल-आदाब में तीन मौक़ों पर झूट बोलने की इजाज़त पाई जाती है। तिर्मिज़ी ने इस हदीस की तस्दीक़ की है :—
قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لَا يَحِلُّ الْكَذِبُ إِلَّا فِي ثَلَاثٍ كذب الرَّجُلُ امْرَأَتَهُ لِيُرْضِيَهَا وَالْكَذِبُ فِي الْحَرْبِ وَالْكَذِبُ لِيُصْلِحَ بَيْنَ النَّاسِ.
तर्जुमा : “रसूल-ए-ख़ूदा ने फ़रमाया झूट की सिवाए तीन मौक़ों के इजाज़त नहीं। अगर कोई अपनी बीवी को ख़ुश करने के लिए झूट बोले, जंग में झूट बोले और आदमीयों के दर्मियान सुलह कराने की ख़ातिर झूट बोले।”
बावजूद इन शराइत के भी इन मज़्लूम मुसलमानों को देर तक आराम ना मिला और क़ुरैश का ग़ुस्सा रोज़ बरोज़ बढ़ता गया। हत्ता कि इस्लाम की इशाअत के पाँच साल के बाद मुहम्मद साहब को ये सलाह देनी पड़ी कि नौ-मुस्लिम अबी सिना को भाग जाएं। इसलिए पंद्रह मुसलमान अबी सिना की तरफ़ रवाना हुए और बादअज़ां कुछ दूसरे मुसलमान उन में जा शामिल हुए। वहां के मसीही बादशाह ने उनके दुश्मनों के ग़ैज़ व ग़ज़ब से उन नौ-मुस्लिमों को पनाह दी।
चौथा बाब
क़ुरैश से तकरार
जब मुहम्मद साहब के पैरवान अबी सिना को हिज्रत कर गए तो रफ़्ता-रफ़्ता वह्यी (وحی) के लहजे ने भी कुछ सख़्ती इख़्तियार कर ली। पहले-पहल तो ख़ुदा की वहदत, ख़ल्क़त में इसकी क़ुदरत और हिक्मत पर ज़ोर दिया जाता था और क़ियामत और अदालत के यक़ीनी होने का बयान सुनाया जाता था। लेकिन अब बेईमान अरबों पर सख़्त लानतों की भर मार होने लगी। आइंदा सज़ा की सख़्ती ज़ाहिर करने के लिए दोज़ख़ की आग-ओ-अज़ाब का मुफ़स्सिल ज़िक्र होने लगा और जिन्हों ने उनकी इज़ारसानी में ख़ास हिस्सा लिया था उन पर लानतें और बद-दुआएं होने लगीं। चुनान्चे क़ुरैश पर जो लानत की गई उस की एक दो मिसालों से ज़ाहिर हो जाएगा कि उन्होंने मुहम्मद साहब और उन की तालीम की कहाँ तक मुख़ालिफ़त की थी। सूरत अल-हज (सुरह 22) में जिसके बाअज़ हिस्से शायद मदीना को हिज्रत कर जाने से थोड़ा अरसा पहले नाज़िल हुए, बेईमान क़ुरैश से यूं ख़िताब किया गया :—
सुरह अल-हज - आयत 19 से 21
هَٰذَانِ خَصْمَانِ اخْتَصَمُوا فِي رَبِّهِمْ فَالَّذِينَ كَفَرُوا قُطِّعَتْ لَهُمْ ثِيَابٌ مِّن نَّارٍ يُصَبُّ مِن فَوْقِ رُءُوسِهِمُ الْحَمِيمُيُصْهَرُ بِهِ مَا فِي بُطُونِهِمْ وَالْجُلُودُوَلَهُم مَّقَامِعُ مِنْ حَدِيدٍكُلَّمَا أَرَادُوا أَن يَخْرُجُوا مِنْهَا مِنْ غَمٍّ أُعِيدُوا فِيهَا وَذُوقُوا عَذَابَ الْحَرِيقِ
तर्जुमा : ''जो लोग ख़ुदा को नहीं मानते उनके लिए आग के कपड़े क़ताअ कर दिए गए हैं। उन के सरों पर खौलता हुआ पानी उंडेला जाएगा जिससे जो कुछ उन के पेट में है और खालें जल जाएँगी और उन के लिए लोहे के गुरज़ होंगे और घुटे घुटे जब उन से निकलना चाहें तो उसी में फिर धकेल दिए जाऐंगे और उन को हुक्म दिया जाएगा कि जलने के अज़ाब चखा करो।''
सूरत लहब (111) इस से कुछ पहले की है और इस में मुहम्मद साहब के चचा अबू लहब का ज़िक्र है। वो मुहम्मद साहब की सख़्त मुख़ालिफ़त किया करता था। गाली दुश्नाम देने में मुहम्मद साहब अपने रिश्तेदारों से कुछ पीछे नहीं रहे। चुनान्चे इस से जो इक़्तिबास दिया जाता है उस से बख़ूबी रोशन है और सब मुसलमान मानते हैं कि ये सुरह भी लौह-ए-महफ़ूज़ में इब्तदाए आलम से पेशतर लिखी थी। वो इबारत ये है :—
’’अबू-लहब के दोनों हाथ टूट गए और हलाक हुआ, ना तो इस का माल ही उस के काम आया और ना उसकी कमाई और वो डींग मारते हुए अनक़रीब आग में जा दाख़िल होगा और उस की जोरूओ भी जो लगाई बुझाई करती फिरती है कि उस की गर्दन में भान्जवान रस्सी होगी।''
ये जाये ताज्जुब नहीं कि जब मुहम्मद साहब ने नाम ले-ले कर कोसना शुरू किया तो इंतिक़ाम के लिए सख़्त ग़ुस्सा व ग़ज़ब भड़क उठा और ये मंसूबे होने लगे कि इस्लाम की इशाअत किसी तरह बंद कर दी जाये। इस में तो शक नहीं कि अगर अबू तालिब का डर ना होता कि इस के भतीजे के क़त्ल से ख़ून का पादाश लिया जाये तो मुहम्मद साहब को उन्होंने कब का क़त्ल कर दिया होता। लेकिन मुहम्मद साहब पर इसका उल्टा असर हुआ। वो आगे से ज़्यादा बुत-परस्ती पर मलामत करने और अपने दावा-ए-नुबूव्वत पर ज़ोर देने लगे और क़ुरआन-ए-मजीद के लिए ये दावा किया गया कि वो ख़ुदा का कलाम था जो आदमीयों की हिदायत के लिए आस्मान से नाज़िल हुआ। लेकिन ऐसे दावे का जवाब बेईमान क़ुरैश ने हमेशा ये दिया कि ये उसका अपना बनाया हुआ था कि वो मह्ज़ ''असातीरु-ल-अव्वलीन (اساطیر الاولین) यानी पहलों की कहानियां था।
इब्ने हिशाम ने सिरतल-रसूल में इस ज़माने का क़िस्सा बयान किया है जिससे इन मुन्किर अरबों के सुलूक का हाल मालूम होता है। कहते हैं कि एक रोज़ नज़ीर बिन हारिस ने अहले क़ुरैश के सामने खड़े हो कर फ़ारसी बादशाहों के चंद क़िस्से सुनाए और ये कहा :—
والله ما محمد بأحسن حديثاً مني وما حديثه إلا أساطير الأولين كتبه كما أكتبه
तर्जुमा : ''ख़ुदा की क़सम मुहम्मद साहब की कहानियां मेरी कहानीयों से बेहतर नहीं, वो तो क़दीम लोगों के क़िस्से हैं जो उसने लिख लिए हैं जैसे कि मैंने लिख लिए हैं।''
जब मुहम्मद साहब ने नबुव्वत का दावा किया और कहने लगा कि इसकी ख़बर यहूदी और मसीही मुक़द्दस किताबों में दी गई थी तो क़ुरैश ने ये जवाब दिया :—
يا محمد لقد سألنا عنك اليهود والنصارى فزعموا أن ليس لك عندهم ذكر ولا صفة فأرنا من يشهد لك أنّك رسول الله
तर्जुमा : ''ऐ मुहम्मद साहब हम यहूदीयों और ईसाईयों से तेरी बाबत पूछ चुके हैं। लेकिन उन्होंने ये जवाब दिया कि तेरी बाबत उनके पास कोई पीशीनगोई नहीं। पस अब हमको बता कि तेरे बारे में कौन गवाही देता है कि तू ख़ुदा का नबी है।'' (तफ़्सीर अल-बेज़ावी, सफ़ा 171)
फिर जब मुहम्मद साहब ने क़दीम बुज़ुर्गों का हाल क़ुरैश के सामने बयान किया जैसा कि उसने अपने यहूदी दोस्तों की ज़बानी सुना था। (ऐसे क़िस्से जो तौरेत के मुताबिक़ नहीं बल्कि तल्मूद के जाली क़िस्सों के मुताबिक़) तो क़ुरैश ने यूं ताना दिया :—
إِنَّمَا يُعَلِّمُهُ بَشَرٌ
तर्जुमा : ''तहक़ीक़ उसे कोई आदमी सिखाता है'' (सूरह नहल 16:103)
तफ़्सीरों से ये वाज़ेह है कि ये जवाब मह्ज़ किसी अटकल पर मबनी ना था बल्कि इससे आम लोग वाक़िफ़ थे यानी ये कि मुहम्मद साहब चंद यहूदीयों और मसीहीयों की ज़बान बाइबल मुक़द्दस के क़िस्से सुना करते थे और फिर अहले अरब को वह्यी समावी के तौर पर सुनाया करते थे। मज़्कूर बाला आयत की तफ़्सीर में मौलवी बैज़ावी ने इस बात को बख़ूबी साबित कर दिया कि अहले क़ुरैश का ये तअन बिल्कुल दुरुस्त था। चुनान्चे उस तफ़्सीर में ये इबारत है :—
يعنون جبرا الرومي غلام عامر بن الحضرمي، وقيل جبراً ويساراً، كانا يصنعان السيوف بمكة ويقرآن التوراة والإنجيل وكان الرسول صلى الله عليه وسلم يمرّ عليهما ويسمع ما يقرآنه
तर्जुमा : ''कहते हैं कि जिस शख़्स की तरफ़ यहां इशारा है वो यूनानी (यानी मसीही) ग़ुलाम जबर नामी ग़ुलाम आमिर इब्ने अल-हज़रमी था। ये भी कहा जाता है कि यहां इशारा जबर और यसार की तरफ़ था। ये दोनों मक्के में तल्वारें बनाया करते थे। ये दोनों तौरेत और इंजील पढ़ा करते थे और नबी उन के पास से गुज़रते वक़्त सुनने के लिए ठहर जाते थे।''
मदरिक और हुसैन ने भी यही बयान किया है। इसलिए कुछ शक नहीं कि मुहम्मद साहब ने अह्दे-अतीक़ और अह्दे-जदीद के जो क़िस्से सुनाए वो उन्होंने यहूदीयों और मसीहीयों से सीखे थे। इसी वजह से क़ुरैश ने उनको नए मकाशफ़े के तौर पर क़बूल करना ना चाहा।
अहले क़ुरैश और मुसलमानों के दर्मियान मोजज़ों के बारे में भी बहुत तकरार रही। जब मुहम्मद साहब ने नबुव्वत का दावा किया और अपने तईं मूसा और ईसा का जांनशीन क़रार दिया तो क़ुरैश ने ये ताना दिया कि इन बुज़ुर्गों की रिसालत तो उन के मोजज़ों के ज़रीये साबित हो गई। लेकिन तुम्हारे पास वो सनद कहाँ है? चुनान्चे क़ुरआन-ए-मजीद में बार-बार मुहम्मद साहब से मोजज़े तलब करने का ज़िक्र पाया जाता है और हर मौके़ पर मुहम्मद साहब ने एक ही जवाब दिया। उन्होंने हमेशा ये कहा कि मुझे मोजज़े नहीं दिए गए और ये कि मोजज़े सिर्फ़ ख़ुदा के हाथ में हैं और मैं तो सिर्फ डराने वाला हूँ। ऐसी बेशुमार आयतों में से एक आयत का पेश कर देना काफ़ी होगा। ये सूरह अन्आम (6:109) में है :—
وَ اَقۡسَمُوۡا بِاللّٰہِ جَہۡدَ اَیۡمَانِہِمۡ لَئِنۡ جَآءَتۡہُمۡ اٰیَۃٌ لَّیُؤۡمِنُنَّ بِہَا قُلۡ اِنَّمَا الۡاٰیٰتُ عِنۡدَ اللّٰہِ وَ مَا یُشۡعِرُکُمۡ ۙ اَنَّہَاۤ اِذَا جَآءَتۡ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ ۔
तर्जुमा : ''और अल्लाह की सख़्त कसमें खा कर कहते हैं कि अगर कोई मोजिज़ा उन के सामने आए तो वो ज़रूर उस पर ईमान ले आएँगे तुम समझा दो कि मोजज़े तो अल्लाह ही के पास हैं और तुम लोग क्या जानो ये लोग तो मोजज़े आए पर भी ईमान नहीं लाएँगे''
मुफ़स्सिरों का ये बयान है कि क़ुरैश ने बार-बार मुहम्मद साहब के पास आकर ये कहा ''ऐ मुहम्मद साहब तूने ख़ुद हमें कहा है कि मूसा ने अपने असा से चट्टान को चीरा और इसमें से पानी बह निकला और ईसा ने मुर्दों को ज़िंदा किया। अगर तू भी ऐसा निशान हमें दिखाएगा तो हम ईमान ले आएँगे।'' ये तो सच्च है कि हदीसों में मुहम्मद साहब के बेशुमार फ़साना आमेज़ मोजज़ों के क़िस्से आए हैं, लेकिन वो तो माबाद लोगों की इख़्तिरा मालूम होते हैं और मुहम्मद साहब की इज़्ज़त बढ़ाने की ख़ातिर दर्ज किए गए। उस ज़माने की एक ही वाहिद किताब जो हम तक पहुंची है, वो क़ुरआन-ए-मजीद है और उस में साफ़ तौर से वाज़ेह कर दिया गया कि मुहम्मद साहब क़ुरैश का ये तक़ाज़ा पूरा ना कर सके। शायद यहां मेअराज का ज़िक्र करना ग़ैर-मुनासिब ना होगा। क़ुरआन-ए-मजीद में इस क़िस्से की तरफ़ सिर्फ ये इशारा है :—
سُبۡحٰنَ الَّذِیۡۤ اَسۡرٰی بِعَبۡدِہٖ لَیۡلًا مِّنَ الۡمَسۡجِدِ الۡحَرَامِ اِلَی الۡمَسۡجِدِ الۡاَقۡصَا الَّذِیۡ بٰرَکۡنَا حَوۡلَہٗ لِنُرِیَہٗ مِنۡ اٰیٰتِنَا
तर्जुमा : ''उसकी तारीफ़ हो जो अपने बंदे को रात के वक़्त मस्जिद-उल-हराम से मस्जिद-उल-अक़्सा तक ले गया जिसका अहाता मुबारक है ताकि हम अपनी निशानीयां इसे दिखाए'' (सूरह बनी-इस्राईल 17:1)
माबाद की हदीसों ने रुहानी रवेय्यत के इस सादा बयान को अजीब क़िस्सा बना दिया कि मुहम्मद साहब बदन के साथ आस्मान पर की सैर कर आए। मिश्कात अल-मसाबिह और क़िसस अल-अम्बिया और दीगर हदीसों में इस क़िस्से का मुख़्तसर बयान ये है :—
’’एक रात को जब मुहम्मद साहब मक्के में अपने घर सो रहा था तो नागहाँ फ़रिश्ता जिब्राईल उसके पास आ खड़ा हुआ और उसका सीना चाक कर के उसके दिल को निकाला और उसे पानी से धोया और फिर इस को इसी मुक़ाम में रख दिया और एक अजीब उल-मख़्लूक़ मुरक्कब बुराक़ नामी पर मुहम्मद साहब को सवार कर के तरफ़त-उल-ऐन में यरूशलेम की मशहूर हैकल में ले गया। यहां मुहम्मद ने नमाज़ अदा की और फिर वहां से फ़रिश्ता उस को आस्मान में ले गया। वहां ख़ुदा तआला से उसने कलाम किया। इसी रात वो वापिस ज़मीन पर आ गया।''
इसी सफ़र का नाम मेअराज है और उसे एक बड़ा मोजिज़ा समझा जाता है और उन की रिसालत के सबूत और दावा-ए-नुबूव्वत की तस्दीक़ में पेश किया जाता है। जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके क़ुरआन मजीद में इसका ज़िक्र मह्ज़ रात की रुयते के तौर पर आया है। चुनान्चे सर सय्यद अहमद ख़ान मरहूम ने इसकी यही तशरीह की है। इसमें सफ़र का ज़िक्र सुरह बनी-इस्राईल की 60 आयत में यूं आया है :—
وَ مَا جَعَلۡنَا الرُّءۡیَا الَّتِیۡۤ اَرَیۡنٰکَ اِلَّا فِتۡنَۃً لِّلنَّاسِ وَ الشَّجَرَۃَ الۡمَلۡعُوۡنَۃَ فِی الۡقُرۡاٰنِ۔
तर्जुमा : ''और ख्व़ाब जो हमने तुमको दिखाया तो बस उस को लोगों की आज़माईश ठहराया और दरख़्त को जिस पर क़ुरआन-ए-मजीद में लानत की गई है''
जलालेन और अब्बास दोनों ने इस आयत को मेअराज से मंसूब किया। मुहम्मद अब्दुल हकीम ने क़ुरआन-ए-मजीद की तफ़्सीर में (सफ़ा 400) ये लिखा :—
ये सब आला दर्जे की रुयते थी जिसे रसूल ने रात के वक़्त देखा था जैसा कि इस सुरह की पहली आयत में मज़्कूर है कि ''वो अपने बंदे को रात के वक़्त ले गया''
इब्ने हिशाम ने सिरतल-रसूल के सफ़ा 139 पर ये बयान किया कि :—
إن عائشة زوج النبي صلعم كانت تقول ما فقد جسد رسول الله صلعم ولكن الله أسرى بروحه
तर्जुमा : ''तहक़ीक़ आयशा ज़ौजा रसूल कहा करती थी कि रसूल ख़ुदा का बदन तो ग़ायब नहीं हुआ लेकिन ख़ुदा रात के वक़्त उसकी रूह को ले गया''
इस मुफ़स्सिर ने एक और हदीस मुआवीया इब्ने अबू सुफ़ियान के बारे में इस मज़्मून की क़लम-बंद की :—
كانإذاسُئلعنمسرىرسولاللهصلعمقالكانترؤيامناللهتعالىصادقة.
तर्जुमा : ''जब इस से रसूल-ए-ख़ूदा के रात के सफ़र के बारे में पूछा गया तो उसने कहा ये ख़ुदा तआला की तरफ़ से एक सच्ची रुयते थी''
इसी तरह एक दूसरी हदीस इसी मज़्मून की इब्ने हिशाम ने क़लम-बंद की है :—
کان رسول اللہ صلعم یقول فیمابلغنی تنام عینی و قلبی یقظان۔
तर्जुमा : ''रसूल-ए-ख़ूदा ये कहा करते थे जो कुछ मुझे पहुंचा उस वक़्त मेरी आँख सो रही थी लेकिन मेरा दिल बेदार था''
इन इब्तिदाई मुसलमानों की शहादत से ये वाज़ेह है कि जिस मेअराज का ज़िक्र सिरतल-रसूल में हुआ वो एक ख्व़ाब या रोया था। इससे ये हरगिज़ साबित नहीं होता कि वो मोजज़े कर सकते थे। क़ुरआन-ए-मजीद के सारे मुफ़स्सिरों ने इन अल्फ़ाज़ ''मस्जिद अक़्सा'' की बिल-इत्तिफ़ाक़ ये तफ़्सीर की है कि ये यरूशलेम की हैकल थी और मिश्कात अल-मसाबिह में इस मेअराज के बारे में ये हदीस आई है कि मुहम्मद साहब ने कहा :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द पंजुम - मेअराज का बयान – हदीस 447
وعن ثابت البناني عن أنس أن رسول الله صلى الله عليه و سلم قال : " أتيت بالبراق وهو دابة أبيض طويل فوق الحمار ودون البغل يقع حافره عند منتهى طرفه فركبته حتى أتيت بيت المقدس فربطته بالحلقة التي تربط بها الأنبياء " . قال : " ثم دخلت المسجد فصليت فيه ركعتين
तर्जुमा : “और हज़रत साबित बनानी रहमतुल्लाह तआला अलैहि ताबई हज़रत अनस रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत करते हैं कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया मेरे सामने बुराक़ लाया गया जो एक सफ़ैद रंग का, दराज़ बीनी, मियाना क़द, चौपाया था, गधे से ऊंचा और ख़च्चर से नीचा था, जहां तक उस की निगाह जाती थी वहां उसका एक क़दम पड़ता था, मैं उस पर सवार हुआ और बैतुल-मुक़द्दस में आया, और मैंने इस बुराक़ को (मस्जिद के दरवाज़े पर) उस हलक़े से बांध दिया जिसमें अम्बिया किराम अपने बुराक़ों को या इस बुराक़ को बाँधते थे। आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया फिर मैं मस्जिद अक़्सा में दाख़िल हुआ और दो रकात नमाज़ पढ़ी”
अफ़्सोस की बात ये है कि यरूशलेम की यहूदी हैकल उस वक़्त बिल्कुल बर्बाद हो चुकी थी जैसा कि हर तालीम याफ़्ता शख़्स को मालूम है। मुहम्मद साहब की पैदाइश से सदीयों पेशतर रोमीयों ने इसको बर्बाद कर दिया था और उस वक़्त से वो कभी तामीर ना हुई। इस अम्र वाक़िया से मतला हो कर बाअज़ तालीम याफ़्ता मुसलमानों ने मुहम्मद साहब के जिस्म के साथ मेअराज करने के क़िस्से को रद्द कर दिया और यही कहने लगे कि ये रोया थी। चुनान्चे सर सय्यद अहमद ख़ां ने अपने लैक्चरों में इसकी यही तशरीह बयान की :—
’’मुसलमानों को मेअराज के बारे में जिस अम्र पर ईमान लाना चाहिए वो ये है कि मुहम्मद साहब ने रुयते में अपने तेईं मक्का से यरूशलेम जाते देखा और इस रुयते में इस ने फ़िल-हक़ीक़त अपने रब के बड़े से बड़े निशानों को देखा''
एक दूसरे तालीम याफ़्ता मुसलमान मिर्ज़ा अबूल-फ़ज़ल नामी ने अपनी किताब मंतख़यात क़ुरआन (सफ़ा 181) में क़ुरआन-ए-मजीद की इस आयत की ये तफ्सीर की :—
’’इस में मेअराज की इस मशहूर रुयते की तरफ़ इशारा है जो मुहम्मद साहब ने मक्का से मदीना की तरफ़ हिज्रत करने से पेशतर देखी थी''
सय्यद अमीर अली साहब ने भी अपनी किताब हयात मुहम्मद साहब (सफ़ा 58,59) अंग्रेज़ी में ये रक़म किया :—
’’ये अरसा भी मेअराज की इस रुयते के बाइस क़ाबिल लिहाज़ है जिसने शाइरों और मुहद्दिसों के ख़यालात में सुनहरी ख़्वाबों के जहानों को पैदा कर दिया और क़ुरआन-ए-मजीद के सादा अल्फ़ाज़ से बेशुमार फ़साने और क़िस्से बना लिए....मेरे ख़्याल में मेयुर साहब ने ठीक कहा कि “क़दीम मुसन्निफ़ उसे रोया समझते थे, ना कोई सफ़र बदन के साथ”
असल बात ये है बशर्ते के क़ुरआन-ए-मजीद की शहादत क़बूल की जाये कि मुहम्मद साहब ने कोई मोजिज़ा नहीं किया। उसने बार-बार उसका इन्कार किया। जब मुन्किर क़ुरैश ने इससे मोजिज़ा तलब किया तो वो सिर्फ इतना ही कह सकता था कि क़ुरआन-ए-मजीद ही इसका वाहिद मोजिज़ा था। चुनान्चे इससे ये रिवायत है :—
مَا مِنْ الْأَنْبِيَاءِ من نَبِيٌّ إِلَّا قد أُعْطِيَ من الآيات مَا مِثْلهُ آمَنَ عَلَيْهِ الْبَشَرُ وَإِنَّمَا كَانَ الَّذِي أُوتِيتُ وَحْيًا أَوْحَاهُ اللَّهُ إِلَيَّ
तर्जुमा : “कोई पैग़म्बर नहीं गुज़रा जिसे मोजिज़ा ना मिला हो ताकि लोग इस पर ईमान लाए, लेकिन मुझे तो वह्यी मिली है”
क़ुरआन-ए-मजीद में भी बिल्कुल यही मज़्मून आया है। चुनान्चे सूर (29:50-51) में ये लिखा है :—
وَ قَالُوۡا لَوۡ لَاۤ اُنۡزِلَ عَلَیۡہِ اٰیٰتٌ مِّنۡ رَّبِّہٖ قُلۡ اِنَّمَا الۡاٰیٰتُ عِنۡدَ اللّٰہِ وَ اِنَّمَاۤ اَنَا نَذِیۡرٌ مُّبِیۡنٌ ۔اَوَ لَمۡ یَکۡفِہِمۡ اَنَّاۤ اَنۡزَلۡنَا عَلَیۡکَ الۡکِتٰبَ یُتۡلٰی عَلَیۡہِمۡ۔
तर्जुमा : “और वो ये कहते हैं कि जब तक उस के रब की तरफ़ से कोई निशान इस पर नाज़िल ना हो....तू कह कि निशान तो सिर्फ ख़ुदा ही की ताक़त में हैं। मैं तो सिर्फ साफ़ डराने वाला हूँ। क्या उन के लिए ये काफ़ी नहीं कि हमने तुझ पर किताब नाज़िल की ताकि तू उन को पढ़ कर सुनाया करे”
इस के बारे में कि मुहम्मद साहब कोई मोजिज़ा ना दिखा सके क़ुरआन की शहादत ऐसी सरीह है कि तालीम याफ़्ता मुसलमानों को मजबूरन ऐसी हदीसें रद्द करनी पड़ीं जिनमें मुहम्मद साहब के अजीब-ओ-ग़रीब मोजज़ों का ज़िक्र हुआ और उनको ये तस्लीम करना पड़ा कि मुहम्मद साहब ने अपनी रिसालत के सबूत में कोई मोजिज़ा नहीं दिखाया। चुनान्चे सय्यद अमीर अली साहब ने अपनी किताब हयात मुहम्मद साहब के सफ़ा 49 (अंग्रेज़ी) पर ये साफ़ लिख दिया कि :—
’’ उन्होंने मुहम्मद साहब से उसकी रिसालत के सबूत में मोजिज़ा तलब किया तो ये गौरतलब जवाब उन्होंनें दिया कि “ख़ुदा ने मुझे मोजज़े करने के लिए नहीं भेजा। उसने तो मुझे तुम्हारे पास वाअज़ करने को भेजा है। इसलिए जो कुछ मैं लाया हूँ अगर तुम उस पर ईमान लाओ तो तुमको इस जहां में भी ख़ुशी होगी और अगले जहान में भी। अगर तुम मेरी नसीहत रद्द करोगे तो मैं तो सब्र करूँगा और ख़ुदा मेरे और तुम्हार दर्मियान फ़ैसला करेगा। मुहम्मद साहब ने मोजज़े दिखाने की ताक़त से इन्कार कर के अपनी मिंजानिब-अल्लाह की रिसालत की बुनियाद सरासर अपनी तालीम पर रखी।”
मुहम्मद साहब ना सिर्फ क़ुरआन-ए-मजीद को ख़ुदा की तरफ़ से मकाशफ़े के तौर पर पढ़ा करते थे बल्कि उनका ये दावा था कि इन्सानी साख़त की सारी इल्मी किताबों से वो आला किताब थी। अल-मुख़्तसर उन्होंने ये दावा किया कि क़ुरआन मजीद एक लासानी किताब है और ये ऐलान कर दिया कि इन्सानों और जिन्नों में से अगर किसी को ताक़त है तो इसकी मिस्ल बना लाए। फिर भी ये अजीब बात है कि तफ़्सीरों और हदीसों से ये शहादत मिलती है कि क़ुरआन-ए-मजीद के बाअज़ हिस्सों को मुहम्मद साहब के सिवाए दूसरों ने तैयार किया। चुनान्चे तफ़्सीर बैज़ावी के सफ़ा 164 पर एक क़िस्सा आया है कि मुहम्मद साहब का एक मुंशी अब्दुल्लाह बिन सअद बिन अबी सिरह था जिसने कम-अज़-कम एक आयत क़ुरआन की बनाई। बैज़ावी ने जिस क़िस्से का बयान किया, वो ये है :—
عبد الله بن سعد بن أبي سرح كان يكتب لرسول الله فلما نزلت: وَلَقَدْ خَلَقْنَا الإِنسَانَ مِن سُلالَةٍ مِّن طِينٍ، فلما بلغ قوله ثم أنشأناه خلقا آخر، قال عبد الله: فتبارك الله أحسن الخالقين تعجباً من تفضيل خلق الإنسان فقال عليه السلام اكتبها، فكذلك نزلت، فشك عبد الله، وقال: لئن كان محمداً صادقاً، لقد أوحي إليَّ مثل ما أوحي إليه، ولئن كان كاذباً، فلقد قلت كما قال
तर्जुमा : “अब्दुल्लाह बिन सअद बिन सिरह रसूल अल्लाह का मुंशी था और जब ये अल्फ़ाज़ नाज़िल हुए : وَلَقَدْ خَلَقْنَا الإِنسَانَ مِن سُلالَةٍ مِّن طِین और इन अल्फ़ाज़ पर ख़त्म हुए أنشأناه خلقا आख़िर तो अब्दुल्लाह ने चिल्ला कर ये कहा فتبارك الله أحسن الخالقين इस पर मुहम्मद साहब ने ये कहा “इन लफ़्ज़ों को लिख दे क्योंकि ऐसा ही नाज़िल हुआ है।” लेकिन अब्दुल्लाह को शक हुआ और कहने लगा “अगर मुहम्मद साहब की बात सच्च है तो जैसे इस पर वह्यी नाज़िल हुई वैसी ही मुझ पर भी अगर मुहम्मद की बात झूट है तो मैंने भी वैसा ही कहा जैसा उसने कहा था”
बैज़ावी के इस क़िस्से से ये वाज़ेह है कि अब्दुल्लाह के जुम्ले की उम्दगी से मुहम्मद साहब ऐसे ख़ुश हुए कि इस जुम्ले को फ़ौरन क़ुरआन में दाख़िल कर दिया और अब तक ये जुम्ला क़ुरआन में मौजूद है। बुख़ारी ने एक मोअतबर हदीस रिवायत की है जिसके ज़रीये क़ुरआन के बाअज़ दीगर मुक़ामों का चशमा भी मालूम हो जाता है। जिससे रोशन है कि मुहम्मद साहब के हम-अस्रों में बाअज़ ऐसे लोग थे जिनका तर्ज़ कलाम और तहरीर मुहम्मद साहब के तर्ज़-ए-कलाम से किसी अम्र में कम ना था, वो हदीस है :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द पंजुम - हज़रत उमर के मनाक़िब व फ़ज़ाइल का बयान – हदीस 658
عن أنس وابن عمر أن عمر قال : وافقت ربي في ثلاث : قلت : يا رسول الله لو اتخذنا من مقام إبراهيم مصلى ؟ فنزلت [ واتخذوا من مقام إبراهيم مصلى ] . وقلت : يا رسول الله يدخل على نسائك البر والفاجر فلو أمرتهن يحتجبن ؟ فنزلت آية الحجاب واجتمع نساء النبي صلى الله عليه و سلم في الغيرة فقلت [ عسى ربه إن طلقكن أن يبدله أزواجا خيرا منكن ] فنزلت كذلك وفي رواية لابن عمر قال : قال عمر : وافقت ربي في ثلاث : في مقام إبراهيم وفي الحجاب وفي أسارى بدر . متفق عليه
तर्जुमा : “हज़रत अनस और हज़रत इब्ने उमर रावी हैं कि हज़रत उमर ने फ़रमाया तीन बातों में मेरे परवरदिगार का हुक्म मेरी राय के मुताबिक़ नाज़िल हुआ। पहली बात तो ये कि मैंने अर्ज़ किया था या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम अगर मुक़ाम इब्राहिम को हम नमाज़ पढ़ने की जगह बनाएँ तो बेहतर हो (यानी तवाफ़-ए-काबा के बाद की दो रकातें पढ़ी जाती हैं अगर वो मुक़ाम इब्राहिम के पास पढ़ी जाएं तो ज़्यादा बेहतर रहेगा) पस ये आयत नाज़िल हुई (وَاتَّخِذُوْا مِنْ مَّقَامِ اِبْرٰه مَ مُصَلًّى) 2- अल-बकर 125) और बनाओ मुक़ाम इब्राहिम को नमाज़ की जगह। और (दूसरी बात ये कि) मैंने अर्ज़ किया था या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम आप सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की अजवाज-ए-मुतह्हरात को पर्दे में रहने का हुक्म फ़र्मा दें (ताकि ग़ैर महरम लोगों के सामने उनका आना बंद हो जाए) तो बेहतर हो। पस (मेरे इस अर्ज़ करने पर पर्दे की आयत नाज़िल हुई। और (तीसरी बात ये कि) जब नबी करीम सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की बीबियों ने रशक वग़ैरत वाले मुआमला पर इत्तिफ़ाक़ कर लिया था। तो मैंने (उन सबको मुख़ातब कर के) कहा था अगर आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम तुम्हें तलाक़ दे दें तो उनका परवरदिगार जल्द तुम्हारे बदले उनको अच्छी बीबियाँ दे देगा पस मेरे उन्ही अल्फ़ाज़ व मफ्हुम में ये आयत नाज़िल हुई। और हज़रत इब्ने उमर की एक रिवायत में यूं है कि उन्होंने बयान किया हज़रत उमर ने फ़रमाया तीन बातों में मेरे परवरदिगार का हुक्म मेरी राय के मुताबिक़ नाज़िल हुआ, एक तो मुक़ाम इब्राहिम (को नमाज़ अदा करने की जगह क़रार देने) के बारे में दूसरे (आँहज़रत सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम की बीबियों के) पर्दे के बारे में और तीसरे बद्र के क़ैदीयों के बारे में।
जिन तीन आयात को उमर ने पेश किया था वो अब तक क़ुरआन में मौजूद हैं और किसी बात में बाक़ी क़ुरआन से मुतफ़र्रिक़ नहीं। क़ुरआन-ए-मजीद को मिंजानिब अल्लाह साबित करने के लिए मुहम्मद साहब ने ये दलील भी दी कि वो कभी बर्बाद ना होगा। मुहम्मद साहब ने बार-बार ये कहा कि ख़ुदा क़ुरआन का मुहाफ़िज़ है ताकि इसमें ना तब्दीली हो और ना किसी तरह की कमी बेशी। पस मुहम्मद साहब ने बार-बार अहले क़ुरैश के सामने ये दावा किया कि क़ुरआन हर ज़माने में वैसा ही महफ़ूज़ रहेगा जैसा कि जिब्राईल फ़रिश्ते ने इस को मुहम्मद साहब पर नाज़िल किया था और इसी मक़्सद के लिए मुहम्मद साहब का क़ौल भी है :—
لُوْ جُعِلَ القرآنَ في إِهَابٍ ثمّ أُلقيِ في النَّارِ ما احْتَرَق
तर्जुमा : “अगर क़ुरआन-ए-मजीद को चमड़े में मुजल्लद कर के आग में डाल दें तो वो जलेगा नहीं”
हमारे पास इतनी गुंजाइश नहीं ताकि ये ज़ाहिर करें कि क़ुरआन-ए-मजीद के मतन को मुहम्मद साहब के ज़माने से लेकर कितना नुक़्सान पहुंच चुका है। सिर्फ इतना कहना काफ़ी होगा कि क़ुरआन-ए-मजीद की जो मोअतबर तफ़्सीरें हैं उनमें बेशुमार मुख़्तलिफ़ किरातों का भी ज़िक्र आया है और नीज़ उसका कि असल क़ुरआन-ए-मजीद में किस क़दर कमी बेशी वाक़े हुई है। अगर कोई साहब इसका मुफ़स्सिल ज़िक्र पढ़ना चाहे तो क़ुरआन व इस्लाम नामी किताब में पढ़ सकता है।
मुहम्मद साहब के दुश्मन गो उनका जिस्मानी नुक़्सान तो ना कर सकते थे लेकिन ज़बान से बराबर उस को बुरा भला कहते रहे। कभी उसको उन्होंने धोके बाज़ कहा और कभी अजब सवालों से उसे तंग किया और बाज़-औक़ात जिन लोगों ने उसके दावे को रद्द किया था इस से तान-ओ-तशनीअ के साथ पेश आए और जो हाल हम तक पहुंचा है इस से ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब को उन लोगों ने तंग कर रखा था। बैज़ावी ने इस किस्म का एक क़िस्सा बयान किया है जिसको मिसाल के तौर पर हम यहां दर्ज करते हैं। कहते हैं कि एक दिन क़ुरैश मुहम्मद साहब के पास तीन सवाल लेकर आए लेकिन जब मुहम्मद साहब उनको जवाब ना दे सका तो उनको दूसरे दिन बुलवाया, लेकिन दूसरे दिन भी वो तैयार ना थे। इसलिए उनसे कहा कि किसी और दिन आना। बैज़ावी ने इस क़िस्से को यूं बयान है :—
قَالَتِ الْيَهُودُ لِقُرَيْشٍ سَلُوهُ عَنِ الرُّوحِ، وَأَصْحَابِ الْكَهْفِ وَذِي الْقَرْنَيْنِ فَسَأَلُوهُ فَقَالَ ائْتُونِي غَدًا أُخْبِرْكُمْ وَلَمْ يَسْتَثْنِ فَأَبْطَأَ عَلَيْهِ الْوَحْيُ بضعة عشر يوماً حَتَّى شَقَّ عَلَيْهِ وكذبته قريش
तर्जुमा : “यहूदीयों ने क़ुरैश को कहा कि तुम उस (मुहम्मद साहब) से रूह, अस्हाबे कह्फ़ और सिकंदर आज़म के बारे में सवाल करो”। तब उन्होंने ये सवाल किए। लेकिन उस ने कहा तुमने मेरे पास कल आना तो मैं जवाब दूँगा। लेकिन वो इंशा अल्लाह कहना भूल गया और इसलिए दस रोज़ तक कोई वह्यी इस पर नाज़िल ना हुई और ये उस पर बहुत शाक़ गुज़रा और क़ुरैश उसे कज़्ज़ाब कहने लगे”
अब्बास और इब्ने हिशाम ने (जिल्द अव्वल, सफ़ा 273) भी इस वाक़िये का ज़िक्र किया है। वो कहते हैं कि यहूदीयों ने मुहम्मद साहब के आज़माने के लिए कि आया वो नबी है या नहीं ये मन्सूबा बाँधा था। ये जाये ताज्जुब नहीं कि जब मोअतरज़ीन की तसल्ली ना हुई तो उन्होंने नाराज़ हो कर उसे कज़्ज़ाब कहना शुरू किया।
मुहम्मद साहब के दुश्मन एक और बात में भी उस पर तअन किया करते थे। क़ुरआन-ए-मजीद के मुख़्तलिफ़ मुक़ामात एक दूसरे के नक़ीज़ थे और अगर इस किताब को ग़ौर से पढ़ें तो ऐसे बहुत नक़ीज़ मुक़ामात मिलेंगे और इसलिए कुछ ताज्जुब नहीं कि मुन्किर अरबों ने फ़ौरन इस सुक़्म (ख़राबी नुक़्स) को दर्याफ़्त कर के क़ुरआन-ए-मजीद के मिंजानिब अल्लाह होने पर एतराज़ किए। पहले-पहल जब मुहम्मद साहब मक्के में बेकसी जैसी हालत में थे और उनकी ज़िंदगी मह्ज़ क़ौम की मर्ज़ी पर हसर (मुनहसिर इन्हिसार करना) रखती थी। उस वक़्त उन्होंने मज़्हबी आज़ादी और नर्मी के उसूल की तल्क़ीन की। लेकिन माबाद ज़माने में जब मदीना में जंगी अरबी फ़ौज उसके ज़ेर फ़रमान थी तो उन्होंने अपने लहजे को बदला और जिहाद की तल्क़ीन होने लगी और मक्का से भाग कर जब मुहम्मद साहब पहली दफ़ा मदीना पहुंचे तो उन्हों ने बारसूख यहूदीयों के तालीफ़ क़लूब की ख़ातिर यरूशलेम को अपना क़िब्ला ठहराया। मगर बादअज़ां जब उनको ये उम्मीद ना रही तो काअबा को अपना क़िब्ला बना लिया कि उसकी तरफ़ मुँह कर के सज्दा करें ताकि अरबों को ख़ुश करे, क्योंकि अहले अरब की निगाह में वो क़दीम से क़ौमी मुक़द्दस माना जाता था। मगर अरबों ने इस तर्ज़ पर भी फब्तियां उड़ाई और जब मुहम्मद साहब ने ये कहा कि इस तब्दीली का हुक्म ख़ुदा ने दिया है तो उन्होंने कहा :—
إنما أنت مفتر متقول على الله تأمر بشيء ثم يبدو لك فتنهي عنه
तर्जुमा : “तू (ऐ मुहम्मद साहब मुफ़्तरी (फ़रेबी)है तू अपने अल्फ़ाज़ को ख़ुदा से मंसूब करता है तू पहले एक बात का हुक्म देता है और फिर अपने दिल ही से इसको बदल कर उसको मना करता है” (तफ़्सीर अल-बेज़ावी, सफ़ा 366)
यूं ज़माना गुज़रता गया और क़ुरैश ग़ैर मुत्मइन और मुन्किर के मुन्किर रहे। जब उन्होंने मुहम्मद साहब से मोजिज़ा तलब किया तो उसने कहा कि मैं तो सिर्फ डराने वाला ही हूँ और जब सवालात के ज़रीये मुहम्मद साहब की नबुव्वत का सबूत मांगा तो वहां भी मायूसी के सिवा और कुछ नतीजा ना हुआ। पस वो इस डराने वाले से मुतनफ़्फ़िर हो गए और ऐसे शख़्स को अपने दर्मियान रहने देने के रोज़ बरोज़ ख़िलाफ़ होते गए और उनको ये यक़ीन हो गया कि मुहम्मद साहब धोके बाज़ और अहमक़ था।
पांचवां बाब
मक्का से हिज्रत
जो कुछ माक़बल बाब में मर्क़ूम हुआ उस से नाज़रीन ये नतीजा निकालेंगे कि इस मौक़े तक मक्का में मुहम्मद साहब की रिसालत को बहुत थोड़ी कामयाबी हासिल हुई। फ़िलवाक़े अहले क़ुरैश में से बहुत थोड़े लोगों ने इस्लाम क़बूल किया और जिन लोगों ने क़बूल किया वो अदना तबक़े के लोग थे। इन उमूर से मुहम्मद साहब के दिल में बड़ा ग़म था और अब यही फ़िक्र थी कि किसी दीगर तरीक़े से वो अपनी क़ौम के लोगों को इस दीन में लाए और उन में एतबार क़ायम करे और यही ख़्याल बार-बार आया कि जब मौक़ा मिले उन लोगों से राज़ी नामा कर ले। ये आज़माईश जिसमें कि मुहम्मद साहब गिर गए यूं पेश आई, कहते हैं कि एक रोज़ मुहम्मद साहब काअबा गए और सूर (53) सुनाने लगे और जब वो ये पढ़ने लगे :—
اللّٰت ولعزّٰی وَمنوۃ الثالثۃ الاخریٰ
तो क़ुरैश को राज़ी करने की ख़ातिर उस ने ये अल्फ़ाज़ भी ज़ाइद किए :—
تلک العزانیق العلی وان شفاعتہم لترتجیٰ۔
तर्जुमा : ''ये सर्फ़राज़ देवियाँ हैं और तहक़ीक़ उन की सिफ़ारिश की उम्मीद रखनी चाहिए''
ये सुनकर क़ुरैश तो बहुत ख़ुश हो गए और रसूल के साथ नमाज़ में शरीक हुए और ये कहने लगे :—
’’अब हम जान गए कि वाहिद रब ही ज़िंदगी देता और लेता है, वही ख़ल्क़ करता और सँभालता है। हमारी ये देवियाँ उस के पास हमारी सिफ़ारिश करती हैं और चूँकि तू ने उनका ये रुत्बा मान लिया है इसलिए अब हम तेरी पैरवी करने पर राज़ी हैं''
लेकिन इस राज़ी नामे से मुहम्मद साहब का बहुत नुक़्सान हुआ और दिल में अंदेशा पैदा हुआ और अपनी ग़लती से ताइब हो कर वो लफ़्ज़ उन की जगह डाले जो अब इस सूरह में पाए जाते हैं ''क्या तुम लोगों के लिए बेटे और ख़ुदा के लिए बेटियां, ये तो बे-इंसाफ़ी की तक़्सीम है, ये तो निरे नाम ही हैं जो तुमने और तुम्हारे बड़ों ने रख लिए हैं''
इस रविश से मुहम्मद साहब के पैरौओं को सदमा पहुंचा और कड़वाहट यहां तक होने लगी कि मुहम्मद साहब को इस की वजह बयान करनी पड़ी। उन्होंने अपने दोस्तों से कहा कि शैतान ने ये लफ़्ज़ उस के मुँह में डाल दिए और शैतान ने इस से माक़बल सारे अम्बिया के साथ ऐसा ही किया था और ये वह्यी नाज़िल हुई :—
مَاۤ اَرۡسَلۡنَا مِنۡ قَبۡلِکَ مِنۡ رَّسُوۡلٍ وَّ لَا نَبِیٍّ اِلَّاۤ اِذَا تَمَنّٰۤی اَلۡقَی الشَّیۡطٰنُ فِیۡۤ اُمۡنِیَّتِہٖ ۚ فَیَنۡسَخُ اللّٰہُ مَا یُلۡقِی الشَّیۡطٰنُ۔
तर्जुमा : ''हमने किसी रसूल या नबी को तुझसे पेशतर नहीं भेजा कि जब उस ने सुनाना शुरू किया तो शैतान ने कुछ (ग़लत तमन्ना उस के दिल में डाल दी और जो तमन्ना शैतान ने डाली थी उस को ख़ुदा ने मंसूख़ कर दिया'' (सूरत अल-हज 22:52)
इस आयत से ये नतीजा निकाला कि इसी तरह शैतान ने मक्का के बुतों की तारीफ़ के अल्फ़ाज़ मुहम्मद साहब के मुँह में डाल दिए। जिस वाक़िये का ऊपर ज़िक्र हुआ वो ऐसा अहम मुआमला था कि इस से मुहम्मद साहब की सीरत पर धब्बा लगता है। इसलिए मुफ़स्सिल ज़िक्र हमने किया और मोअतबर मुसन्निफ़ों ने इस का तारीख़ी सबूत दिया है। चुनान्चे मुआलिम ने हस्ब-ज़ैल बयान किया :—
قالَ ابْنُ عَبَّاسٍ وَمُحَمَّدُ بْنُ كَعْبٍ الْقُرَظِيُّ وَغَيْرُهُمَا مِنَ الْمُفَسِّرِينَ: لَمَّا رَأَى رَسُولُ اللَّهِ تَوَلِّي قَوْمِهِ عَنْهُ وَشَقَّ عَلَيْهِ مَا رَأَى مِنْ مُبَاعَدَتِهِمْ عَمَّا جَاءَهُمْ بِهِ مِنَ اللَّهِ تَمَنَّى فِي نَفْسِهِ أَنْ يَأْتِيَهُ مِنَ اللَّهِ مَا يُقَارِبُ بَيْنَهُ وَبَيْنَ قَوْمِهِ لِحِرْصِهِ عَلَى إِيمَانِهِمْ ، فَكَانَ يَوْمًا فِي مَجْلِسِ قُرَيْشٍ فَأَنْزَلَ اللَّهُ تَعَالَى سُورَةَ النَّجْمِ فَقَرَأَهَا رَسُولُ اللَّهِ حَتَّى بَلَغَ قَوْلَهُ: «أَفَرَأَيْتُمُ اللَّاتَ وَالْعُزَّى وَمَنَاةَ الثَّالِثَةَ الْأُخْرَى» أَلْقَى الشَّيْطَانُ عَلَى لِسَانِهِ بِمَا كَانَ يُحَدِّثُ بِهِ نَفْسَهُ وَيَتَمَنَّاهُ : «تِلْكَ الْغَرَانِيقُ الْعُلَى وَإِنَّ شَفَاعَتَهُنَّ لِتُرْتَجَى»، فَلَمَّا سَمِعَتْ قُرَيْشٌ ذَلِكَ فَرِحُوا بِهِ
तर्जुमा : ''इब्ने अब्बास और मुहम्मद इब्ने कअब अलकरज़ी से रिवायत है और इलावा अज़ीं दीगर मुफ़स्सिरों ने भी कि जब मुहम्मद साहब ने देखा कि इस की क़ौम उस से फिरती जा रही है और उस की मुख़ालिफ़त करती है और (क़ुरआन को) रद्द कर दिया है जिसे वो ख़ुदा की तरफ़ से लाए थे। तब उन के दिल में आरज़ू पैदा हुई कि कोई ऐसा लफ़्ज़ नाज़िल हो जिससे कि उस के और उस की क़ौम के दर्मियान दोस्ती क़ायम हो जाये और ऐसी तर्ग़ीब उन को मिले जिससे कि वो ईमान ले आएं और ऐसा हुआ कि एक रोज़ जब वो क़ुरैश के काअबा में थे तो ख़ुदा ने सुरह नज्म उन पर नाज़िल की और मुहम्मद ये सूरह उन को सुनाने लगे और जब वो इस मुक़ाम पहुंचे افرایتم اللّات والعزی ومناۃ الثالثۃ الاخری अलाख़री तो शैतान ने वही बातें उन के मुँह में डाल दें जिनकी आरज़ू उन के दिल में थी। تلک الغرانین العلی وان شفاعتھم لترتجی जब क़ुरैश ने ये लफ़्ज़ सुने तो बहुत ख़ुश गए।
11 मुवाहिब-अल-लदुनीय में इस क़िस्से का बयान इस तरह से हुआ है :—
قرأ رسول الله صلعم بمكة النجم فلما بلغ أفريتم اللات والعزى ومناة الثالثة الأخرى ألقى الشيطان على لسانه تِلْكَ الْغَرَانِيقُ الْعُلَى وَإِنَّ شَفَاعَتَهُنَّ لِتُرْتَجَى. فقال المشركون ما ذكر آلهتنا بخير قبل اليوم فسجد وسجدوا فنزلت هذه الآية: وما أرسلنا من قبلك من رسول ولا نبي إلا إذ تمنى ألقى الشيطان في أمنيته.
तर्जुमा : ''नबी मक्का में सुरह नज्म सुना रहा था और जब वो इन अल्फ़ाज़ पर पहुंचा افرایتم اللّات والعزی ومناۃ الثالثۃ अलआख़री तो शैतान ने इस के मुँह में ये अल्फ़ाज़ डाल दिए تلک الغرانیق العلی واَن شفاعتھم لترتجی इस पर बुत-परस्त कहने लगे उसने हमारी देवियों का ज़िक्र-ए-ख़ैर किया है। उस ने नमाज़ पढ़ी है और उन्होंने भी नमाज़ पढ़ी और तब ये आयत नाज़िल हुई कि ''हमने तुझसे पेशतर किसी रसूल या नबी को नहीं भेजा लेकिन जब वो सुनाने लगा शैतान ने उस के अंदर कोई तमन्ना डाल दी''
बैज़ावी ने अपनी तफ़्सीर के सफ़ा 447 पर यही क़िस्सा बयान क्या, इसलिए इस क़िस्से की सेहत पर शक करने की कोई गुंजाइश नहीं। इब्ने असीर जो मुहम्मद साहब के क़दीम सवानिह नवीसों में से है, ये लिखता है कि ये अफ़्वाह मशहूर हुई कि क़ुरैश ने इस्लाम क़बूल कर लिया और ये ख़बर अबी-सीना के मुहाजिरीन तक पहुंची और वो लोग जल्द मक्का को वापिस आए गो मक्का के देवताओं को अल्लाह के साथ मिलाने से क़ुरैश ख़ुश हो गए थे लेकिन जब उस ने अपने इस फे़अल से तौबा की तो क़ुरैश ग़ुस्से के मारे झल्ला उठे और उन्हों ने ये अज़्मबिल्-जज़्म किया कि इस तहरीक को वुसअत पकड़ने से पेशतर ही कुचल कर नेस्त-ओ-नाबूद कर दें। इस मक़्सद को हासिल करने के लिए उन्होंने मुसलमानों को बिरादरी से ख़ारिज कर के उन के साथ लेन-देन और मेल बर्ताव सब बंद कर दिया और इस फ़त्वे में उन्होंने ना सिर्फ मुहम्मद साहब और उस के पैरौओं को शामिल किया बल्कि बनी हाशिम के सारे घराने को। अब सारे बनी-हाशिम शहर के एक अलग मुहल्ले में रहने लगे और दो तीन साल तक इस सख़्ती की बर्दाश्त करते रहे। मगर आख़िर-ए-कार अहले क़ुरैश ढीले पड़ गए और मुहम्मद साहब के गिरोह के साथ लेन-देन फिर शुरू हो गया।
अब मुहम्मद साहब ने आगे से दो-चंद कोशिश शुरू की ताकि क़ुरैश किसी तरह से उस की रिसालत पर ईमान ले आएं। उस ने ख़ासकर अहले क़ुरैश के रईसों की तरफ़ तवज्जा मबज़ूल की और जिस इस्तिक़लाल से मुहम्मद साहब ने वाअज़ का काम जारी रखा उस के बारे में एक क़िस्से का बयान आया है जिससे मुहम्मद साहब की सीरत पर बड़ी रोशनी पड़ती है। बैज़ावी ने इस क़िस्से का ये बयान किया है कि एक रोज़ मुहम्मद साहब क़ुरैश के सरदारोँ के सामने बैठा इस नए अक़ीदे के दआवी पर ज़ोर दे रहा था। उस वक़्त एक ग़रीब नाबीना शख़्स अब्दुल्लाह बनाम मकतूम नामी ने नज़्दीक हो कर ये कहना शुरू किया :—
يا رسول الله علمني مما علمك الله
तर्जुमा : ''ऐ रसूल अल्लाह क्या तू मुझे इस अम्र की तालीम देता है जिसकी तालीम कि ख़ुदा ने तुझे दी''
लेकिन मुहम्मद साहब ने इस की तरफ़ तवज्जा ना की और क़ुरैश से ही मुख़ातब रहा और इस शख़्स की ख़लल अंदाज़ी से दिक़ हो कर तेवरी बदल कर उस की तरफ़ से मुँह फेर लिया। इस के बाद ख़ुदा ने मुहम्मद साहब की बेक़रारी पर इस को मलामत की और मुहम्मद साहब ने अपने फे़अल से तौबा की (क़िस्से में ये ज़िक्र है) और इस नाबीना शख़्स को बुला कर इस पर इज़्ज़तों और मेहरबानीयों के पुल बांध दिए और आख़िर-ए-कार उस को मदीना का आमिल बना दिया। इस मुअर्रिख़ ने ये भी बयान किया कि मुहम्मद साहब को अपने इस गुनाह का ऐसा रंज था कि जब कभी वो अब्दुल्लाह को मिलता तो वो ये कहा करता था :—
مرحبا بمن عاتبني فيه ربي
तर्जुमा : ''मर्हबा उस शख़्स को जिसकी ख़ातिर ख़ुदा ने मुझ पर इताब किया''
चूँकि ये वाक़िया अहम था इसलिए क़ुरआन-ए-मजीद में इस का ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ में हुआ :—
तर्जुमा : ''(मुहम्मद साहब) इतनी बात पर चीन बजबें हुए और मुँह मोड़ बैठे कि एक नाबीना उन के पास आया और तुम क्या जानो। अजब नहीं वो मुनव्वर हो जाये या नसीहत सुने और इस को नसीहत सूदमंद हो तो जो शख़्स बेपर्वाई करता है उस की तरफ़ तुम ख़ूब तवज्जा करते हो। हालाँकि वो ठीक ना हो तो तुम पर कुछ नहीं और जो डर कर तुम्हारे पास दौड़ता हुआ आए तो तुम उस से बे-एअतिनाई करते हो'' (सूरह अल-अबस 80:1-8)
इसी वक़्त के क़रीब मुहम्मद साहब की ज़ौजा ख़दीजा का इंतिक़ाल हुआ। इस का मुहम्मद साहब को बहुत क़लक़ हुआ और इस की जान-निसारी और वफ़ादारी का ज़िक्र अपनी मौत तक करते रहे। अब मुसीबत पर मुसीबत आई।
ख़दीजा को गुज़रे थोड़ा ही अरसा हुआ था कि मुहम्मद साहब का मुहाफ़िज़ अबू तालिब रहलत कर गया। मुहम्मद साहब को इस का सख़्त सदमा हुआ और इस पर ये ज़ाहिर हो गया कि अबू तालिब का हाथ सर पर से उठ जाने के बाद उस का मक्के में रहना ख़तरनाक था। इन सदमों के बोझ से आइन्दा मक्का में ना-उम्मीदी के ख़्याल से मुहम्मद साहब ने ये इरादा किया कि आइन्दा को वो ताइफ में जा कर वाअज़ करेगा। ये शहर मक्का से मशरिक़ की तरफ़ सत्तर मील के फ़ासले पर था। लेकिन मक्के के लोगों की तरह ताइफ के लोग भी अपने बुतों पर फ़रेफ़्ता थे। दस दिन तक ताइफ के लोगों के सामने मुहम्मद साहब वाअज़-ओ-नसीहत करता रहा लेकिन उन्होंने कुछ तवज्जा ना की, बल्कि बेइज़्ज़त व ज़ख्मी हो कर वो फिर अपने शहर मक्के को वापिस चला आया। कहते हैं कि असनाए राह में उस ने जिन्नों को वाअज़ किया और उन में से कई जिन ईमान लाए। हम ऐसे क़िस्से से दर गुज़र करते वक़्त सर सय्यद अहमद ख़ां की तरह ये कहेंगे कि जिन्नों से मुराद यहां ग़ैर मुहज़्ज़ब अरबों का था।
मुहम्मद साहब ने थोड़ी देर अबी-सीना के एक मुहाजिर की बेवा से शादी करके अपनी पहली बीवी के इंतिक़ाल के ग़म से रिहाई पाई। इस के बाद उस ने एक और निकाह किया। ये बीवी अबू-बकर की बेटी सात साल उम्र की थी। इस का नाम आईशा था। इस अर्से में मुहम्मद साहब की मुख़ालिफ़त ज़्यादा होने लगी। इसलिए अब मुहम्मद साहब सिर्फ मुसाफ़िरों को वाअज़ करने लगे जो अरब के दूसरे शहरों से मक्का में हज के लिए साल बह साल आया करते थे या गाहे बह गाहे मुख़्तलिफ़ औक़ात-ओ-मुक़ामात पर मेलों में जमा हुआ करते थे। मदीने के चंद मुसाफ़िरों ने मुहम्मद साहब की तालीम को क़बूल कर लिया और जब मदीने को वापिस गए तो उन्होंने इस्लाम की तब्लीग़ ऐसी कामयाबी से की कि दो साल के बाद सत्तर शख्सों का गिरोह मक्का को गया और मुहम्मद साहब के हाथ पर बैअत की। इस कामयाबी से मुहम्मद साहब को ये ख़्याल पैदा हुआ कि अब जगह बदलनी चाहीए और मक्के के मुसलमानों को ये नसीहत की कि सब के सब मदीने को चले जाएं। चुनान्चे इस तजवीज़ पर अमल हुआ और थोड़ी देर बाद मुहम्मद साहब भी अपने रफ़ीक़ अबू-बकर के साथ मदीने में इन से जा मिले और अहले क़ुरैश के तान-ओ-तशनीअ को पीछे छोड़ गए। मदीना में उनका इस्तिक़बाल बड़े तपाक से किया गया। मुहम्मद साहब और इस के पैरौओं के यक-लख़्त ग़ायब हो जाने से अहले क़ुरैश घबरा गए और उनको राह में पकड़ लेने की कोशिश की मगर नाकाम रहे। पस 622 ई. में मक्का में तेराह साल तक़रीबन बेसूद मेहनत करने के बाद मुहम्मद साहब अपने रफ़ीक़ों को लेकर मक्के से मदीना को हिज्रत कर गया। इसी वक़्त से मुसलमानों के सन हिज्री का हुआ।
दूसरा हिस्सा
मुहम्मद साहब मदीना में
पहला बाब
तमद्दुनी और दीनी शराअ
Madina |
मक्का सहराए अरब के वस्त में वाक़े है। इस के चारों तरफ़ बंजर ज़मीन और पत्थरीली पहाड़ियां हैं जिन पर सब्ज़ी का नाम-ओ-निशान तक पाया नहीं जाता। ये ऐसा डरावना और रूखा नज़ारा पेश करती हैं कि इस से बढ़कर अहाता ख़्याल में ना आया होगा। बरअक्स इस के मदीना सरसब्ज़ मैदान है। इस के चारों तरफ़ ख़ुशनुमा बाग़ात और फलदार नख़लिस्तान पाए जाते हैं। आज तक ख़जूरों की ज़राअत व परवरिश वहां के बाशिंदों का आम पेशा है।
मुहम्मद साहब के ज़माने से पेशतर अहले मदीना उमूमन दो हिस्सों पर मुनक़सिम थे :— बुत-परस्त अरब और मवह्हिद यहूदी गो क़ुरब-ओ-जवार के दिहात में मादूद-ए-चंद (बहुत थोड़ी तादाद में) मसीही फ़िर्क़े भी पाए जाते थे, मगर शुमाली शहर में इस्लाम के क़ायम होने के जल्द बाद वहां के लोग चार हिस्सों में मुनक़सिम पाए जाते हैंI
अव्वल- तो मदीना के ग़ैर मुस्लिम अरब थे जिनकी बड़ी आरज़ू ये थी कि इस ज़बरदस्त पेशवा के साथ जो उनके दरमियाँ आ बसा था रिश्ता इत्तिहाद पैदा करें। लेकिन वो इस्लाम क़बूल करना ना चाहते थे मुसलमान मुअर्रिख़ उन लोगों को ''मुनाफ़िक़'' कहते थेI
दोम - वो मुसलमान थे जो मुहम्मद साहब के साथ मक्का से हिज्रत करके मदीने को चले गए थे। ये लोग मदीना में कमोबेश अफ़्लास की हालत में थे। उनको ''मुहाजिरीन'' कहते थे। लेकिन माबाद ज़माने में ये लोग बड़ी इज़्ज़त की निगाह से देखे जाते थे। मुहम्मद साहब को भी उनसे बड़ा उन्स था क्योंकि उन्होंने इस्लाम की ख़ातिर सब कुछ तर्क किया था और मक्का से हिज्रत करने में हर तरह की तक्लीफ़ और ख़तरे का सामना किया था। उनके लिए मुहम्मद साहब हमेशा मशकूर रहेI
सोम - मदीना में तीसरा फ़रीक़ ''अंसार'' का था। ये मदीना के वो लोग थे जिन्होंने पहले ख़ुद इस्लाम क़बूल किया और फिर मुहम्मद साहब और इस के मक्की पैरौओं को मदीना में बुला कर उनकी मदद की। ये ''अंसार'' चूँकि मदीने के पहले मुसलमान थे, इसलिए उनकी बहुत बड़ी इज़्ज़त थी और जिन लोगों को ''अंसार'' का लक़ब मिला उन की बहुत तारीफ़ और मदद की जाती थीI
चहारुम - चौथा फ़रीक़ बिल्कुल अलग-थलग था। ये यहूदीयों के दौलतमंद बेशुमार मुख़्तलिफ़ फ़रीक़ थे जो मदीना के गर्द व नवाह में बस्ते थे। कुछ अर्से तक तो मुहम्मद साहब इन यहूदीयों पर मेहरबान रहे और हिमायत हिफाज़त का अह्द-ओ-पैमान कर लिया। लेकिन ये अह्द-ओ-पैमान देर तक क़ायम ना रहा और जैसा तीसरे बाब में ज़िक्र है। वो वक़्त जल्द आ गया जब कि मुहम्मद साहब ने इन यहूदीयों को जो अहले-किताब कहलाते हैं, इस इलाक़े से ख़ारिज कर देना मस्लिहत मुल्की व लाज़िमी समझा।
मदीना में पहुंचने के बाद मुहम्मद साहब ने जो पहला काम किया वो ये था कि मुसलमानों को जमा कर के उनको ताकीद की कि नमाज़ आम के लिए एक मस्जिद तामीर करें। कहते हैं कि इस काम में मुहम्मद साहब ने अपने हाथों से मदद दी और थोड़े अर्से ही में ईंटों की एक इमारत खड़ी कर दी और खजूर की लकड़ीयों की छत डाल दी। मुसलमानों की दीनी सरगर्मी की ये यादगार थी। इस मस्जिद के साथ चंद हुजरे भी तामीर हुए जिनमें मुहम्मद साहब और उनकी बीवीयां रहा करती थीं।
इस का ज़िक्र हम कर आए हैं कि मुहम्मद साहब ने पहले-पहल तो ये कोशिश की कि यहूदीयों को अपना मुतीअ बना ले और इस मक़्सद के लिए उनको ''अहले-किताब' कहा और उनकी इज़्ज़त भी की। फ़िल-हक़ीक़त जो तारीख़ हम तक पहुंची है उस से ये ज़ाहिर है कि मुहम्मद साहब ने उन के चंद एक दस्तूरों को भी इख़्तियार किया और अपनी शरीयत में इन को दाख़िल किया। जिस ख़ास वसीले से मुहम्मद साहब ने यहूदीयों की तालीफ़ क़लूब करना चाही वो ये था कि यरूशलेम को अपना क़िब्ला क़रार दिया। यहूदीयों का ये आम दस्तूर था कि यरूशलेम की तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ा करते थे। कहते हैं कि मुसलमान मक्का के काअबा की तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ते थे, लेकिन अब मुहम्मद साहब के हुक्म से और कुछ अर्से तक मुसलमान जुनूब की तरफ़ रूख कर के नमाज़ पढ़ने की बजाय शुमाल की तरफ़ रूख कर के नमाज़ पढ़ते रहे। मगर जब मुहम्मद साहब ने देखा कि यहूदी अपनी हट से बाज़ नहीं आते और इस्लाम को क़बूल नहीं करते तो मुहम्मद साहब ने फिर यही क़रार दिया कि मक्का के काअबा ही को अपना क़िब्ला ठहराएँ। चुनान्चे एक रोज़ नमाज़ पढ़ते पढ़ते मुहम्मद साहब ने अपना मुँह काअबा की तरफ़ फेर लिया और इसी तरफ़ नमाज़ पढ़ने लगे। ये देखकर सारे मुसलमान हैरान हुए। इस तब्दीली की वजह वह्यी से मंसूब की और अपने पैरौओं की तसल्ली के लिए ये आयत आस्मान से नाज़िल शूदा क़रार दी :—
सुरह बक़रा आयत 143
قَد نَریٰ تَقَلُّبَ وَجھکَ فِی السَّمَاء فَلَنُوَلّیَنَّکَ قِبلَۃً تَرضٰہَا فَوَلّ وَجھَکَ سَطَرَ المَسجِدِ الحَراَمِ وَحَیْتُ مَا کُنْتُم فَوَ لُّوْا وُجُوْ ھَکُمْ شَطَرَہ‘ط۔
तर्जुमा : ''हमने ऐ मुहम्मद साहब तुझे आस्मान की हर-सिम्त रुख करते देखा लेकिन हम ये चाहते हैं कि तू इस क़िब्ले की तरफ़ रुख करे जो तुझे पसंद है। पस तू अपना मुँह मस्जिद हराम की तरफ़ कर और जहां कहीं तुम हो तुम उसी की तरफ़ मुँह फेरा करो''
जलाल उद्दीन ने इस आयत की ये तफ़्सीर की कि मुहम्मद साहब :—
كان صلى إليها فلما هاجر أمر باستقبال بيت المقدس تألفاً لليهود فصلى إليه سنة أو سبعة عشر شهراً ثم حول
तर्जुमा : ''उस की (काअबा की) तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ा करते थे लेकिन (मदीना की तरफ़) हिज्रत करने के बाद उन्हों ने (अपने पैरौओं को) यरूशलेम की हैकल की तरफ़ रुख कर के नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया ताकि वो यहूदीयों को रज़ामंद करे। पस वो उस की तरफ़ मुँह कर के एक साल या सतरह माह तक नमाज़ पढ़ते रहे, फिर उन्होंने क़िब्ला बदल दिया''
अब्दुल क़ादिर ने अपनी तफ़्सीर के सफ़ा 22 पर ये मर्क़ूम किया :—
’’ चाहते थे कि काअबा की तरफ़ नमाज़ पढ़ने का हुक्म आवे सो आस्मान की तरफ़ मुँह कर के राह देखते थे कि शायद फ़रिश्ता हुक्म लावे कि काबे की तरफ़ नमाज़ पढ़ो”
जब सूरत-ए-हाल ये हो तो ताज्जुब नहीं कि मुहम्मद साहब की ये आरज़ू जल्द पूरी हो गई और वह्यी समावी के ज़रीये इस तब्दीली की मंज़ूरी हो गई। अहादीस में मुहम्मद साहब की नमाज़ों का बहुत ज़िक्र आया है और इस की तफ़्सील आई है कि किस वक़्त और किस तरीक़े से वो नमाज़ पढ़ा करते थे। इन हदीसों से ये मालूम होता है कि मुहम्मद साहब के पैरौ जो उन की तक़्लीद में वुज़ू और तहारत की हर रस्म के बड़े पाबंद थे जब मुहम्मद साहब को अपने ही मुक़र्रर करदह क़वानीन की ख़िलाफ़वर्ज़ी करते देखते तो हैरान रह जाते थे, मसलन मुहम्मद साहब ने उन को ये हुक्म था :—
إنّ الله لا يقبل صلاة بغير طهور
तर्जुमा : “तहक़ीक़ ख़ुदा तहारत के बग़ैर नमाज़ क़बूल नहीं करता”
तो भी मिश्कात अल-मसाबिह किताब अलअतामा में उमर बिन उम्मय्या से ये रिवायत आई है :—
أنه رأى النَّبيَّ الله صلى الله عليْه وسلم يَحتزُّ مِن كَتِفِ شاةٍ في يَدهِ، فدُعي إلى الصَّلاة، فألْقَاهَا والسكين التي كان يَحْتزُّ بها، ثمَّ قام فصلَّى ولم يَتوضَّأ
तर्जुमा : “तहक़ीक़ इस ने नबी को भीड़ी का शाना काटते देखा जो उन के हाथों में था। फिर वो नमाज़ के लिए बुलाए गए तो जिस छुरी से वो शाना काट रहे थे उसे और शाना को छोड़कर वो नमाज़ पढ़ने खड़े हो गए और उन्होंने वुज़ू ना किया”
तिर्मिज़ी से रिवायत है कि वो मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त ये कहा करते थे :—
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द अव्वल - नमाज़ का बयान – हदीस 302
रावी : अली बिन हिज्र इस्माईल बिन इब्राहिम लयस अब्दुल्लाह बिन हसन अपनी वालिदा फ़ातिमा बिंत हुसैन से और वो अपनी दादी फ़ातिमा कुबरा
حَدَّثَنَا عَلِيُّ بْنُ حُجْرٍ حَدَّثَنَا إِسْمَعِيلُ بْنُ إِبْرَاهِيمَ عَنْ لَيْثٍ عَنْ عَبْدِ اللَّهِ بْنِ الْحَسَنِ عَنْ أُمِّهِ فَاطِمَةَ بِنْتِ الْحُسَيْنِ عَنْ جَدَّتِهَا فَاطِمَةَ الْکُبْرَی قَالَتْ کَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ إِذَا دَخَلَ الْمَسْجِدَ صَلَّی عَلَی مُحَمَّدٍ وَسَلَّمَ وَقَالَ رَبِّ اغْفِرْ لِي ذُنُوبِي وَافْتَحْ لِي أَبْوَابَ رَحْمَتِکَ
अली बिन हिज्र, इस्माईल बिन इब्राहिम, लयस, अब्दुल्लाह बिन हसन, अपनी वालिदा फ़ातिमा बिंत हुसैन से और वो अपनी दादी फ़ातिमा कुबरा से नक़्ल करते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाह अलैहि व आले वसल्लम जब मस्जिद में दाख़िल होते तो दुरूद पढ़ते और ये दुआ पढ़ते ऐ अल्लाह मेरी मग़फ़िरत फ़र्मा और मेरे लिए अपनी रहमत के दरवाज़े खोल।
फिर वहां से रुख़स्त होते वक़्त ये कहा करते थे
وَقَالَ رَبِّ اغْفِرْ لِي ذُنُوبِي وَافْتَحْ لِي أَبْوَابَ فَضْلِكَ
तर्जुमा : “ऐ मेरे रब मेरे गुनाहों को माफ़ कर और अपने फ़ज़्ल के दरवाजे मेरे लिए खोल दे”
मुहम्मद साहब की दुआओं के मुताल्लिक़ बुख़ारी ने ये भी बयान किया कि तक्बीर के वक़्त और क़ुरआन-ए-मजीद की तिलावत के अर्से में वो ख़ामोश रहा करते थे। आख़िर-ए-कार आँहज़रत के दोस्त और रफ़ीक़ अबू हुरैरा ने उन से पूछा “ऐ रसूल-ए-ख़ूदा तक्बीर और तिलावत के वक़्त जब आप ख़ामोश रहते हैं तो अपने दिल में क्या कहा करते हैं? मुहम्मद साहब ने यह जवाब दिया :—
सुनन दारमी - जिल्द अव्वल - नमाज़ का बयान – हदीस 1216
أَخْبَرَنَا بِشْرُ بْنُ آدَمَ حَدَّثَنَا عَبْدُ الْوَاحِدِ بْنُ زِيَادٍ حَدَّثَنَا عُمَارَةُ بْنُ الْقَعْقَاعِ عَنْ أَبِي زُرْعَةَ بْنِ عَمْرٍو عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ قَالَ كَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يَسْكُتُ بَيْنَ التَّكْبِيرِ وَالْقِرَاءَةِ إِسْكَاتَةً حَسِبْتُهُ قَالَ هُنَيَّةً فَقُلْتُ لَهُ بِأَبِي وَأُمِّي يَا رَسُولَ اللَّهِ أَرَأَيْتَ إِسْكَاتَتَكَ بَيْنَ التَّكْبِيرِ وَالْقِرَاءَةِ مَا تَقُولُ قَالَ أَقُولُ اللَّهُمَّ بَاعِدْ بَيْنِي وَبَيْنَ خَطَايَايَ كَمَا بَاعَدْتَ بَيْنَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ اللَّهُمَّ نَقِّنِي مِنْ خَطَايَايَ كَمَا يُنَقَّى الثَّوْبُ الْأَبْيَضُ مِنْ الدَّنَسِ اللَّهُمَّ اغْسِلْنِي مِنْ خَطَايَايَ بِالثَّلْجِ وَالْمَاءِ الْبَارِدِ
हज़रत अबू हुरैरा रज़ीयल्लाहु अन्हो बयान करते हैं नबी अकरम तक्बीर और क़िरात के दर्मियान ख़ामोशी इख़्तियार करते थे मैंने अर्ज़ क्या या रसूल अल्लाह मेरे माँ बाप आप पर क़ुर्बान हों तक्बीर और क़िरात के दर्मियान ख़ामोशी में आप क्या पढ़ते हैं नबी अकरम ने जवाब दिया मैं ये पढ़ता हूँ। ऐ अल्लाह मेरे और गुनाहों के दर्मियान इतना फ़ासिला कर दे जितना तूने मशरिक़ और मग़रिब के दर्मियान फ़ासिला रखा है। ऐ अल्लाह मुझे गुनाहों से इस तरह पाक कर दे जैसे सफ़ैद कपड़े को मेल से पाक रखा जाता है ऐ अल्लाह मेरी ख़ताओं को बर्फ़ और ठंडे पानी के ज़रीये धो दे।
मुहम्मद साहब की रोज़मर्रा ज़िंदगी के बारे में जो हदीसें आई हैं उन से ये ज़ाहिर होता है कि रस्मयात का जो बोझ उसने अपने पैरौओं पर लादा था, वो ख़ुद इस की बर्दाश्त से नालां थे और इसलिए मोअर्रिखों ने ऐसे मौक़ों का ज़िक्र बार-बार किया जब मुहम्मद साहब ने इन रस्मयात की ख़िलाफ़वर्ज़ी की।
चुनान्चे इब्ने मसऊद से जो सहाबा में से थे रिवायत है कि एक दिन मुहम्मद साहब ने :—
صَلَّى الظُّهْرَ خَمْسًا فَقِيلَ لَهُ أَزِيدَ فِي الصَّلَاةِ فَقَالَ وَمَا ذَاكَ قَالَ صَلَّيْتَ خَمْسًا فَسَجَدَ سَجْدَتَيْنِ بَعْدَ مَا سَلَّمَ. ورواية أخرى قال: إنَّمَا أَنَا بَشَرٌ مثلكم أَنْسَى كَمَا تَنْسَوْنَ فإذا أنْسيْتَ فَذَكّروني
तर्जुमा : “ज़ुहर की नमाज़ में पाँच रकअतें पढ़ीं। इसलिए बाज़ों ने उन से पूछा कि क्या रकअतें (चार की जगह पाँच) बढ़ गई हैं। उन्हों ने कहा तुम्हारा क्या मतलब है? उन्हों ने जवाब दिया आपने पाँच रकातें पढ़ी हैं फिर सलाम के बाद उन्हों ने दो रकातें पढ़ कर ये कहा। “फ़िल-हक़ीक़त में भी तो तुम्हारी मानिंद हूँ और तुम्हारी तरह भूल जाता हूँ। इसलिए जब मैं भूलूँ तो मुझे याद दिलाया करो” (मिश्कात अल-मसाबिह - किताब अल-सलात)
मुहम्मद साहब ने अपने पैरौओं की हिदायत के लिए इबादत की बहुत तवील तफ़्सील दी। लेकिन मदीना की नई मस्जिद में उस ने सारे ज़मानों के लिए एक शराअ भी दी और शरीयत का ऐसा ज़ाबता मुक़र्रर किया जो ज़िंदगी के हर सीगे के लिए ख़्वाह तमद्दुनी हो या सियासत या दीन कार-आमद हो सके। ये तो मानना पड़ता है कि इस्लाम से पेशतर अरबों में जिस शरीयत का रिवाज था इस से इस्लामी शरीयत बहुत बेहतर थी। लेकिन मुहम्मद साहब ने ऐसी शरीयत को दीनी जामा पहना कर उस को दवामी बना दिया। पस अहले इस्लाम ऐसी शराअ के हमेशा के लिए पाबंद हो गए जो सातवीं सदी के लायक़ थी। इसलिए आला नसब-उल-ऐन तक उनका तरक़्क़ी करना मुहाल हो गया। चूँकि मुहम्मद साहब ने सातवीं सदी में गु़लामी और कसरत अज़्दवाज को जायज़ ठहराया, पस वो सारे ज़मानों के लिए जायज़ हो गया।
मुहम्मद साहब के बरपा होने से पेशतर अरबों में कसरत इज़्दवाज की कोई हद ना थी और इस के साथ ऐसी ख़राबियां मुल्हिक़ थीं जिनका बयान करना मुश्किल है। मुहम्मद साहब ऐसे रिवाज को बेख़-ओ-बिन से तो उखाड़ ना सके, अलबत्ता इस पर हद लगा कर उस की बुराईयों को महदूद कर दिया। ये इस्लाह तो बज़ात-ए-ख़ुद अच्छी थी लेकिन लौंडियों की ग़ैर महदूद इजाज़त देकर इस ख़ूबी का असर भी ज़ाइल कर दिया। लौंडियां या जो औरतें जंग में पकड़ी जाएं ख़्वाह उन के ख़ावंद भी मौजूद हों, वो मुसलमानों को रखनी जायज़ हो गईं और ज़माना-ए-हाल की तहज़ीब किसी हालत में ऐसी बुराई की इजाज़त ना देगी। क़ुरआन-ए-मजीद की जिन आयात में ये इजाज़त पाई जाती है, वो हैं :—
وَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تُقْسِطُوا فِي الْيَتَامَىٰ فَانكِحُوا مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاءِ مَثْنَىٰ وَثُلَاثَ وَرُبَاعَ ۖ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا تَعْدِلُوا فَوَاحِدَةً أَوْ مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ ۚ ذَٰلِكَ أَدْنَىٰ أَلَّا تَعُولُوا
तर्जुमा : “अगर तुम्हें अंदेशा हो की तुम यतीमों से ठीक सुलूक ना कर सकोगे तो उन औरतों में से जो तुम्हारी नज़र में अच्छी हों दो या तीन या चार कर लो और अगर तुमको ख़ौफ़ हो कि तुम अदल ना कर सकोगे तो सिर्फ एक ही करो या लौंडियां जो तुम्हारे दाहने हाथ ने हासिल की हैं” (सूरह निसा 4:3)
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ أُمَّهَاتُكُمْ وَبَنَاتُكُمْ وَأَخَوَاتُكُمْ وَعَمَّاتُكُمْ وَخَالَاتُكُمْ وَبَنَاتُ الْأَخِ وَبَنَاتُ الْأُخْتِ وَأُمَّهَاتُكُمُ اللَّاتِي أَرْضَعْنَكُمْ وَأَخَوَاتُكُم مِّنَ الرَّضَاعَةِ وَأُمَّهَاتُ نِسَائِكُمْ وَرَبَائِبُكُمُ اللَّاتِي فِي حُجُورِكُم مِّن نِّسَائِكُمُ اللَّاتِي دَخَلْتُم بِهِنَّ فَإِن لَّمْ تَكُونُوا دَخَلْتُم بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ وَحَلَائِلُ أَبْنَائِكُمُ الَّذِينَ مِنْ أَصْلَابِكُمْ وَأَن تَجْمَعُوا بَيْنَ الْأُخْتَيْنِ إِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ إِنَّ اللَّهَ كَانَ غَفُورًا رَّحِيمًاوَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ النِّسَاءِ إِلَّا مَا مَلَكَتْ أَيْمَانُكُمْ
तर्जुमा : “तुमको हराम हैं शादीशुदा औरतें सिवाए उन के जो तुम्हारे हाथों में बतौर लौंडियों के हैं” (सूरत निसा 4:23-24)
मुहम्मद साहब की वफ़ात के बाद मुसलमानों की फ़ुतूहात की तारीख़ मज़्कूर बाला शरीयत पर काफ़ी रोशनी डालती है और आज के दिन तक आर्मीनी मसीहीयों का तुर्कों के हाथ से बार-बार क़त्ल होना इस अम्र का भी शाहिद है कि किस क़दर आर्मीनी मसीही औरतों के नंग-ओ-नामूस को उन्होंने ख़राब किया और मुसलमानों ने अपने घरों में इन को लिया।
मुहम्मद साहब के ज़माने की एक बड़ी ख़राबी जिसकी इस्लाह की उन्होंने कोशिश भी की गु़लामी का दस्तूर था। मुहम्मद साहब ने अपने पैरौओं को हुक्म दिया कि अपने ग़ुलामों से मेहरबानी के साथ पेश आएं और ग़ुलामों के आज़ाद करने को ऐसा फे़अल क़रार दिया जो ख़ुदा को पसंद था। लेकिन इन्सानों की ख़रीदो फ़रोख़्त की तो इजाज़त दी और मुसलमान उस वक़्त से लेकर आज तक शराअ नबवी के मुताबिक़ इस बेरहम तिजारत में हैं।
मुसलमान मुहाजिरीन ने मदीना में पहुंच कर पहले-पहल तो कुछ तंगी उठाई। उनमें से अक्सर तो बेज़र थे। ख़ुद मुहम्मद साहब को फ़ाक़ा उठाना पड़ा। तिर्मिज़ी ने बयान किया है कि अक्सर मुसलमान ख़जूरों और जो पर गुज़रान करते थे। मुहम्मद साहब के एक बेमौक़ा ऐलान के बाइस मुहाजिरीन को और भी तक्लीफ़ हुई जो अपनी रोज़ाना रोटी के लिए मदीने के ईमानदारों पर हसर रखते थे। हम ये ज़िक्र कर आए हैं कि मदीना और इस की नवाह के अक्सर बाशिंदे खजूर की ज़राअत-ओ-परवरिश का काम करते थे और इसी पेशे में उन को कमाल हासिल था। पैवंद के मस्नूई तरीक़ों से भी वो वाक़िफ़ थे और इस तरह से उन्होंने बहुत कुछ कमा लिया था। लेकिन मिश्कात अल-मसाबिह में ये बयान आया है कि जब मुहम्मद साहब मदीने में आए तो उन्हों ने इस पेशे को मना किया। इस का नतीजा ये हुआ कि जब खजूर की फ़स्ल का वक़्त आया तो उन मायूस मुसलमानों ने अपनी ख़जूरों को बे फल पाया और ग़ैर-मुस्लिम बाशिंदों को कसरत से फल हासिल हुआ। इस परेशानी की हालत में मुसलमान मुहम्मद साहब के पास जा कर अपनी हालत बताने लगे। कहते हैं कि मुहम्मद साहब ने ये जवाब दिया :—
إِنَّمَا أَنَا بَشَرٌ، إِذَا أَمَرْتُكُمْ بِشَيْءٍ مِنْ دِينِكُمْ، فَخُذُوا بِهِ، وَإِذَا أَمَرْتُكُمْ بِشَيْءٍ مِنْ رَأْيٍ، فَإِنَّمَا أَنَا بَشَرٌ.
तर्जुमा : “मैं सिर्फ बशर हूँ। इसलिए जब मैं तुम्हें दीन के बारे में हुक्म दूं तो तुम मान लो और जब मैं तुम्हें सिर्फ अपनी राय बताऊं तब मैं सिर्फ बशर ही हूँ” (मिश्कात अल-मसाबिह किताब अल-ईमान)
इस अम्र के बताने की ज़रूरत नहीं कि मुहम्मद साहब के इस जवाब से उनके भूके मुहम्मदियों के पेट तो ना भरे और ना वो मुसीबत टल गई जो उन को पेश आई थी। अगले बाब में हम ये ज़ाहिर करने की कोशिश करेंगे कि मुहम्मद साहब ने इस मसले को किस तरह से हल किया और अपने पैरौओं के अफ़्लास को दौलत से बदल दिया।
दूसरा बाब
जिहाद का ऐलान
Jehad |
ये ज़िक्र हो चुका है कि अहले मदीना ख़जूरों के बोने और परवरिश करने में अक्सर मसरूफ़-ओ-मशग़ूल रहते थे। लेकिन बरअक्स इस के अहले मक्का उमूमन ताजिर लोग थे और उन के क़ाफ़िले तिजारत के लिए बराबर शाम और दीगर ममालिक को जाते रहते थे। मुहम्मद साहब ने भी अपने आलम-ए-शबाब में इन क़ाफ़िलों के हमराह कई बार शाम और दीगर मुल्कों की सैर की थी और हर साल अहले क़ुरैश के क़ाफ़िले क़ीमती माल व मताअ से लदे शुमाल की तरफ़ बसरा, दमिशक़ और दीगर शहरों की मंडीयों की तरफ़ जाते नज़र आते थे। अहले मक्का के ये तिजारती क़ाफ़िले उमूमन इस शाहराह से गुज़रा करते थे जो मदीने के क़रीब से गुज़रती थी। लेकिन बाज़-औक़ात उस दूसरी राह से भी सफ़र करते जो बहीरा क़ुलज़ुम के मशरिक़ी साहिल से गुज़रती थी। मुहम्मद साहब को अब ये ख़्याल आया कि क़ुरैश के इन क़ाफ़िलों को लूट कर अपनी और अपने रफ़ीक़ों की तंगी व तक्लीफ को रफ़ा करे। इस मक़्सद को हासिल करने के लिए उन्होंने चंद मुसल्लह दस्ते तैयार किए और उन को हिदायत की कि इन क़ाफ़िलों को लूट लें जिनके इधर से गुज़रने की ख़बर उसे मिली थी। इन मुहिमों का शुरू में यही मक़्सद था कि मदीने में मुहाजिरीन के अफ़्लास को दूर करे। बादअज़ां दीन इस्लाम की इशाअत की ग़रज़ भी दाख़िल हो गई और जंग-ओ-जदल जारी हो गए, ना मह्ज़ लूट की ख़ातिर बल्कि दीन इस्लाम की इशाअत की ख़ातिर। इस की वजह ये बताई गई कि ख़ुदा ने हमारी कमज़ोरी और बेकसी पर नज़र कर के इस जंग-ओ-जदल को हम पर जायज़ कर दिया (मिश्कात अल-मसाबिह – किताब-उल-जिहाद)। मुहम्मद साहब के इन अल्फ़ाज़ के मअनी बख़ूबी वाज़ेह हैं और उनसे कुछ शक बाक़ी नहीं रहता कि मुहम्मद साहब का इरादा लुटने का था और इस के लिए वह्यी के ज़रीये इजाज़त हासिल कर ली।
पहले-पहल तो मुसलमान नाकाम रहे और एक या दो दस्तों को कुछ लूट ना मिली। ऐसी एक मुहिम का ज़िक्र अब्दुल्लाह बिन हवाला ने यूं किया है :—
عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ عَنْ رَسْولِ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ قَالَ فلَمْ تَحِلَّ الْغَنَائِمُ لِأَحَدِ مِنْ قَبْلِنَا ذلِكَ بأن اللهَ رأى ضعْفَنَا وعَجزنا فيطيَّبها لنا.
तर्जुमा : “रसूल-ए-ख़ूदा ने हमें पैदल लुटने के लिए भेजा लेकिन हम बग़ैर लूट हासिल किए वापिस आ गए” (मिश्कात अल-मसाबिह किताब अलफ़तान)
पहले-पहल तो मुहम्मद साहब इन मुहिमों में मुसलमानों के साथ ना गए, लेकिन अपने पैरौओं की नाकामी से तंग आकर उनका जोश बढ़ाने के लिए ख़ुद उन के हमराह हो लिए और लूट की तलाश करने लगे। वअक़दी मुअर्रिख़ ने कम अज़ कम उन्नीस ऐसी मुहिमों का ज़िक्र किया है जिनमें मुहम्मद साहब बह नफ़्स नफ़ीस हाज़िर थे।
जिस पहली मुहिम में मुसलमानों को फ़त्ह नसीब हुई वो एक छोटी सी मुहिम थी जिसमें मुहम्मद साहब ख़ुद हाज़िर ना थे। क़दीम ज़मानों से अहले अरब का ये दस्तूर रहा कि सालाना हज के महीने को मुक़द्दस मानते थे। इस महीने में हर तरह की लड़ाई नाजायज़ समझी जाती थी और अरब के एक सिरे से दूसरे सिरे तक हर एक शख़्स का जान-ओ-माल महफ़ूज़ रहता था। इसी दस्तूर की वजह से मक्का में मुहम्मद साहब को मौक़ा मिला था कि जो लोग हज के लिए दूर नज़्दीक से आते थे उन को तब्लीग़ इस्लाम करते रहे। मगर ये भी लिखा है कि एक मौके़ पर मुहम्मद साहब ने अपना एक मसलहा दस्ता एक मुक़ाम बनाम ''नख़ला'' को रवाना किया ताकि क़ुरैश के क़ाफ़िले पर हमला करे जिसकी ख़बर उन्हें मिली थी। मुसलमानों का ये दस्ता क़ुरैश के डेरों के पास पहुंच गया और ये मुक़द्दस महीना था जिसमें ख़ूँरेज़ी हराम थी। लेकिन मुसलमानों ने अपने भेस को उतार फेंका और उन बे-ख़बर मुसाफ़िरों पर हमला कर दिया। उनमें से बाज़ों को मुसलमानों ने क़त्ल किया और बाज़ों को भगा दिया और ग़नीमत के माल से लदे मदीने को वापिस आए। मुसलमान मुअर्रिख़ कहते हैं कि मुहम्मद साहब के पैरौओं ने ये पहली ग़नीमत हासिल की। इस से उनका हौसला दो बाला हो गया और मालदार क़ाफ़िलों को जो शाम और दीगर ममालिक को माल लेकर जाते थे बराबर लूटने लगे।
मज़्कूर बाला वाक़ियात से थोड़ी देर बाद मुहम्मद साहब को ये ख़बर मिली कि क़ुरैश का एक बड़ा क़ाफ़िला जिसका सरदार अबू सुफ़ियान था शाम से तिजारत का कसीर माल लेकर वापिस आ रहा था। मुहम्मद साहब ने इस मौक़े को हाथ से जाने ना दिया और बिलाताम्मुल ख़ुद सर लश्कर बन कर क़ाफ़िले को लूटने के लिए रवाना हुए। बुख़ारी ने साफ़ तौर से इस का बयान किया कि मुसलमान अबू-सुफ़ियान के क़ाफ़िले को लूटने के लिए गए थे। लेकिन ये क़ाफ़िला भी चौकन्ना हो रहा था और मुसलमानों के हमले के इरादे से आगाह हो कर एक सांडनी सवार मक्का को रवाना किया और ख़ुद एक दूसरी राह से अपने क़ाफ़िले को लेकर रवाना हुआ और यूं मुहम्मद साहब के हाथों से बाल-बाल बच गया। इस अस्ना में मक्का से एक बड़ा गिरोह इस क़ाफ़िले की तलाश में निकला और उस की मुठ-भेड़ मुसलमानों से बमुक़ाम बद्र हो गई और सख़्त जंग हुई। मुसलमान गो शुमार में थोड़े थे लेकिन फ़त्हयाब हुए और बहुत से आदमीयों को असीर करके और माल-ए-ग़नीमत लेकर मदीने को वापिस गए। बहुत असीरों को बावजूद उन की मिन्नत समाहत के मुसलमानों ने बुरी तरह से तह-ए-तेग़ किया और उन की लाशों को कुवें में फेंक दिया। मिश्कात में इस वाक़िये का ज़िक्र यूं आया है :—
मुस्नद अहमद – जिल्द शश्म – हदीस 2171
حَدَّثَنَا رَوْحٌ حَدَّثَنَا سَعِيدٌ عَنْ قَتَادَةَ قَالَ ذَكَرَ لَنَا أَنَسُ بْنُ مَالِكٍ عَنْ أَبِي طَلْحَةَ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَمَرَ يَوْمَ بَدْرٍ بِأَرْبَعَةٍ وَعِشْرِينَ رَجُلًا مِنْ صَنَادِيدِ قُرَيْشٍ فَقُذِفُوا فِي طَوِيٍّ مِنْ أَطْوَاءِ بَدْرٍ
तर्जुमा : “क़तादा से ये रिवायत है कि उस ने कहा अनस इब्ने मालिक ने हमसे अबू तल्हा से रिवायत की कि बद्र के दिन रसूल-ए-ख़ूदा ने क़ुरैश के चौबीस सरदारों को मौत का हुक्म सादिर किया और उनकी लाशें बद्र के एक कुवें में फेंक दी गईं”
जो आदमी क़त्ल हुए उनमें एक शख़्स उक़्बा बिन अबू मईता था। इब्ने मसऊद भी इस जंग में मौजूद था। इस ने उक़्बा के बारे में ये हदीस बयान की जो मिश्कात अल-मसाबिह के बाब जिहाद में मुंदरज है :—
وَعن ابْن مَسْعُودٍ إنّ رَسْولَ اللهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لمّا أَراَدَ قَتْلِ عُقْبَة بن أَبيْ معيط قَالَ: مَنْ لِلصِّبْيَةِ يَا مُحَمَّدُ؟ قَالَ: النَّارُ
तर्जुमा : “इब्ने मसऊद से रिवायत है कि तहक़ीक़ जब रसूल-ए-ख़ूदा ने उक़्बा बिन अबू मईता को क़त्ल करना चाहा तो उक़्बा ने कहा “मेरे बच्चों की ख़बर-गीरी कौन करेगा।” मुहम्मद साहब ने जवाब दिया कि दोज़ख़ की आग।”
ये कह कर मुहम्मद साहब ने इस के फ़ील-फ़ौर क़त्ल करने का हुक्म दिया। बद्र की लड़ाई का जो अहवाल हम तक पहुंचा है (और वो कसरत से है) और जो वाक़ियात इस जंग के बाद वक़ूअ में आए उन से ये ज़ाहिर होता है कि इस हंगामे को फ़िरौ (दबाना) करने के लिए मुहम्मद साहब को वह्यी की मदद की ज़रूरत पड़ी। चुनान्चे फ़ौरन ये वह्यी ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल हुई :—
يَسْأَلُونَكَ عَنِ الْأَنفَالِ قُلِ الْأَنفَالُ لِلَّهِ وَالرَّسُولِ
तर्जुमा : “वो तुमसे ग़नीमतों के बारे में पूछेंगे तू कह दे कि ग़नीमतें ख़ुदा और रसूल की हैं”
जो मुसलमान साहिबान ये कहा करते हैं कि क़दीम मुसलमानों को अपनी हिफ़ाज़त के लिए जंग करना पड़ा वो क़ुरआन-ए-मजीद और अहादीस की शहादत को नज़र-अंदाज कर देते हैं। अम्र वाक़ेअ तो ये है कि इस ज़माने के सारे लिटरेचर पर ग़नीमत का लफ़्ज़ बड़े हुरूफ़ में लिखा है। हदाया, मिश्कात अल-मसाबिह और दीगर किताबों में ग़नीमत के माल की तक़्सीम की निस्बत छोटी छोटी तफ़्सील भी मुंदरज है जो इन ख़ूँरेज़ी की मुहिमों में मुसलमानों को हासिल हुई थी। मगर मुहम्मद साहब ने इस लूट मार और क़त्ल-ओ-ग़ारतगरी के इल्ज़ाम को अपने ऊपर आइद नहीं होने दिया क्योंकि उन्होंने ये सब कुछ ख़ुदा के हुक्म से सरअंजाम दिया था। चुनान्चे उन्होंने ये कहा :—
إِنَّ اللَّهَ فَضَّلَنِي عَلَى الْأَنْبِيَاءِ أَوْ قَالَ فَضّل أُمَّتِي عَلَى الْأُمَمِ وَحَلَّ لنا الْغَنَائِمَ
तर्जुमा : “तहक़ीक़ ख़ुदा ने मुझे दूसरे अम्बिया पर फ़ज़ीलत दी या (बक़ौल एक दूसरी हदीस) ये कहा उस ने मेरी उम्मत को दूसरी उम्मतों पर इस अम्र में फ़ज़ीलत दी कि उस ने लूट हमारे लिए जायज़ कर दी”
अनस ने मुहम्मद साहब के दस्तूर-उल-अमल का भी ज़िक्र एक हदीस में किया जो मुस्लिम में मुंदरज है :—
كَانَ النَّبيُ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُغَيِّرُ إِذَا طَلَعَ الْفَجْرَ، وَكَانَ يَسْتَمِعُ الْأَذَانَ، فَإِنْ سَمِعَ أَذَانًا أَمْسَكَ وَإِلَّا أَغَارَ
तर्जुमा : “रसूल-ए-ख़ूदा अला-उल-सबाह लूटा करते थे और नमाज़ के लिए अज़ान की आवाज़ सुनने के मुंतज़िर रहते जब अज़ान की आवज़ सुनते तो लूटने से बाज़ रहते, वर्ना लूटते रहते”
दिहात के लूटते वक़्त बाज़-औक़ात इस सारे माल व मताअ को बेरहमी से जला कर ख़ाक-ए-सियाह कर देते थे, जिसे वो अपने साथ ले जा ना सकते थे। चुनान्चे अबू दाऊद ने इस मज़्मून की एक हदीस का ज़िक्र किया है :—
عَنْ عُرْوَةَ قَالَ: حَدَّثَنِي أُسَامَةُ أَنَّ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ كَانَ عَهِدَ إِلَيْهِ قَالَ: أَغِرْ عَلَى أُبْنَى صَبَاحًا وَحَرِّقْ
तर्जुमा : उर्वा से रिवायत है कि उस ने ये कहा “उसामा ने मुझे ख़बर दी कि रसूल-ए-ख़ूदा ने इबना नामी एक गांव पर अला-उल-सबाह हमला करने का हुक्म दिया और कहा कि फिर उस को जला दो” (मिश्कात अल-मसाबिह किताब-उल-जिहाद)
मिश्कात के उर्दू मुफ़स्सिर ने मज़्कूर बाला हदीस के बारे में ये रक़म किया :—
’’इस से मालूम हुआ कि जायज़ है ग़ारत करना और जलाना कुफ़्फ़ार के शहरों का”
इस्लाम की तारीख़ जंग बद्र से लेकर वफ़ात रसूल तक इसी किस्म के लूट मार की तारीख़ है। इन लुटेरे दस्तों के सर लश्कर बाज़-औक़ात ख़ुद मुहम्मद साहब हुआ करते थे और बाज़-औक़ात अपने मोअतबर अस्हाब में से किसी को सर लश्कर बना कर भेजा करते थे। इस किस्म के धावे हमेशा तो कामयाब ना हुए, लेकिन जिनमें कामयाबी हुई उनके ग़नीमत के माल से मुसलमान माला-माल होने लगे। ये देखकर तो बाक़ी अरबों के मुँह में भी पानी भर आया और मुहम्मद साहब के ज़ेर इल्म जौक़-दर-जौक़ जमा होने लगे। इस से मक्का के क़ुरैश को ख़ौफ़ पैदा हो गया और जब मुसलमानों ने उनके एक दौलतमंद क़ाफ़िले को लूटा जो मदीने के मशरिक़ की तरफ़ से हो कर शाम को जाना चाहता था। तब तो वो इस ख़तरे को देखकर घबरा उठे। अब उन्होंने ये इरादा किया कि कोई ऐसी सड़क तलाश करें जिससे कि वो शुमाली ममालिक की मंडीयों को पहुंच सकें। इस ग़रज़ को हासिल करने के लिए उन्होंने मदीने के मुसलमानों पर फ़ौज लेकर हमला करना चाहा। चुनान्चे तक़रीबन तीन हज़ार की फ़ौज जमा कर ली और मदीने के नज़्दीक बमुक़ाम उहद पर मुसलमानों को शिकस्त-ए-फ़ाश दी। इस जंग में मुहम्मद साहब को भी चंद ज़ख़्म आए। इस शिकस्त से मुसलमानों में चह मगोईयां शुरू हुईं और कहने लगे कि बद्र की फ़त्ह के वक़्त तो मुहम्मद साहब की मदद के लिए हज़ार-हा फ़रिश्ते आ गए, अब उनको ये शिकस्त क्यों हुई और क्यों वो ज़ख़्मी हुए। ऐसे सवालों के जवाब देने के लिए चंद मकाशफ़े या वह्यी पेश किए और जिन मुसलमानों के अज़ीज़-ओ-अका़रिब इस जंग में मक़्तूल हुए थे उन की तसल्ली के लिए ये कहा गया कि जो कोई राह-ए-ख़ुदा में जान देता है, वो शहीद होता है और वो अब बहिश्त की नेअमतों का मज़ा उठा रहे हैं। ऐसे मुकाशफ़ात में से हम एक मुकाशफ़ा बतौर नमूना यहां नक़्ल करते हैं :—
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द अव्वल - जिहाद का बयान – हदीस 1730
रावी अब्दुल्लाह बिन अब्दुर्रहमान नईम बिन हम्माद बक़ीया बिन वलीद बहीर बिन सअद ख़ालिद बिन मअदान मिक़दाम बिन मअद यकर्ब
حَدَّثَنَا عَبْدُ اللَّهِ بْنُ عَبْدِ الرَّحْمَنِ حَدَّثَنَا نُعَيْمُ بْنُ حَمَّادٍ حَدَّثَنَا بَقِيَّةُ بْنُ الْوَلِيدِ عَنْ بَحِيرِ بْنِ سَعْدٍ عَنْ خَالِدِ بْنِ مَعْدَانَ عَنْ الْمِقْدَامِ بْنِ مَعْدِي کَرِبَ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ لِلشَّهِيدِ عِنْدَ اللَّهِ سِتُّ خِصَالٍ يُغْفَرُ لَهُ فِي أَوَّلِ دَفْعَةٍ وَيَرَی مَقْعَدَهُ مِنْ الْجَنَّةِ وَيُجَارُ مِنْ عَذَابِ الْقَبْرِ وَيَأْمَنُ مِنْ الْفَزَعِ الْأَکْبَرِ وَيُوضَعُ عَلَی رَأْسِهِ تَاجُ الْوَقَارِ الْيَاقُوتَةُ مِنْهَا خَيْرٌ مِنْ الدُّنْيَا وَمَا فِيهَا وَيُزَوَّجُ اثْنَتَيْنِ وَسَبْعِينَ زَوْجَةً مِنْ الْحُورِ الْعِينِ وَيُشَفَّعُ فِي سَبْعِينَ مِنْ أَقَارِبِهِ قَالَ أَبُو عِيسَی هَذَا حَدِيثٌ حَسَنٌ صَحِيحٌ غَرِيبٌ
तर्जुमा : “शहीद को ख़ुदा की तरफ़ से छः हुक़ूक़ हासिल होते हैं। उस के ख़ून के पहले क़तरे के निकलने पर ही उस के गुनाह माफ़ हो जाते हैं। फिर बहिश्त में उस के तकिया की जगह बनाई जाती है। अज़ाब क़ब्र से वो बच जाता है। दोज़ख़ के ख़ौफ़ अज़ीम से वो महफ़ूज़ रहता है। सोने का ताज उस के सर पर धरा जाता है जिसका एक एक मोती कुल दुनिया और इस की माफ़ीहा से ज़्यादा क़ीमती है। 72 हूरें उस को निकाह में मिलती हैं और उस के सत्तर रिश्तेदारों के लिए उस की सिफ़ारिश मक़्बूल होती है”
जंग बद्र और उहद से लेकर मुहम्मद साहब की तालीम में एक अजीब तब्दीली पैदा हो गई। जंग बद्र से पेशतर और जब उनके पैरौओं का शुमार थोड़ा था, उस वक़्त तक तो उन को अपने क़ुरब-ओ-जवार के लोगों का डर था इसलिए फ़िरोतनी और और सुलह जोई से बर्ताव करता रहा और لا اکراہ فی الدین ला-इकराह-फ़ी-द्दीन (दीन में सख़्ती या जब्र नहीं) की तालीम देता रहा और अपने पैरौओं को ये नसीहत करता रहा कि जो लोग दीन में तुमसे इख़्तिलाफ़ रखते हैं उन से मेहरबानी के साथ कलाम किया करो। लेकिन जब उन के इर्दगिर्द जंगजू अरब जमा हो गए और उनको बड़ी जमईयत हासिल होती गई तो दीन के लिए जंग का मुतालिबा रोज़ बरोज़ बढ़ता गया। इन दीनी जंगों को वो जिहाद कहने लगे और मुहम्मद साहब ने अपनी तालीम में इन पर-ज़ोर देना शुरू किया। मुस्लिम और बुख़ारी में इस मज़्मून की एक हदीस आई है कि अबू ज़री ने :—
सहीह बुख़ारी - जिल्द अव्वल – हदीस 2414
रावी उबैदुल्लाह बिन मूसा हिशाम बिन उर्वा उर्वा अबू मरवाह अबू ज़रअ
حَدَّثَنَا عُبَيْدُ اللَّهِ بْنُ مُوسَی عَنْ هِشَامِ بْنِ عُرْوَةَ عَنْ أَبِيهِ عَنْ أَبِي مُرَاوِحٍ عَنْ أَبِي ذَرٍّ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ سَأَلْتُ النَّبِيَّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَيُّ الْعَمَلِ أَفْضَلُ قَالَ إِيمَانٌ بِاللَّهِ وَجِهَادٌ فِي سَبِيلِهِ
तर्जुमा : “कहा कि मैंने रसूल से पूछा कि सबसे अफ़्ज़ल फे़अल किया था? इस ने जवाब दिया कि ख़ुदा पर ईमान लाना और ख़ुदा की राह में जिहाद करना”
क़ुरआन-ए-मजीद की जो सूरतें इस वक़्त और इस के बाद नाज़िल हुईं वो सरासर इसी मज़्मून से पुर हैं और बार-बार ईमानदारों को ये नसीहत की गई कि वो लड़ते जाएं जब तक कि एक ही दीन ना हो जाये। चुनान्चे ये लिखा है :—
فَاِذَا انۡسَلَخَ الۡاَشۡہُرُ الۡحُرُمُ فَاقۡتُلُوا الۡمُشۡرِکِیۡنَ حَیۡثُ وَجَدۡتُّمُوۡہُمۡ وَ خُذُوۡہُمۡ وَ احۡصُرُوۡہُمۡ وَ اقۡعُدُوۡا لَہُمۡ کُلَّ مَرۡصَدٍ ۚ فَاِنۡ تَابُوۡا وَ اَقَامُوا الصَّلٰوۃَ وَ اٰتَوُا الزَّکٰوۃَ فَخَلُّوۡا سَبِیۡلَہُمۡ اِنَّ اللّٰہَ غَفُوۡرٌ رَّحِیۡمٌ ۔
तर्जुमा : “जब मुक़द्दस महीने गुज़र जाएं तो उन लोगों को क़त्ल करो जो ख़ुदा के साथ दूसरों को शरीक करते हैं जहां कहीं तुम उन्हें पाओ। उन को पकड़ो उनका मुहासिरा करो और हर तरह से उन के लिए कमीन में बैठो। लेकिन अगर वो तौबा करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात अदा करें तब उन को छोड़ दो क्योंकि ख़ुदा बख़्शने वाला रहीम है” (सूरह तौबा 9:5)
यहूदीयों और मसीहीयों को भी इस से बचाओ की सूरत कोई ना थी और तल्वार की धार से बचने की सिर्फ ये राह थी कि इस्लाम क़बूल करें या जज़्या दें। सूरत तौबा 9:30 में ये मुताअस्सुबाना शरीयत मुंदरज है :—
قَاتِلُوا الَّذِیۡنَ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ بِاللّٰہِ وَ لَا بِالۡیَوۡمِ الۡاٰخِرِ وَ لَا یُحَرِّمُوۡنَ مَا حَرَّمَ اللّٰہُ وَ رَسُوۡلُہٗ وَ لَا یَدِیۡنُوۡنَ دِیۡنَ الۡحَقِّ مِنَ الَّذِیۡنَ اُوۡتُوا الۡکِتٰبَ حَتّٰی یُعۡطُوا الۡجِزۡیَۃَ عَنۡ یَّدٍ وَّ ہُمۡ صٰغِرُوۡنَ ۔
तर्जुमा : “ऐसों को क़त्ल करो जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते ना यौम अलआख़र पर और ना उस को हराम ठहराते हैं जिसे ख़ुदा और उस के रसूल ने हराम ठहराया और जो दीन हक़ का इक़रार नहीं करते जब तक कि अपने हाथ से जज़्या अदा ना करें और इज्ज़ ना दिखाएं”
मुहम्मद साहब ने ये ऐलान किया कि जिहाद लाज़िमी व दायमी फ़र्ज़ था, क्योंकि उस ने ये बयान किया :—
الجهاد ماض إلى يوم القيامة
तर्जुमा : “जिहाद रोज़ क़ियामत तक जारी रहेगा”
और मुहम्मद साहब ने ताकीद की कि जिहाद किया करें क्योंकि इस के सिले में उन को बहिश्त मिलेगी। चुनान्चे ये अल्फ़ाज़ उन से मंसूब हैं :—
من جاهد في سبيل الله وجبت له الجنة
तर्जुमा : “जो कोई ख़ुदा की राह में जिहाद करे बहिश्त उस पर वाजिब हो गया”
जंग करने की ग़रज़ बहुत जल्द बदल गई। शुरू में तो ये ख़ालिस लूट की आरज़ू थी जिससे मुसलमान जान तोड़ कर लड़ते रहे और जंग करने के लिए ये बड़ी तहरीस थी। लेकिन बादअज़ां इस्लाम की इशाअत के लिए जंग होने लगी। उन को इस वक़्त तक लड़ने का हुक्म था जब तक कि सारा दीन ख़ुदा का ना हो जाए।
अगर कोई मज़्हब से बर्गशता हो जाए तो वो मारा जाये और बाज़-औक़ात मुहम्मद साहब ने ग़ुस्से में आकर बाअज़ों को बड़ी बेरहमी से क़त्ल कराया। चुनान्चे मिश्कात अल-मसाबिह के बाब अल-इंतिकाम में मुंदरज है कि :—
किसी ख़ास मौके़ पर बाअज़ मुसलमान अपने दीन से बर्गशता हो गए और मदीने से भागते वक़्त मुहम्मद साहब के बाअज़ ऊंटों को भी साथ ले गए और जो लोग इन ऊंटों को चुरा रहे थे उन में से एक को क़त्ल भी कर गए। आख़िरकार ये लोग पकड़े गए और मुहम्मद साहब के सामने पेश हुए ताकि वो उन की वाजिबी सज़ा का फ़ैसला करे :—
ये जुर्म तो संगीन था और वो सख़्त सज़ा के मुस्तूजिब थे लेकिन जो सख़्त सज़ा उन को दी गई वो संग-ए-दिल से संग-ए-दिल मुसलमान को भी शाक़ गुज़री। चुनान्चे ये लिखा है :—
فَقَطَعَ أَيْدِيَهُمْ وَأَرْجُلَهُمْ وَسَمَلَ أَعْيُنَهُمْ ثُمَّ لَمْ يَحْسِمْهُمْ حَتَّى مَاتُوا
तर्जुमा : “उन के हाथ और पांव काटे और उन की आँखें निकाल डालें और इनका ख़ून बंद ना किया जब तक कि वो मर ना गए”
इस ख़ौफ़नाक ज़ुल्म का एक दूसरी हदीस में ये ज़िक्र है कि :—
उन की आँखों में लोहे की गर्मगर्म सलाख़ें खुबोई गईं और इस के बाद उन को झुलसती धूप में चट्टानों पर फेंकवा दिया और जब उन लोगों ने शिद्दत प्यास से पानी मांगा तो उन को दिया ना गया हत्ता कि वो तड़प-तड़प कर मर गए।
जो कुछ हमने ऊपर बयान किया वो मह्ज़ मुसलमानों की किताबों से लिया गया है और ये किताबें भी इन में आला दर्जे की मुस्तनद मानी जाती हैं। इसलिए हामियान ए इस्लाम का ये रटते जाना कि इस्लाम आज़ादी का दीन है और ये कि मुहम्मद साहब ने अपने दीन की इशाअत में ज़ोर ज़बरदस्ती से कभी काम नहीं लिया फ़ुज़ूल है। उमूर वाक़ई इस के ख़िलाफ़ हैं। गो मक्की और अवाइल मदनी सूरतों के बाअज़ हवाले उन के दाअवे के कुछ मुमिद मालूम हों, लेकिन क़ुरआन-ए-मजीद के माबाद हिस्सों के गहरे मुताले से और मुस्तनद हदीसों से कुछ शक-ओ-शुब्हा बाक़ी नहीं रहता कि मुहम्मद साहब ने अपने दीन के फैलाने में तशद्दुद की तालीम भी दी और उस पर अमल किया।
तीसरा बाब
मुहम्मद साहब का रिश्ता यहूदीयों से
हम ये तो ज़िक्र कर आए हैं कि मक्का से हिज्रत करने के वक़्त यहूदीयों के बहुत से ताक़तवर क़बीले मदीने और उस के गिर्दो-नवाह में मौजूद थे। पहले-पहल तो मुहम्मद साहब ने उन की तालीफ़ क़लूब की बहुत कोशिश की। उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि चूँकि मैं वाहिद ख़ुदा की तल्क़ीन करता हूँ इसलिए मवह्हिद यहूदी उसे खुले बाज़ू बग़ल में ले लेंगे और मेरे साथ मुत्तहिद हो कर बुत-परस्ती के ख़िलाफ़ जंग करेंगे। लेकिन इन सारी कोशिशों का यहूदीयों ने एक ही जवाब दिया, उन्हों ने कहा कि इस्राईल के बाहर कोई नबी पैदा नहीं हो सकता। शाम और फ़लस्तीन अम्बिया का वतन था, इसलिए इब्राहिम और मूसा का हक़ीक़ी जांनशीन मक्का से बरपा नहीं हो सकता। अलबत्ता तफ़्सीर बैज़ावी (सफ़ा 381 में ये मुंदरज है कि यहूदीयों ने इन अल्फ़ाज़ में मुहम्मद साहब की हंसी उड़ाई :—
الشام مقام الأنبياء فإن كنت نبياً فالحق بها حتى نؤمن بك
तर्जुमा : “शाम अम्बिया का वतन है। अगर तू फ़िल-हक़ीक़त नबी है तो तू वहां जा ताकि हम तुझ पर ईमान लाएं”
इस तंज़ को मुहम्मद साहब ने ना समझा कि यहूदी उस की मक्की पैदाइश पर हंसी उड़ा रहे थे, बल्कि इन अल्फ़ाज़ को इन्होंने एक उम्दा नसीहत के तौर पर क़बूल किया। क्योंकि बक़ौल बैज़ावी :—
فوقع ذلك في قلبه فخرج مرحلة
तर्जुमा : “ये (नसीहत) उन को पसंद आई। इसलिए वो रवाना हो कर एक दिन की राह चले गए”
इस के बाद वह्यी के नाज़िल होने पर वो वापिस आए। उन्हों ने यहूदीयों की रजामंदी हासिल करने की ग़रज़ से उनकी मुक़द्दस किताबों की बार-बार तारीफ़ की और उन को “कलाम-ए-ख़ुदा” कहा “और आदमीयों के लिए नूर हिदायत” जिनकी तस्दीक़ करने के लिए क़ुरआन-ए-मजीद नाज़िल हुआ, लेकिन यहूदीयों ने ना तो मुहम्मद साहब को क़बूल किया और ना क़ुरआन-ए-मजीद को बल्कि जब कभी उनको मौक़ा मिला उन्होंने इस नबी पर तम्सख़र ही किया। चुनान्चे जब उन्होंने यहूदीयों से उनकी मुक़द्दस किताबों के बारे में सवाल किया तो उन्होंने वो बात छुपा ली और अपनी अहादीस में से चंद क़िस्से और फ़साने उस की जगह सुना दिए। यहूदीयों के इस दस्तूर के बारे में मुस्लिम में इब्ने अब्बास से एक हदीस है :—
قَالَ ابْنُ عَبَّاسٍ فلما سَأَلَ النَّبِيُّ صلعم عَنْ شَيْءٍ من أهل الكتاب فَكَتَمُوهُ إياه وَأَخْبَرُوهُ بِغَيْرِهِ فَخَرَجُوا وَقَدْ أَرَوْهُ أَنْ قَدْ خْبَرُوهُ بِمَا قَدْ سَأَلَهُمْ عَنْهُ
तर्जुमा : “इब्ने अब्बास ने कहा कि जब कभी रसूल अहले किताब से कोई सवाल पूछते तो वो इस मज़्मून को दबा लेते और इस की जगह कुछ और ही बता देते और ये ख़्याल कर के चले जाते थे कि वो समझ लेगा कि जो कुछ इस ने पूछा था उसी का जवाब उन्होंने दिया”
इलावा अज़ीं ये ना मानना भी मुश्किल है कि बाइबल मुक़द्दस की तारीख़ के बारे में मुहम्मद साहब की ग़लतीयों की वजह से यहूदी उन पर बराबर तान करते रहे। बख़ोफ़ तवालत ऐसी ग़लतीयों की तफ़्सील देना यहां मुश्किल है। लेकिन अगर नाज़रीन रिसाला हज़ा बाइबल मुक़द्दस और क़ुरआन-ए-मजीद को लेकर इन बुज़ुर्गों के अहवाल का मुक़ाबला करें जो इन किताबों में मज़्कूर हैं तो वो फ़ौरन मालूम कर लेगा कि क़ुरआन-ए-मजीद पहली किताबों की तस्दीक़ करने में कहाँ तक क़ासिर रहा। मुहम्मद साहब तारीख़ बाइबल से ऐसे नावाक़िफ़ थे कि उन्होंने मर्यम वालिदा येसु को मूसा व हारून की हमशीरा मर्यम समझा। मदीने के तालीम याफ़्ता यहूदी ऐसे शख़्स की क्या इज़्ज़त कर सकते थे। उन्होंने उस की कुछ इज़्ज़त ना की बल्कि उन्होंने नज़म में उस की हजुव (बद-गोई - नज़म में किसी की बुराई करना) करनी शुरू की और इस से मुहम्मद साहब ऐसे बरअंगेख़्ता हुए कि उनके तालीफ़ क़लूब की कोशिश से दस्त-बरदार हो गए और बरअक्स उस के उन पर ज़ुल्म-ओ-क़त्ल करना शुरू किया हत्ता कि सारे यहूदीयों को मदीने और इस के क़ुरब-ओ-जुवार से निकाल दिया।
सिरतल-रसूल में एक यहूदी अस्मा बिंत मरवान का क़िस्सा आया है जिससे मुहम्मद साहब की इस नई हिक्मत-ए-अमली की तशरीह होती है। इस औरत ने चंद शेअर मुहम्मद साहब की मज़म्मत और हजुव में लिखे थे। मुहम्मद साहब ने जब ये शेअर सुने तो वो आग बगूला हो कर बोले “क्या मैं बिंत मरवान से अपने लिए तलाफ़ी तलब ना करूँ?” एक मुसलमान बनाम उमेर बिन उदे ने मुहम्मद साहब के ये अल्फ़ाज़ सुने और इनका ये मतलब समझा कि वो अस्मा को क़त्ल कराना चाहते हैं। इसलिए उस ने रात के वक़्त अस्मा के घर में घुस कर इस को वहशयाना तौर से क़त्ल किया। अगले रोज़ इस ने मुहम्मद साहब को इस फे़अल की ख़बर दी। मुहम्मद साहब ने अस्मा के क़त्ल की ख़बर सुन कर ये कहा “ऐ अमीर तू ने ख़ुदा और उस के रसूल की मदद की है”
इसी वक़्त के क़रीब मुहम्मद साहब के इशारे से एक और शख़्स क़त्ल किया गया। इस शख़्स का नाम कअब बिन अशरफ था। सिरतल-रसूल (जिल्द दोम – सफ़ा 73, 74) में इस की पूरी तफ़्सील मुंदरज है। मुख़्तसरन वो क़िस्सा ये है :—
कअब से चिढ़ कर एक दिन मुहम्मद साहब ने ये कहा। इब्ने अशरफ के मुआमले में मेरा मददगार कौन है? मुहम्मद साहब का एक शागिर्द फ़ौरन ये चिल्ला उठा “इस मुआमले में मैं आपकी तरफ़ हूँ। ऐ रसूल-ए-ख़ूदा मैं उसे क़त्ल करूँगा।” फिर मुहम्मद साहब से मश्वरा करने के बाद और चंद रफ़ीक़ों को साथ लेकर चुपके से कअब के घर में जा घुसा और इस बहाने से उस को घर से बाहर ले आया कि वो औज़ार गिरवी रखना चाहता था और यूं उस को बुरी तरह से क़त्ल डाला।
एक और यहूदी बूढ़ा शख़्स मुहम्मद साहब के हुक्म से मारा गया। इस का नाम राफ़ेअ था। बुख़ारी ने इस क़िस्से को यूं लिखा है :—
सहीह बुख़ारी – जिल्द दोम - ग़ज़वात का बयान – हदीस 1263
रावी इस्हाक़ बिन नस्र याह्या बिन आदम इब्ने अबी ज़ाईदा अबू ज़ाईदा अबू इस्हाक़ सबीई बरा बिन आज़िब
حَدَّثَنِي إِسْحَاقُ بْنُ نَصْرٍ حَدَّثَنَا يَحْيَی بْنُ آدَمَ حَدَّثَنَا ابْنُ أَبِي زَائِدَةَ عَنْ أَبِيهِ عَنْ أَبِي إِسْحَاقَ عَنْ الْبَرَائِ بْنِ عَازِبٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمَا قَالَ بَعَثَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ رَهْطًا إِلَی أَبِي رَافِعٍ فَدَخَلَ عَلَيْهِ عَبْدُ اللَّهِ بْنُ عَتِيکٍ بَيْتَهُ لَيْلًا وَهُوَ نَائِمٌ فَقَتَلَهُ
तर्जुमा:' इस्हाक़ बिन नस्र, याह्या बिन आदम, इब्ने अबी ज़ाईदा, अबू ज़ाईदा, अबू इस्हाक़ सबीई हज़रत बराअ बिन आज़िब रज़ीयल्लाहु तआला अन्हो से रिवायत करते हैं वो फ़रमाते हैं कि रसूल अल्लाह ने एक जमाअत अबू राफ़ेअ के घर भेजी और जब वो सो रहा था तो अब्दुल्लाह बिन अतीक़ रात के वक़्त उस के घर घुस गया और उस ने उसे क़त्ल कर डाला''
इन क़त्लों और दूसरे क़त्लों के जो क़िस्से मोअर्रिखों ने बयान किए हैं जिनके तहरीर करने की हमारे पास गुंजाइश नहीं, उन से यहूदीयों ने समझ लिया कि अब उन की ऐन हस्ती मारिज़-ए-ख़तरे में थी और चूँकि यके बाद दीगरे उन यहूदी क़बीलों पर हमले होने लगे और माल-ओ-अस्बाब लुटने लगा तो वो मायूस हो गए। इसलिए बाअज़ तो अपनी जान बचाने की ख़ातिर मुर्तद हो कर मुसलमान बन गए। चुनान्चे इब्ने हिशाम ने सिरतल-रसूल सफ़ा 186 पर बयान किया कि बहुत यहूदी :—
فظهروا بالإسلام واتخذوه جنة من القتل
तर्जुमा : “दिखावे के लिए मुसलमान हो गए, लेकिन ये उन्होंने जान बचाने की ख़ातिर कहा था”
यहूदीयों के एक क़बीले बनी क़ुरैज़ा पर एक सख़्त मुसीबत आई जिसकी वजह से वो निहायत ख़ौफ़-ज़दा हो गए। सिरतल-रसूल में इस का मुफ़स्सिल ज़िक्र है (जिल्द सोम, सफ़ा 9-24)। किताब अल-मग़ाज़ी (सफ़ा 125, मिश्कात अल-मसाबिह, किताब अल-जयार और दीगर किताबों में इस का ज़िक्र मुख़्तसरन ये आया है। मुहम्मद साहब के जंगों में से किसी में बनी क़ुरैज़ा ने मुख़ालिफ़ाना और मक्काराना तर्ज़ इख़्तियार किया था। इस की वजह से मुसलमानों ने इन से इंतिक़ाम लेने का इरादा किया। जब मुहम्मद साहब को काफ़ी फ़ुर्सत मिली तो मुसल्लह फ़ौज का एक बड़ा दस्ता लेकर उन्होंने इस क़बीले के क़ल्ए पर युरुश कर दी और ऐसी सख़्ती से इस का मुहासिरा किया कि उनकी जोरू, बाल बच्चे भूक से तंग आ गए और मज्बूर हो कर क़िलेअ को मुहम्मद साहब के सपुर्द कर दिया और रहम के लिए इल्तिजा की। लेकिन किसी ने उन की इल्तिजा की परवाह ना की और उनको सज़ा देने के लिए उनके सख़्त दुश्मन सअद बिन मुएदा को मुक़र्रर किया। इस वक़्त सअद जंग में ज़ख़्मों से सख़्त तक्लीफ़ में था। इस ने फ़ौरन ये हुक्म दिया कि सारे मर्दों को जो बालिग़ हैं क़त्ल कर दिया जाये और औरतों और बच्चों को ग़ुलाम बना लिया जाये। मुहम्मद साहब ने इस का ये हुक्म सुनकर फ़रमाया
حكمت بحكم الله
तर्जुमा : “तूने ख़ुदा के फ़रमान के मुताबिक़ हुक्म दिया है”
(तफ़्सीर बैज़ावी, सफ़ा 556 और सीरतुल-रसूल, जिल्द सोम, सफ़ा 92)
चुनान्चे मदीने के बाज़ार में ख़ंदक़ें खोदी गईं और छः सौ और नौ सौ के क़रीब यहूदी मर्दों का सर्द-मेहरी से सर क़लम किया गया। मुख़्तलिफ़ मुसन्निफ़ों ने मक़्तूलों का शुमार मुख़्तलिफ़ बताया है। इस की वजह ग़ालिबन ये होगी कि मक़्तूलों की लाशें ना गिनी गईं सिर्फ़ उनका अंदाज़ा लगाया गया। कम-अज़-कम उनका शुमार छः सौ था। हालाँकि इब्ने हिशाम ये कहता है :—
المكثر لهم يقول كانوا بين الثمانمائة والتسعمائة
तर्जुमा : “ज़्यादा से ज़्यादा शुमार इन मक़्तूलों का आठ सौ और नौ सौ के दर्मियान था”
और मुहम्मद साहब के इसी तारीख़ नवीस ने ये भी लिखा :—
إن رسول الله صلى الله عليه وسلم قسم أموال بني قريظة ونساءهم وأبناءهم على المسلمين
तर्जुमा : “रसूल-ए-ख़ूदा ने बनी क़ुरैज़ा का माल-ओ-मता, उन की बीवीयां और उन के बच्चे मुसलमानों के दर्मियान तक़्सीम कर दिए”
जिस बेरहमी के क़त्ल का ऊपर ज़िक्र हुआ और जिससे मुहम्मद साहब के नाम पर बड़ा धब्बा लगता है। क़ुरआन-ए-मजीद में इस का ज़िक्र यूं हुआ है :—
وَأَنزَلَ الَّذِينَ ظَاهَرُوهُم مِّنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِن صَيَاصِيهِمْ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ فَرِيقًا تَقْتُلُونَ وَتَأْسِرُونَ فَرِيقًاوَأَوْرَثَكُمْ أَرْضَهُمْ وَدِيَارَهُمْ وَأَمْوَالَهُمْ وَأَرْضًا لَّمْ تَطَئُوهَا ۚ وَكَانَ اللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرًا
तर्जुमा : “और अहले-किताब के जिन लोगों ने अपने क़ल्ओं के नीचे आकर दुश्मनों की मदद की थी उस ने (ख़ुदा) ने इनके दिलों में घबराहट डाल दी। बाअज़ों को तुमने क़त्ल किया, बाअज़ों को तुमने क़ैद किया और उस (ख़ुदा) ने उनकी ज़मीन, उन के मकानात और उन की दौलत मीरास में तुम्हें दे दी। वो ज़मीन जिस पर तुमने क़दम भी ना रखा था” (सूरह अहज़ाब 33:26)
ग़नीमत के माल में से मुहम्मद साहब के हिस्से में रिहाना नाम एक औरत आई जिसके ख़ावंद को मुहम्मद साहब ने अभी क़त्ल कराया था।
एक दूसरा यहूदी फ़िर्क़ा जिस पर इस्लामी ताक़त बाज़ू आज़माई गई, ख़ैबर का यहूदी फ़िर्क़ा था जो मदीना के शुमाल की तरफ़ तक़रीबन एक सौ मील के फ़ासले पर ख़ैबर के सरसब्ज़ नख़लिस्तानों में रहता था। इन यहूदीयों से कोई ऐसी हरकत भी सरज़द ना हुई थी जिससे कि मुसलमानों को ख़फ़गी पैदा हो। अगर उनका कुछ क़सूर था तो ये था कि साहबे माल-ओ-दौलत थे। जब उनकी ये हालत इन लुटेरों को मालूम हुई जो मदीना पर हुक्मरान थे तो मुहम्मद साहब बह नफ़्स नफ़ीस लश्कर-ए-जर्रार लेकर इन बे-ख़बर यहूदीयों पर हमला करने को चल पड़े। ये यहूदी मग़्लूब हुए और मुसलमानों के हाथ ग़नीमत में माल कसीर आया और इस शर्त पर इन यहूदीयों की जान बख़्शी हुई कि वो अपनी आमदनी और पैदावार का निस्फ़ हिस्सा बराबर मदीने को भेजते रहा करें। इस हमले की अहमीय्यत इस अम्र से भी वाज़ेह हो सकती है कि इब्ने हिशाम ने अठारह सफ़े इस मुहिम और इस के उमूर मुताल्लिक़ा के बयान में काले कर दीए। कहते कि :—
एक मक़्तूल यहूदी की बेवा ने जिसका नाम ज़ीनत बिन हारिस था इंतिक़ाम की राह से पके गोश्त में ज़हर मिला कर मुहम्मद साहब के आगे धर दिया। मुहम्मद साहब और इस के चंद रफ़ीक़ों ने इस गोश्त में से कुछ खा लिया और कहते हैं कि इन रफ़ीक़ों में से एक उस ज़हर के असर से मर गया। मुहम्मद साहब ख़ुद तो मौत से बच निकले लेकिन सख़्त दर्दों में मुब्तला रहे और वो अपनी मौत के दिन तक ये कहा करते थे कि जो ज़हर उन्होंने उस मौक़े पर खाया था उस का असर वो अब तक महसूस करते थे।
जब लोगों ने इस औरत मुसम्मात ज़ैनब को मुहम्मद साहब के सामने पेश किया तो मुहम्मद साहब ने उस से पूछा कि तूने मेरी जान का क़सद क्यों किया तो इस औरत ने ये जवाब दिया :—
فقلت إنْ كان ملكاً استرحت منه وإنْ كان نبياً فسيُخبر
तर्जुमा : “मैंने अपने दिल में कहा अगर ये मह्ज़ बादशाह है तो हमको मख़लिसी हासिल होगी और अगर ये नबी है तो इस को ज़हर मालूम हो जाएगा।”
एक दूसरे वाक़िये से भी मुहम्मद साहब और इस के फ़रीक़ की अदावत यहूदीयों से ज़ाहिर होती है। क़िस्सा यूं बयान हुआ है कि :—
एक मुसलमान तीमा बिन अब्रक़ नामी ने अपने हमसाया का ज़िरह चुरा लिया और आटे की बोरी में छिपा दिया। जब लोगों ने तीमा पर शक किया तो इस ने दूसरों के साथ मिलकर ये इल्ज़ाम एक मासूम यहूदी जै़द बिन अलसमीन पर लगा दिया। कहते हैं कि मुहम्मद साहब भी एक मुसलमान को सज़ा देना ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इस चोरी की सज़ा में उस यहूदी के दोनों हाथ कटवाने का हुक्म सादिर कर दिया। लेकिन एजाज़ी तौर पर वो इस हुक्म की तामील से बाज़ रहे बल्कि बरअक्स इस के उनको हुक्म हुआ कि ख़ुदा से अपनी आरिज़ी कमज़ोर के लिए माफ़ी मांगें (तफ़्सीर बैज़ावी सूरह निसा 4:106)
मुहम्मद साहब ने आख़िरी अय्याम में यहूदीयों और मसीहीयों के साथ सख़्त दुश्मनी और अदावत का इज़्हार किया। जब मुहम्मद साहब मक्का में बेकस और मज़्लूम था तो वो कहा करता था कि :—
’’अहले-किताब के साथ बह्स किया करो, लेकिन नर्मी से। सिवाए उन के जो तुम्हारे साथ बेजा सुलूक करते हैं और तू ये कह कि हम ईमान लाए इस पर जो हम पर नाज़िल हुआ और जो तुम पर नाज़िल हुआ, हमारा ख़ुदा और तुम्हारा ख़ुदा वाहिद है और हम उस के आगे सर ख़म करते है।
लेकिन मदीने में जब उनको ज़ोर और उरूज हासिल हुआ और जब वो जंग में अरबों के सर लश्कर बन गए तो बरअक्स उस के अपने पैरौओं को ये हुक्म दिया :—
قَاتِلُوا الَّذِينَ لَا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْآخِرِ وَلَا يُحَرِّمُونَ مَا حَرَّمَ اللَّهُ وَرَسُولُهُ وَلَا يَدِينُونَ دِينَ الْحَقِّ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حَتَّىٰ يُعْطُوا الْجِزْيَةَ عَن يَدٍ وَهُمْ صَاغِرُونَ
’’इन लोगों के साथ जंग करो जिन पर किताब नाज़िल हुई लेकिन वो ख़ुदा पर ईमान नहीं लाते। ना यौम आख़िरत पर और ना उस को हराम ठहराते हैं जिसे ख़ुदा और उस के रसूल ने हराम ठहराया और जो हक़ का इज़्हार नहीं करते, जब तक कि वो अपने हाथ से जज़्या अदा ना करें और आजिज़ हो जाएं” (सूरत तौबा 9:29)
चौथा बाब
औरतों के साथ मुहम्मद साहब का सुलूक
मुहम्मद साहब की सवानिह उम्री का मुतालआ करने से ये बख़ूबी रोशन है कि औरतों के बारे में इन में एक ख़ास कमज़ोरी पाई जाती थी। हदीसों का एक बड़ा हिस्सा और क़ुरआन-ए-मजीद का एक बड़ा जुज़ इस अम्र से इलाक़ा रखता है कि पैग़म्बर इस्लाम ने औरतों के बारे में क्या कहा और क्या क्यू। इन बयानात के सरसरी पढ़ने से भी ये उमूर नज़र आ जाते हैं। ये उमूर ऐसे सरीह हैं कि हम सिर्फ मुसलमान मुसन्निफ़ों से इक़्तिबास करने पर ही इक्तिफ़ा करेंगे और नाज़रीन ख़ुद नतीजा निकाल लें।
मुहम्मद साहब का जो शौक़ मुहब्बत औरतों से था इस से हदीसें भरी पड़ी हैं। लेकिन यहां हम मुश्ते नमूना अज़ खरवारे सिर्फ दो या तीन मिसालें ही पेश करेंगे। उनमें से एक जो बहुत मशहूर है मुहम्मद साहब की ज़ौजा आईशा से मर्वी है और मिश्कात अल-मसाबिह के किताब अल-अदब में मुंदरज है। वो ये है :—
وَعَنْ عَائِشَةَ قَالَتْ: كَانَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ يُعْجِبُهُ مِنَ الدُّنْيَا ثَلَاثَةٌ: الطَّعَامُ وَالنِّسَاءُ، وَالطِّيبُ، فَأَصَابَ اثْنَيْنِ وَلَمْ يُصِبْ وَاحِدًا، أَصَابَ النِّسَاءَ وَالطِّيبَ، وَلَمْ يُصِبِ الطَّعَامَ
तर्जुमा : “आईशा से रिवायत है कि उस ने कहा “दुनिया की तीन चीज़ें रसूल को मर्ग़ूब थीं तआम, औरतें और इत्रियात। इनमें से दो तो उन को हासिल हो गईं लेकिन तीसरी उनको हासिल ना हुई। उसे औरतें और अत्रियात तो हासिल थीं लेकिन तआम हासिल ना थी”
इसी बाब में अनस से ये रिवायत मुंदरज है :—
قال رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ حُبِّبَ إليّ الطّيْبَ والنّساءَ
तर्जुमा : “रसूल अल्लाह साहब ने कहा इत्रियात और औरतें मुझे पसंद हैं”
फिर मिश्कात के बाब जिहाद में अनस से एक और हदीस इस मक़्सद की आई है
عَنْ أَنَسِ قَالَ لَمْ يَكُنْ شَىْءٌ أَحَبَّ إِلَى رَسُولِ اللَّهِ صلى الله عليه وسلم بَعْدَ النِّسَاءِ مِنَ الْخَيْلِ
तर्जुमा : “अनस से ये रिवायत है कि उसने ये कहा कि औरतों के बाद मुहम्मद साहब को घोड़ों से ज़्यादा और कोई शैय अज़ीज़ ना थी”
ये शहादतें ऐसे लोगों की तरफ़ से हैं जो मुहम्मद साहब के अपने ख़ानदान में से थे और जो उस से बेहतर वाक़िफ़ थे। इस बाब में जो मुहम्मद साहब की सीरत का बयान हुआ है ऐसी हदीसों से वो समझ में आ सकती है, बग़ैर उनकी मदद के इस का समझ में आना मुश्किल है। जब मुहम्मद साहब के अपने पैरुं उन की निस्बत ये कहा करते थे तो जाये ताज्जुब नहीं कि मुहम्मद साहब के मुख़ालिफ़ रसूल-ए-ख़ूदा में ऐसी बातों को देखकर उन पर तअन करें। चुनान्चे तफ़्सीर बैज़ावी में सफ़ा 255 पर ये बयान है :—
’’बाअज़ यहूदी हज़रत साहब को ताने देते थे कि ये निकाह बहुत करते हैं और हमेशा औरतों में मशग़ूल रहते हैं। अगर ये पैग़म्बर होते तो उन को औरतों का ख़्याल ना होता''
ज़माना-ए-हाल में मुहम्मद साहब के बाअज़ मद्दाह ये कहा करते हैं कि मुहम्मद साहब ने जो बहुत से निकाह किए तो वो मह्ज़ ख़ैर ख़्वाही और तरस से किए ताकि अपने मुतवफ़्फ़ी पैरौओं की उम्र रसीदा बेवगान की मआश का इंतिज़ाम कर दें। मुहम्मदी तारीख़ से ज़ाहिर है कि ये उज़्र और हीला बोदा और ग़लत है। मुहम्मद साहब की सारी बीवीयां बेवगान में से ना थीं और ना सारी उम्र रसीदा थीं। बाअज़ तो कुँवारी नौजवान थीं और बाअज़ उन बदनसीब लोगों की बेवगान से थीं जिनको मुहम्मद साहब ने क़त्ल किया था। इलावा अज़ीं ये तारीख़ी वाक़िया है और मुहम्मदी मुसन्निफ़ों ने इस की तस्दीक़ की है कि दर्जन से ज़्यादा बीवीयों के इलावा मुहम्मद साहब के पास चंद एक लौंडियां भी थीं जिनसे वो हज़ उठाते थे। मिश्कात अल-मसाबिह के बाब निकाह में ये मज़्कूर है :—
सहीह मुस्लिम - जिल्द दोम - निकाह का बयान – हदीस 988
रावी अब्द बिन हमीद अबदूर्रज़्ज़ाक़ मुअम्मर उर्वा आईशा
و حَدَّثَنَا عَبْدُ بْنُ حُمَيْدٍ أَخْبَرَنَا عَبْدُ الرَّزَّاقِ أَخْبَرَنَا مَعْمَرٌ عَنْ الزُّهْرِيِّ عَنْ عُرْوَةَ عَنْ عَائِشَةَ أَنَّ النَّبِيَّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ تَزَوَّجَهَا وَهِيَ بِنْتُ سَبْعِ سِنِينَ وَزُفَّتْ إِلَيْهِ وَهِيَ بِنْتُ تِسْعِ سِنِينَ وَلُعَبُهَا مَعَهَا وَمَاتَ عَنْهَا وَهِيَ بِنْتُ ثَمَانَ عَشْرَةَ
तर्जुमा : “अब्द बिन हमीद, अबदूर्रज़्ज़ाक़, मुअम्मर उर्वा, हज़रत आईशा सिद्दीक़ा रज़ीयल्लाहु तआला अन्हा से रिवायत है कि नबी करीम सल्लल्लाह अलैहि व आले वसल्लम ने उनसे निकाह किया तो वो सात साल की लड़की थीं और उनसे ज़फ़ाफ़ किया गया तो वो नौ साल की लड़की थीं और उनके खिलौने उनके साथ थे और जब आप सल्लल्लाह अलैहि व आले वसल्लम का इंतिक़ाल हुआ तो उनकी अम्र अठारह साल थी।”
क़ुरआन-ए-मजीद और हदीस में एक और वाक़िये का ज़िक्र भी आया है। ये ज़ैनब बिन जहिश का क़िस्सा है। इस से बख़ूबी वाज़ेह है कि मुहम्मद साहब की कसरत इज़्दवाजी फ़य्याज़ी और मेहरबानी की ग़रज़ से ना थी। ये ज़ैनब जै़द की बीवी थी और ये जै़द मुहम्मद साहब का मतबन्नाई बेटा था और आम तौर पर वो इब्ने मुहम्मद ही कहलाता था। मुसलमान मोअर्रिखों का बयान है कि एक रोज़ मुहम्मद साहब अचानक जै़द के घर चले गए और ज़ैनब को ऐसे लिबास में पाया जिससे उस की उर्यानी ज़ाहिर होती थी और उस के हुस्न को छुपा ना सकती थी। मुहम्मद साहब की ख़्वाहिश नफ़्सानी मुश्तइल हो गई और फ़र्त जोश में ये पुकार उठे :—
سبحان الله مقلت القلوب
तर्जुमा : “उस ख़ुदा की तारीफ़ हो जो दिलों को बदल डालता है”
ज़ैनब ने भी ये अल्फ़ाज़ सुन लिए और फ़ौरन अपने ख़ावंद को इस की इत्तिला दी। जै़द ने ये सुनकर ज़ैनब को तलाक़ दे दी और ज़ैनब को मुहम्मद साहब ने अपने घर में डाल लिया। ये हाल देखकर मुसलमान हक्के बक्के रह गए। उन के इत्मीनान की ख़ातिर वह्यी नाज़िल हुई जिसने ऐसी शादी के जवाज़ पर साद (मंज़ूर करने की अलामत) कर दिया और इस वह्यी का ज़िक्र क़ुरआन-ए-मजीद के सफ़्हों में हमेशा तक एक स्याह दाग़ रहेगा :—
فَلَمَّا قَضٰی زَیۡدٌ مِّنۡہَا وَطَرًا زَوَّجۡنٰکَہَا لِکَیۡ لَا یَکُوۡنَ عَلَی الۡمُؤۡمِنِیۡنَ حَرَجٌ فِیۡۤ اَزۡوَاجِ اَدۡعِیَآئِہِمۡ اِذَا قَضَوۡا مِنۡہُنَّ وَطَرًا۔
तर्जुमा : “और जब जै़द ने उन के तलाक़ की ठान ली। हमने उस का निकाह तेरे साथ कर दिया ताकि ईमानदारों के लिए मतबन्नाई बेटों की बीवीयों से निकाह करना जुर्म ना समझा जाये जब कि उन्होंने उनका मुआमला फ़ैसला कर दिया हो” (सुरह अहज़ाब 33:37)
जलालेन ने इस आयत की तफ़्सीर में इस निकाह की हक़ीक़ी वजह बता दी। इस तफ़्सीर में ये साफ़ बयान है कि
فزوجها النبي لزيد ثم وقع بصره عليها بعد حين فوقع في نفسه حبها وفي نفس زيد كراهتها
तर्जुमा : “नबी ने (ज़ैनब की) शादी जै़द से कर दी बाद अजां कुछ दिन पीछे मुहम्मद साहब की नज़र उस (ज़ैनब) पर पड़ी और उन के दिल में इस की मुहब्बत पैदा हो गई लेकिन जै़द के दिल में कराहीयत पैदा हुई”
इस क़िस्से पर किसी शरह की ज़रूरत नहीं। इस क़िस्से में इस्लाम का नबी निहायत भद्दे लिबास में ज़ाहिर होता है और ऐसे लोगों की तक़्ज़ीब होती है जो ये कहा करते हैं कि मुहम्मद साहब की शादियां एक तरह के रिफ़ाह-ए-आम के ख़्याल से थीं ताकि ग़रीब बेवगान का भला हो। क़ुरआन-ए-मजीद में एक और मुआमले का ज़िक्र आया है जिसमें मुहम्मद साहब की सीरत पर बहुत रोशनी पड़ती है। ये सूरह तहरीम 66 की पहली दो आयात हैं। उनमें ये है :—
یٰۤاَیُّہَا النَّبِیُّ لِمَ تُحَرِّمُ مَاۤ اَحَلَّ اللّٰہُ لَکَ ۚ تَبۡتَغِیۡ مَرۡضَاتَ اَزۡوَاجِکَ وَ اللّٰہُ غَفُوۡرٌ رَّحِیۡمٌ ۔قَدۡ فَرَضَ اللّٰہُ لَکُمۡ تَحِلَّۃَ اَیۡمَانِکُمۡ۔
तर्जुमा : “ऐ नबी तू उस शैय को हराम क्यों समझता है जिसको ख़ुदा ने तेरे लिए हलाल ठहराया, क्योंकि तेरी ख़्वाहिश अपनी बीवीयों को ख़ुश करने की थी। ख़ुदा ग़फ़ूर व रहीम है। ख़ुदा ने तुझे अपनी क़समों से दर गुज़र करने की इजाज़त दी”
इस आयत के बारे में मुफ़स्सिरों की ये राय है कि :—
मुहम्मद साहब अपनी लौंडी मारिया क़िबती के ऐसे फ़रेफ़्ता थे कि उन की दूसरी बीवीयां हसद करने लगीं और नाराज़ हो गईं कि उन्होंने उन को नज़र-अंदाज कर के एक अजनबी लौंडी को मक़्बूल-ए-नज़र बना लिया। उनका ग़ुस्सा यहां तक भड़का कि उनको राज़ी करने की ख़ातिर उन्होंने क़सम खाई कि वो इस क़िबती लौंडी के नज़्दीक फिर कभी ना जाऐंगे। मगर आख़िर-ए-कार ये हुर्मत उन पर शाक़ गुज़रने लगी और मारिया क़िबती से फिर सोहबत करने की आरज़ू करने लगे। चुनान्चे इस आरज़ू के जवाज़ की ताईद में क़ुरआन-ए-मजीद की मज़्कूर बाला आयत नाज़िल हुई और मुहम्मद साहब फिर मारिया के घर जाने लगे।
तफ़्सीर बैज़ावी के सफ़ा 745 पर ये बयान पाया जाता है कि इस वाक़िये से मुहम्मद साहब की बीवीयों की नाराज़गी ग़ायत दर्जे तक भड़क उठी। वो बयान ये है :—
رُوي أنه عليه السلام خلا بمارية في يوم عائشة أو حفصة فأطلعت على ذلك حفصة فعاتبته فيه فحرّم مارية فنزّلت
तर्जुमा : “ये रिवायत है कि वो (यानी नबी) आईशा या हफ़्सा की बारी में मारिया के साथ ख़लवत में थे। लेकिन इस की ख़बर पा कर हफ़्सा सख़्त नाराज़ हुई और मुहम्मद साहब को मलामत करने लगी। इस पर मुहम्मद साहब ने मारिया को अपने ऊपर हराम कर लिया और उस के बाद ये आयत (जिसमें उन को उन की क़समों के तोड़ने की इजाज़त दी गई) नाज़िल हुई”
अब्बास ने इसी आयत की तफ़्सीर में हफ़्सा के बारे में ये कहा :—
شق عليها كون ذلك في بيتها وعلى فراشها
तर्जुमा : “उस (हफ़्सा) पर ये मुआमला शाक़ गुज़रा क्योंकि ये उस के घर में ही और उस के बिस्तर पर वक़ूअ में आया”
और मुहम्मद साहब ने अपनी बीवीयों को ख़ुश करने की ख़ातिर कसम खा ली कि वो मारिया लौंडी की सोहबत से किनारा करेंगे और इस के लिए दुनिया को ये यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि ख़ुदा ने मुहम्मद साहब से मज़्कूर बाला अल्फ़ाज़ में ख़िताब किया, जिनमें उनको अपनी क़सम तोड़ने और इस लौंडी की नाजायज़ सोहबत करने की इजाज़त मिली। क़ुरआन-ए-मजीद में ये शराअ है कि जिस आदमी के पास एक से ज़्यादा बीवीयां हों वो हर एक को बराबर बारी दे। पहले-पहल तो मुहम्मद साहब इस शराअ पर अमल करते रहे और अपनी मुख़्तलिफ़ बीवीयों के पास बाक़ायदा बारी बारी जाते रहे। लेकिन कुछ अर्से के बाद आईशा की सोहबत उनको ऐसी भाई कि वह्यी ने आकर उनको इस तक्लीफ़-दह शराअ से आज़ाद कर दिया और उन को इजाज़त मिल गई कि अपनी जौरुओं में से जिसको चाहें और जब चाहें चुन लें। इस अजीब मुकाशफ़ा को मुसलमान ऐन कलाम-ए-ख़ुदा मानते हैं और ये सुरह अहज़ाब 33:51 में मज़्कूर है :—
تُرۡجِیۡ مَنۡ تَشَآءُ مِنۡہُنَّ وَ تُــٔۡوِیۡۤ اِلَیۡکَ مَنۡ تَشَآءُ وَ مَنِ ابۡتَغَیۡتَ مِمَّنۡ عَزَلۡتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَیۡکَ۔
तर्जुमा : “फ़िलहाल जिससे चाहे तू किनारा कर सकता है और जिससे तू चाहे हम-बिस्तर हो सकता है और जिनको तू ने पहले तर्क किया था उन में से जिसको तेरा जी चाहे और ये तेरे लिए जुर्म ना होगा”
मज़्कूर बाला बयान पर हम कुछ हाशिया चढ़ाना नहीं चाहते। लेकिन हम नाज़रीन से इल्तिमास करते हैं कि हज़रत की चहेती बीवी आईशा ने इस वह्यी को सुनकर जो तफ़्सीर की उस पर ग़ौर करें। ये मिश्कात अल-मसाबिह के किताब अल-निकाह में मज़्कूर है। वो यूं गोया है :—
ما أرى ربك إلى يسارع في هواك
तर्जुमा : “मैं तेरे रब को नहीं देखती सिवाए इस के कि वो तेरी दिली तमन्नाओं को पूरा करने में शताबी करता है”
इस में तो कुछ शक नहीं कि मुहम्मद साहब के नज़्दीक औरत का दर्जा बहुत ही अदना था। औरतों के बारे जो कुछ उन्होंने बयान किया उस से ज़ाहिर है कि वो औरत को एक लाज़िमी ज़हमत समझते थे और आदमी से बहुत अदना क़रार देते। चुनान्चे ये अम्र मशहूर है कि मुहम्मद साहब ने खाविंदों को अपनी बीवीयों के साथ ज़िद-ओ-कोब करने की इजाज़त इन अल्फ़ाज़ में दी :—
وَ الّٰتِیۡ تَخَافُوۡنَ نُشُوۡزَہُنَّ فَعِظُوۡہُنَّ وَ اہۡجُرُوۡہُنَّ فِی الۡمَضَاجِعِ وَ اضۡرِبُوۡہُنَّ۔
तर्जुमा : “उन बीवीयों की सरज़निश करो जिनके गुस्ताख होने का अंदेशा है। उन को बिस्तरों से अलग करो और उन को कोड़े लगाओ” (सूरत निसा 4:34)
मिश्कात में मज़्कूर है कि अय्याम जंग में औरतें लड़ने निकला करती थीं और ज़ख़्मीयों की मरहम पट्टी किया करती थीं। लेकिन कहते हैं कि मुहम्मद साहब ने उन को ग़नीमत के माल में से हिस्सा देने से इन्कार किया। मिश्कात अल-मसाबिह के किताब रकाक में जो हदीस मुंदरज है उस से पता लगता है कि इन की निगाह में औरतों की क्या क़दर थी। वहां ये लिखा है :—
मिश्कात शरीफ़ - जिल्द चहारुम – हदीस 1
النساء حبائل الشيطان
तर्जुमा : “औरतें शैतान का फंदा हैं”
बुख़ारी ने एक और हदीस मुहम्मद साहब से इस मक़्सद की बयान की है :—
قمت على باب النار فإذا عامّة من دخلها النساء
तर्जुमा : “मैं दोज़ख़ के दरवाज़े पर खड़ा हूँगा और देखो कि जो लोग दोज़ख में दाख़िल होंगे उन में से कसरत औरतों की होगी।”
बुख़ारी और मुस्लिम दोनों ने एक और हदीस इस मज़्मून की बयान की है जिसमें ज़िक्र है कि मुहम्मद साहब ने कहा :—
رأيت النار فلم أرَ كاليوم منظراً قطّ أفظع ورأيت أكثر أهلها النساء
तर्जुमा : “मैंने (रोया में) नार-ए-जहन्नम को देखा और जैसा मैंने आज के दिन देखा था ऐसा कभी नहीं देखा था और ये होलनाक नज़ारा था और मैंने देखा कि अहले दोज़ख में अक्सर औरतें थीं।”
औरतों की कम कद़री और अदना होने की ताईद इस शराअ से भी होती है कि एक मर्द की गवाही दो औरतों की गवाही के बराबर ठहराई गई। चुनान्चे क़ुरआन-ए-मजीद में इस शराअ का यूं ज़िक्र आया कि :—
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا تَدَايَنتُم بِدَيْنٍ إِلَىٰ أَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوهُ وَلْيَكْتُب بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌ بِالْعَدْلِ وَلَا يَأْبَ كَاتِبٌ أَن يَكْتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ اللَّهُ فَلْيَكْتُبْ وَلْيُمْلِلِ الَّذِي عَلَيْهِ الْحَقُّ وَلْيَتَّقِ اللَّهَ رَبَّهُ وَلَا يَبْخَسْ مِنْهُ شَيْئًا فَإِن كَانَ الَّذِي عَلَيْهِ الْحَقُّ سَفِيهًا أَوْ ضَعِيفًا أَوْ لَا يَسْتَطِيعُ أَن يُمِلَّ هُوَ فَلْيُمْلِلْ وَلِيُّهُ بِالْعَدْلِ وَاسْتَشْهِدُوا شَهِيدَيْنِ مِن رِّجَالِكُمْ فَإِن لَّمْ يَكُونَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَامْرَأَتَانِ مِمَّن تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَاءِ أَن تَضِلَّ إِحْدَاهُمَا فَتُذَكِّرَ إِحْدَاهُمَا الْأُخْرَىٰ وَلَا يَأْبَ الشُّهَدَاءُ إِذَا مَا دُعُوا وَلَا تَسْأَمُوا أَن تَكْتُبُوهُ صَغِيرًا أَوْ كَبِيرًا إِلَىٰ أَجَلِهِ ذَٰلِكُمْ أَقْسَطُ عِندَ اللَّهِ وَأَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ وَأَدْنَىٰ أَلَّا تَرْتَابُوا إِلَّا أَن تَكُونَ تِجَارَةً حَاضِرَةً تُدِيرُونَهَا بَيْنَكُمْ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ أَلَّا تَكْتُبُوهَا وَأَشْهِدُوا إِذَا تَبَايَعْتُمْ وَلَا يُضَارَّ كَاتِبٌ وَلَا شَهِيدٌ وَإِن تَفْعَلُوا فَإِنَّهُ فُسُوقٌ بِكُمْ وَاتَّقُوا اللَّهَ وَيُعَلِّمُكُمُ اللَّهُ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
तर्जुमा : “मोमिनो जब तुम आपस में किसी मीयाद मुईन के लिए क़र्ज़ का मुआमला करने लगो तो उस को लिख लिया करो और लिखने वाला तुम में (किसी का नुक़्सान ना करे) बल्कि इन्साफ़ से लिखे नीज़ लिखने वाला जैसा उसे ख़ुदा ने सिखाया है लिखने से इन्कार भी ना करे और दस्तावेज़ लिख दे। और जो शख़्स क़र्ज़ ले वही (दस्तावेज़ का) मज़्मून बोल कर लिखवाए और ख़ुदा से कि इस का मालिक है ख़ौफ़ करे और ज़र क़र्ज़ में से कुछ कम ना लिखवाए। और अगर क़र्ज़ लेने वाला बेअक़्ल या ज़ईफ़ हो या मज़्मून लिखवाने की क़ाबिलीयत ना रखता हो तो जो इस का वली हो वो इन्साफ़ के साथ मज़्मून लिखवाए। और अपने में से दो मर्दों को (ऐसे मुआमले के) गवाह कर लिया करो। और अगर दो मर्द ना हूँ तो एक मर्द और दो औरतें जिनको तुम गवाह पसंद करो (काफ़ी हैं) कि अगर उनमें से एक भूल जाएगी तो दूसरी उसे याद दिला देगी। और जब गवाह (गवाही के लिए) तलब किए जाएं तो इन्कार ना करें। और क़र्ज़ थोड़ा हो या बहुत उस (की दस्तावेज़) के लिखने में काहिली ना करना। ये बात ख़ुदा के नज़्दीक निहायत क़रीन-ए-इंसाफ़ है और शहादत के लिए भी ये बहुत दरुस्त तरीक़ा है। इस से तुम्हें किसी तरह का शिकवा शुब्हा भी नहीं पड़ेगा। हाँ अगर सौदा दस्त-ब-दस्त हो जो तुम आपस में लेते देते हो तो अगर (ऐसे मुआमले की दस्तावेज़ ना लिखो तो तुम पर कुछ गुनाह नहीं। और जब ख़रीद-ओ-फ़रोख़त किया करो तो भी गवाह कर लिया करो। और कातिब दस्तावेज़ और गवाह (मुआमला करने वालों) का किसी तरह नुक़्सान ना करें। अगर तुम (लोग) ऐसा करो तो ये तुम्हारे लिए गुनाह की बात है। और ख़ुदा से डरो और (देखो कि) वो तुमको (कैसी मुफ़ीद बातें) सिखाता है और ख़ुदा हर चीज़ से वाक़िफ़ है” (सूरत बक़रा 2:282)
मिशकात में मुहम्मद साहब की ये हदीस मुंदरज है :—
सहीह बुख़ारी - जिल्द अव्वल – हदीस 302
रावी सईद बिन अबी मर्यम मुहम्मद बिन जाफ़र जै़द बिन असलम ईयाज़ बिन अब्दुल्लाह अबू सईद ख़ुदरी
حَدَّثَنَا سَعِيدُ بْنُ أَبِي مَرْيَمَ قَالَ أَخْبَرَنَا مُحَمَّدُ بْنُ جَعْفَرٍ قَالَ أَخْبَرَنِي زَيْدٌ هُوَ ابْنُ أَسْلَمَ عَنْ عِيَاضِ بْنِ عَبْدِ اللَّهِ عَنْ أَبِي سَعِيدٍ الْخُدْرِيِّ قَالَ خَرَجَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فِي أَضْحَی أَوْ فِطْرٍ إِلَی الْمُصَلَّی فَمَرَّ عَلَی النِّسَائِ فَقَالَ يَا مَعْشَرَ النِّسَائِ تَصَدَّقْنَ فَإِنِّي أُرِيتُکُنَّ أَکْثَرَ أَهْلِ النَّارِ فَقُلْنَ وَبِمَ يَا رَسُولَ اللَّهِ قَالَ تُکْثِرْنَ اللَّعْنَ وَتَکْفُرْنَ الْعَشِيرَ مَا رَأَيْتُ مِنْ نَاقِصَاتِ عَقْلٍ وَدِينٍ أَذْهَبَ لِلُبِّ الرَّجُلِ الْحَازِمِ مِنْ إِحْدَاکُنَّ قُلْنَ وَمَا نُقْصَانُ دِينِنَا وَعَقْلِنَا يَا رَسُولَ اللَّهِ قَالَ أَلَيْسَ شَهَادَةُ الْمَرْأَةِ مِثْلَ نِصْفِ شَهَادَةِ الرَّجُلِ قُلْنَ بَلَی قَالَ فَذَلِکِ مِنْ نُقْصَانِ عَقْلِهَا أَلَيْسَ إِذَا حَاضَتْ لَمْ تُصَلِّ وَلَمْ تَصُمْ قُلْنَ بَلَی قَالَ فَذَلِکِ مِنْ نُقْصَانِ دِينِهَا
तर्जुमा : “सईद बिन अबी मर्यम, मुहम्मद बिन जाफ़र, जै़द बिन असलम, ईयाज़ बिन अब्दुल्लाह, हज़रत अबू सईद ख़ुदरी रज़ीयल्लाह तआला अन्हो रिवायत करते हैं कि एक मर्तबा रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ईद-उल-अज़हा या ईद-उल-फ़ित्र में निकले (वापसी में) औरतों की जमात पर गुज़र हुआ, तो आपने फ़रमाया कि ऐ औरतों सदक़ा दो, इसलिए कि मैंने तुमको दोज़ख़ में ज़्यादा देखा है, वो बोलीं या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम वो क्यों? आपने फ़रमाया कि तुम कसरत से लानत करती हो और शौहर की नाशुक्री करती हो और तुम्हारे इलावा मैंने किसी को नहीं देखा कि वो दीन और अक़्ल में नाक़िस होने के बावजूद किसी पुख़्ता अक़्ल वाले मर्द पर ग़ालिब आ जाए, औरतों ने कहा कि या रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम ये हमारे दीन में और हमारी अक़्ल में क्या नुक़्सान है? आपने फ़रमाया क्या औरत की शहादत (शरआ) मर्द की निस्फ़ शहादत के बराबर नहीं है? उन्होंने कहा हाँ आपने फ़रमाया यही उस की अक़्ल का नुक़्सान है, क्या ऐसा नहीं है कि जब औरत हाइज़ा होती है, तो ना नमाज़ पढ़ सकती है और ना रोज़ा रख सकती है? उन्होंने कहा हाँ आपने फ़रमाया बस यही उस के दीन का नुक़्सान है ''
मुहम्मद साहब ने ना सिर्फ कसरत इज़्दवाज को दुनिया में जायज़ ठहराया बल्कि बहिश्त में भी इस कसरत का वाअदा किया। इन हदीसों में जो इस मज़्मून के मुताल्लिक़ हैं और मुहम्मद साहब से मंसूब हैं बाअज़ बहुत नाशाइस्ता और फ़हश बातें आई हैं जिनका यहां नक़्ल करना मुनासिब नहीं। एक हदीस जो ऐसी ख़राब नहीं मिसाल के तौर पर यहां नक़्ल की जाती है। ये मिश्कात अल-मसाबिह बाब अल-जन्नत में मुंदरज है :—
जामेअ तिर्मिज़ी - जिल्द दोम - जन्नत की सिफ़ात का बयान – हदीस 464
रावी स्वेद बिन नस्र, इब्ने मुबारक, रशिदीन बिन सअद, उमरू बिन हारिस, दराज, अबू हशम, अबू सईद ख़ुदरी
حَدَّثَنَا سُوَيْدٌ أَخْبَرَنَا عَبْدُ اللَّهِ أَخْبَرَنَا رِشْدِينُ بْنُ سَعْدٍ حَدَّثَنِي عَمْرُو بْنُ الْحَارِثِ عَنْ دَرَّاجٍ عَنْ أَبِي الْهَيْثَمِ عَنْ أَبِي سَعِيدٍ الْخُدْرِيِّ قَالَ قَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ أَدْنَى أَهْلِ الْجَنَّةِ الَّذِي لَهُ ثَمَانُونَ أَلْفَ خَادِمٍ وَاثْنَتَانِ وَسَبْعُونَ زَوْجَةً وَتُنْصَبُ لَهُ قُبَّةٌ مِنْ لُؤْلُؤٍ وَزَبَرْجَدٍ وَيَاقُوتٍ كَمَا بَيْنَ الْجَابِيَةِ إِلَى صَنْعَاءَ
तर्जुमा : “रावी स्वेद बिन नस्र, इब्ने मुबारक, रशिदीन बिन सअद, उमरू बिन हारिस, दराज, अबू हशम, अबू सईद ख़ुदरी रज़ीयल्लाह तआला अन्हो से रिवायत है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाह अलैहि व आले वसल्लम ने फ़रमाया अदना जन्नती वो है जिसके अस्सी हज़ार ख़ादिम और बहत्तर बीवीयां होंगी। उस के लिए मोती, याक़ूत और ज़मुर्रद से इतना बड़ा ख़ेमा नसब किया जाएगा जितना कि सनआ और जाबिया के दर्मियान फ़ासिला है।”
पांचवां बाब
मुहम्मद साहब की वफ़ात
मुहम्मद साहब का मक़बरा |
मदीने के क़ुरब-ओ-जुवार में जो यहूदी रहते थे जब उनको मुहम्मद साहब मुतीअ बना चुके तो अरब के बईद इलाक़ों में मुसल्लह फ़ौजी दस्ते भेज कर ये तक़ाज़ा करने लगे कि अगर वो बुत-परस्त हों तो या इस्लाम क़बूल करें या तल्वार के घाट उतारे जाएं। जामेअ अल-तिर्मिज़ी (जिल्द दोम) सफ़ा 468 में ये मुंदरज है कि मुहम्मद साहब ने अपनी फ़ौजों को ये हुक्म देकर भेजा :—
أمرت أن أقاتل الناس حتّى يقولوا لا إله إلا الله
तर्जुमा : “मुझे उन से जंग करने का हुक्म मिला है जब तक कि वो ये कलिमा ना पढ़ें, ला-इलाहा इल-लल्लाह''
यानी जब तक कि वो इस्लाम क़बूल ना करें। ये कहने की ज़रूरत नहीं कि सैंकड़ों ने इस्लाम का आसान तरीक़ा क़बूल किया और मुसलमानी ख़ून चिकां (जिससे ख़ून टपकता हो) तल्वार से जो चारों तरफ़ चमक रही थी, रिहाई हासिल की। अब मुहम्मद साहब ने मक्के के हज का इरादा किया और सन छः हिज्री में एक लश्कर-ए-जर्रार (बड़ा भारी लश्कर) लेकर मक्का की तरफ़ रवाना हुआ। लेकिन क़ुरैश ने उस को शहर में घुसने ना दिया। कुछ गुफ़्त व शनीद के बाद मक्का के नज़्दीक बमुक़ाम हुदेबिया इन दोनों में अहदो पैमान हो गए और इस में ये शर्त ठहरी कि अब मुसलमान बग़ैर हज किए वापिस चले जाएं। लेकिन अगले साल उन को मक्का में दाख़िल हो कर हज करने की पूरी आज़ादी होगी और कोई तक्लीफ़ उन को ना दी जाएगी। बुख़ारी ने इस अह्दनामें का दिलचस्प बयान दिया है और मिश्कात अल-मसाबिह में मुंदरज है। इब्ने हिशाम ने भी सिरतल-रसूल की तीसरी जिल्द के सफ़े 159 पर इस का ज़िक्र किया है। बुख़ारी के बयान के मुताबिक़ इस मौके़ पर अली को मुहम्मद साहब ने “अपना वकील चुना और जब मुहम्मद साहब ने उस को ये अल्फ़ाज़ लिखने का हुक्म दिया “अह्दनामा माबैन मुहम्मद साहब रसूल अल्लाह और सुहेल बिन अम्र” तो सुहेल ने इस जुमले “रसूल अल्लाह” पर एतराज़ किया और कहा कि अगर क़ुरैश मुहम्मद साहब को रसूल अल्लाह तस्लीम कर लेते तो फिर उनकी मुख़ालिफ़त क्यों करते। इस पर मुहम्मद साहब ने अली को हुक्म दिया कि ये जुम्ला “रसूल अल्लाह” काट दे और और इस की जगह सुहेल के कहने के मुताबिक़ “इब्ने अब्दुल्लाह” लिख दे। अली ने इस पर ये एतराज़ किया कि “मैं हरगिज़ ये जुम्ला नहीं काटूँगा।” फिर यूं बयान है कि :—
أخذ رسول الله صلعم الكتاب وليس يحسن يكتب فكتب هذا ما قاضى محمد بن عبد الله
तर्जुमा : “रसूल-ए-ख़ूदा ने काग़ज़ लिया। गो अच्छी तरह से ना लिख सके, लेकिन लिखा जैसा उन्होंने अली को हुक्म दिया था यानी “मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह”
ये क़िस्सा इसलिए दिलचस्प है क्योंकि इस में इस अम्र का सबूत पाया जाता है कि मुहम्मद साहब लिख पढ़ सकते थे। गो ज़माना-ए-हाल के मुसन्निफ़ इस के ख़िलाफ़ कुछ ही कहें। बाअज़ दूसरे मौक़ों का भी इस किताब में ज़िक्र आया है जिनमें मुहम्मद साहब ने कुछ लिखा।
क़ुरैश के साथ जब अह्द बमुक़ाम हुदेबिया बाँधा गया तो मुहम्मद साहब मदीने वापिस आए। अगले साल वो फिर मक्के में जा पहुंचे और हज़ार-हा मुसलमान उन के हमराह थे और अह्द के मुताबिक़ उन्होंने हज की सारी रसूम अदा कीं। अह्दनामा हुदेबिया में एक शर्त ये थी कि मुसलमानों और क़ुरैश के माबैन दस साल तक सुलह रहेगी। लेकिन जिस साल मुहम्मद साहब ने हज किया तो अगले साल इस अह्द के ख़िलाफ़ दस हज़ार फ़ौज के साथ मुहम्मद साहब अचानक मक्के जा पहुंचे। अहले क़ुरैश बिल्कुल तैयार ना थे और शहर को मुसलमानों ने बिला जंग फ़त्ह कर लिया। इस के बाद कई एक मुहिमें भेजी गईं जिनका मक़्सद था कि क़ुरब-ओ-जुवार के क़बीलों को मुतीअ करें। इलावा अज़ीं रुम और फ़ारस के बादशाहों को दावत-ए-इसलाम के ख़त भेजे।
इन लगातार मुहिमों के बावजूद भी मुहम्मद साहब को नए क़वानीन मुश्तहिर करने का मौक़ा मिलता रहा। तक़रीबन हर सीग़ा ज़िंदगी के लिए वही नाज़िल होती रही। इस बीसवीं सदी में इस की बाअज़ तालीमात तो कुछ बेमौक़ा सी मालूम पड़ती हैं। फिर भी सब मुसलमान ईमानदारों का फ़र्ज़ है कि इस की तालीम को वह्यी मिंजानिब अल्लाह मानें, मसलन :—
- क़ुरआन-ए-मजीद में बार-बार ये मज़्कूर है कि पहाड़ों के पैदा करने में ख़ुदा का मंशा- ये था कि ज़मीन को हिलने से बाज़ रखे।
- शहाब (वो चमकते हुए जर्म फ़लकी जो रात को टूटते हैं) वो तीर हैं जो फ़रिश्ते शयातीन की तरफ़ फेंकते हैं जब कि शयातीन आस्मानी गुफ़्तगु को सुनने के लिए जाते हैं।
- दोज़ख़ और बहिश्त की तफ्सीलें खासतौर पर क़ुरआन-ए-मजीद में मुन्दर्ज हैं। ये दोनों मुक़ाम माद्दी बयान हुए हैं। बहिश्त साया-दार दरख़्तों और सर्द नदीयों की जगह है, जहां शहवात ए नफ़्सानी पूरी की जाती हैं और शराब की नदियाँ वहां के लोगों की प्यास बुझाती हैं। दोज़ख़ बदनी अज़ाब की जगह है जिसकी निस्बत क़ुरआन-ए-मजीद की तालीम के मुताबिक़ क़ुरआन ने क़सम खाई है कि जिन्न-ओ-इन्स से भर देगा।
- इसी किताब में ये भी ज़िक्र है कि इस मक़्सद के लिए ख़ुदा ने इन्सानों को पैदा किया बल्कि मुसलमानों को भी नार-ए-जहन्नम में से गुज़रना पड़ेगा और क़ुरआन-ए-मजीद की एक मशहूर आयत में ये मुंदरज है कि हर शख़्स इस अज़ाब की जगह में दाख़िल होगा।
आजकल के बाअज़ मुसलमान इस पर-ज़ोर दिया करते हैं कि मुहम्मद साहब उनकी सिफ़ारिश करेगा। बरअक्स इस के क़ुरआन-ए-मजीद में बार-बार ये बयान किया कि अदालत के दिन कोई शफ़ी ना होगा। अहादीस में भी गो उन में से बाअज़ क़ुरआन के ख़िलाफ़ हैं, मुहम्मद साहब की निस्बत लिखा है कि वो अपनी बेटी फ़ातिमा को कहा करते थे :—
يا فاطمة انقذي نفسك من النار فإني لا أملك لكم من الله شيئاً
तर्जुमा : “ऐ फ़ातिमा अपने तेई आग से बचा क्योंकि तेरी बाबत मैं ख़ुदा से कुछ हासिल नहीं कर सकता।”
मुहम्मद साहब ने ना सिर्फ ये ज़ाहिर किया कि वो दूसरों के बचाने के नाक़ाबिल थे बल्कि उन्होंने अपने मुस्तक़बिल की तरफ़ से भी लाइल्मी ज़ाहिर की। चुनान्चे बुख़ारी में इस मज़्मून की एक हदीस है :—
والله لا أدرى وأنا رسول الله ما يُفعل بي ولا بكم
तर्जुमा : “ख़ुदा की क़सम गो मैं रसूल-ए-ख़ूदा हूँ मैं नहीं जानता कि मेरे साथ क्या होगा और तुम्हारे साथ क्या होगा।”
क़ुरआन-ए-मजीद में भी यही बयान आया है (देखो सुरह अह्क़ाफ़) मिश्कात अल-मसाबिह के किताब अस्मा अल्लाह में ये मुंदरज है :—
لَنْ يُنَجِّيَ أَحَدًا مِنْكُمْ عَمَلُهُ قَالُوا وَلَا أَنْتَ يَا رَسُولَ اللَّهِ قَالَ وَلَا أَنَا إِلَّا أَنْ يَتَغَمَّدَنِي اللَّهُ بِرَحْمَته
तर्जुमा : “तुम में से किसी के आमाल उस को ना बचाएँगे। (एक ने कहा) ऐ रसूल-ए-ख़ूदा क्या तेरे आमाल भी? उन्होंने जवाब दिया “मेरे भी जब तक ख़ुदा मुझ पर रहमत ना करे।”
बल्कि मुहम्मद साहब को अपने मुस्तक़बिल की ऐसी फ़िक्र थी कि उन्होंने मुसलमानों को उनके लिए ये दुआ करने की तल्क़ीन की :—
إذا تشهد أحدكم في الصلاة فليقل: اللهم صل على محمد وعلى آل محمد وبارك على محمد وعلى آل محمد وارحم محمدا وآل محمد كما صليت وباركت وترحمت على ابراهيم وعلى آل إبراهيم
तर्जुमा : “जब तुम में से कोई (अपनी नमाज़ के वक़्त) ख़ुदा और उस के रसूल के बारे में शहादत दे तब वो ये कहे “ऐ ख़ुदा मुहम्मद और इस की आल को बरकत दे और मुहम्मद और आल मुहम्मद पर रहम कर जैसा तू ने इब्राहिम और उस की औलाद को बरकत दी और रहम किया”
आज तक सारी दुनिया में मुसलमान अपने नबी की भलाई के लिए इस दुआ को दोहराते हैं। हिज्री के ग्यारहवें साल में मुहम्मद साहब बीमार हो गए। मुसलसल तेज़ बुख़ार ने उन्हें कमज़ोर कर दिया और बहुत जल्द वो शदीद बीमार नज़र आने लगे। जब उसे अपने आख़िरी अय्याम के मुताल्लिक़ अंदेशा होने लगा तो उस ने अबू बकर को मुक़र्रर किया कि वो उस की जगह पर इमाम मस्जिद हो और फिर अपनी ख़ामोशी (मौत) के वक़्त आईशा के कमरे में उस ने क़लम और स्याही लाने को कहा ताकि वो अपनी (दी हुई) गुज़श्ता तालीम में कुछ इज़ाफ़ा कर सके। लेकिन जो आग (बुख़ार की हरारत) बड़ी तेज़ी से सुलग रही थी बहुत ज़्यादा शिद्दत इख़्तियार कर गई और मुहम्मद साहब ज़िंदा ना रहा कि इन अल्फ़ाज़ का इज़ाफ़ा कर सके जो कि उस के मज़्हब की तक्मील और उस के पैरोकारों को भटकने से रोकते। ये वाक़िया दो वजूहात की बिना पर अहम है। ये साबित करता है कि मुहम्मद पढ़ और लिख सकता था और इस वाक़िया से इस बात का इशारा भी मिलता है कि उसने अपना (इस्लामी मज़हबी) निज़ाम ना-मुकम्मल छोड़ा। बुख़ारी इस वाक़िये को इब्ने अब्बास से रिवायत करता है कि जब रसूल-ए-ख़ूदा मरने को था और काफ़ी लोग कमरे में मौजूद थे, उनमें उमर बिन ख़त्ताब भी था, इस (रसूल अल्लाह) ने कहा :—
ھَلُمّوا اکَّتُبٗ لَکُمٗ کِتٰباً لَنٗ تَضِلّوا بَعٗدِہٖ۔
तर्जुमा : “आओ मैं तुम्हारे लिए एक तहरीर लिखूँगा (पस वो) इस के बाद तुम कभी गुमराह ना होगे।”
फिर उमर ने कहा :—
“वो यक़ीनी तौर पर दर्द में मुब्तला हैं ताहम हमारे पास क़ुरआन-ए-मजीद है। कलाम-ए-ख़ुदा हमारे लिए काफ़ी है''
फिर एक तक़्सीम ने इन लोगों के दर्मियान जन्म लिया जो कमरे में मौजूद थे और उनमें बह्स-ओ-तकरार शुरू हो गया। बाअज़ ने कहा “उसे क़लम और स्याही ला के दो ताकि रसूल अल्लाह साहब तुम्हारे लिए कुछ लिख सकें।” दूसरे उमर के साथ मुत्तफ़िक़ थे। काफ़ी देर तक जब वो शोर मचा रहे थे और तज़बज़ब का शिकार थे तो रसूल अल्लाह साहब ने कहा “मुझे छोड़ दो।” थोड़ी देर बाद मुहम्मद साहब ने आईशा के कमरे में आख़िरी साँसें लीं और ख़ालिक़ हक़ीक़ी से जा मिले। पैग़म्बर अरबी मदफ़ून इस अज़ीम दिन के मुंतज़िर हैं जब ख़ुदा के सामने हर किसी को अपना हिसाब देना पड़ेगा।
यूं ये अज़ीम शख़्सियत गुज़र गई। इस किताब के मक़्सद और महदुदीयत के बाइस इस (मुहम्मद साहब) की ज़िंदगी का मुकम्मल तर्ज़-ए-अमल तहरीर नहीं किया गया। बहुत से दिलचस्प और अहम हक़ायक़ को नज़र अंदाज़ कर दिया गया, लेकिन हमने कोशिश की कि हमने जो कुछ लिखा जिस क़दर मुम्किन हो इस किताब के उन्वान के मुताबिक़ सच्च हो और सिर्फ वही कुछ दिया जो ख़ुद इस्लाम में पाया जाता है। जो तस्वीर मुस्लिम तारीख़ हमारे सामने पेश करती है वह मुकम्मल तौर पर दिलकश नहीं है और अब हम ये क़ारी पर छोड़ते हैं कि वो फ़ैसला करे कि किस लिहाज़ से मुहम्मद साहब को हक़ीक़त में ख़ुदा का नबी माना जा सकता है।
2. Musa bin Uqba, Kitab-ul-Maghazi, A Fragment of the Lost Book of Musa B. 'Uqba, A. Guillaume, The Life of Muhammad, A Translation of Ishaq’s Sirat Rasul Allah, p. xlii - xlvii.